हमारी वसीयत और विरासत (भाग 13)— समर्थगुरु की प्राप्ति— एक अनुपम सुयोग
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समर्थगुरु की प्राप्ति— एक अनुपम सुयोग:—
अध्यात्म प्रयोजनों के लिए गुरु-स्तर के सहायक की इसलिए आवश्यकता पड़ती है कि उसे पिता और अध्यापक का दुहरा उत्तरदायित्व निभाना पड़ता है। पिता बच्चे को अपनी कमाई का एक अंश देकर पढ़ने की सारी साधन-सामग्री जुटाता है। अध्यापक उसके ज्ञान अनुभव को बढ़ाता है। दोनों के सहयोग से ही बच्चे का निर्वाह और शिक्षण चलता है। भौतिक निर्वाह की आवश्यकता तो पिता भी पूरा कर देता है, पर आत्मिक-क्षेत्र में प्रगति के लिए जिन वस्तुओं की आवश्यकता है, उसमें मनःस्थिति के अनुरूप मार्गदर्शन करने तथा सौंपे हुए कार्य को कर सकने के लिए आवश्यक सामर्थ्य गुरु अपने संचित तप-भंडार में से निकालकर हस्तांतरित करता है। इसके बिना अनाथ बालक की तरह शिष्य एकाकी पुरुषार्थ के बलबूते उतना नहीं कर सकता, जितना कि करना चाहिए। इसी कारण— ‘‘गुरु बिनु होहि न ज्ञान’’ की उक्ति अध्यात्म-क्षेत्र में विशेष रूप से प्रयुक्त होती है।
दूसरे लोग गुरु तलाश करते फिरते भी हैं, पर सुयोग्य तक जा पहुँचने पर निराश होते हैं। स्वाभाविक है, इतना घोर परिश्रम और कष्ट सह कर की गई कमाई ऐसे ही कुपात्र और विलास-संग्रह, अहंकार और अपव्यय के लिए हस्तांतरित नहीं की जा सकती। देने वाले में इतनी बुद्धि भी होती है कि लेने वाले की प्रामाणिकता किस स्तर की है; जो दिया जा रहा है, उसका उपयोग किस कार्य में होगा, यह भी जाँचें। जो लोग इस कसौटी पर खोटे उतरते हैं, उनकी दाल नहीं गलती। इन्हें वे ही लोग मूँड़ते हैं, जिनके पास देने को कुछ नहीं है। मात्र शिकार फँसाकर शिष्य से जिस-तिस बहाने दान-दक्षिणा मूँड़ते रहते हैं। प्रसन्नता की बात है कि इस विडंबना भरे प्रचलित कुचक्र में हमें नहीं फँसना पड़ा। हिमालय की एक सत्ता अनायास ही घर बैठे मार्गदर्शन के लिए आ गई और हमारा जीवन धन्य हो गया।
हमें इतने समर्थ गुरु अनायास ही कैसे मिले? इस प्रश्न का एक ही समाधान निकलता है कि उसके लिए लम्बे समय से जन्म-जन्मांतरों में पात्रता अर्जन की धैर्यपूर्वक तैयारी की गई। उतावली नहीं बरती गई। बातों में फँसाकर किसी गुरु की जेब काट लेने जैसी उस्तादी नहीं बरती गई, वरन् यह प्रतीक्षा की गई कि अपने नाले को किसी पवित्र सरिता में मिलाकर अपनी हस्ती का उसी में समापन किया जाए। किसी भौतिक प्रयोजन के लिए इस सुयोग की ताक-झाँक नहीं की गई, वरन् बार-बार यही सोचा जाता रहा कि जीवन-संपदा की श्रद्धांजलि किसी देवता के चरणों में समर्पित करके धन्य बनाया जाए।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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