कैसा हो ज्ञान और बल के समन्वय का नवीनतम रूप | Kaisa Ho Gyan Aur Bal Ka Smaanvay Ka Navintam Roop

द्रोणाचार्य की लिवास और पोशाक को देखकर के लोगों ने एक सवाल किया, "क्यों महाराज जी, यह क्या मामला है, क्या बात है? आप यह वेदों की पुस्तकें बगल में दबाए फिरते हैं, धर्म का व्याख्यान करते हैं, धर्म का उपदेश करते हैं, और यह कंधे के ऊपर धनुष-बाण टांगे फिरते हैं, यह क्या मामला है, यह क्या मामला है?"
द्रोणाचार्य ने उसकी बात का जवाब दिया और यह कहा — "अग्रतारू चतुरो वेदाः, पश्चातारू चतुरं धनुर्धरः। इदं ब्राम्हमं, इदं क्षात्रं, शास्त्ररूपं जपिसरादपि।"
दोनों उद्देश्यों से हम इंसान भगवान और शैतान, दोनों का मुकाबला करते हैं। मनुष्य के भीतर भगवान भी रहता है और शैतान भी रहता है। भगवान का हम ज्ञान से पूजन करेंगे, लोगों को उपदेश देंगे, ब्रह्मविद्या सिखाएंगे, रामायण की बात सिखाएंगे, अनुष्ठान की बात सिखाएंगे, जप की बात सिखाएंगे, सोहम साधना की बात सिखाएंगे, खेचरी मुद्रा की बात सिखाएंगे।
जहां तक भगवान का ताल्लुक है, वहां तक — क्यों साहब? भगवान ही अकेला नहीं है बेटे, एक और बैठा हुआ है मक्कार। कौन बैठा हुआ है? वह शैतान बैठा हुआ है हर आदमी के भीतर। तो क्यों महाराज जी, वह ब्रह्मविद्या से मान सकता है? नहीं बेटे, वह नहीं मानेगा। वह नहीं मानेगा, वह किसी की नहीं मानेगा।
अगर आपको काटने के लिए भेड़िया आए आपके पास और आप प्रार्थना करें, और प्रार्थना करें — "क्षमा कर दे", क्षमा करेगा? नहीं करेगा। अच्छा, वह भेड़िए की बात जाने दीजिए। आपके सिर में जुएं हो जाएं, और आपके खाट में खटमल हो जाएं, रोज प्रार्थना करना — "देव शांति, अंतरिक्ष शांति, खटमल शांति, बिछू शांति, मच्छर शांति" — शांत हो जाएं तो आप मान लेना। आप प्रयोग कर लीजिए।
आपको रीछ के और बाघ के ऊपर प्रयोग करने के लिए नहीं कह सकता। क्यों साहब? रीछ का प्रयोग कीजिए — वह तो बड़ा महंगा पड़ेगा बेटे। और मैं शेर के लिए कहूं — तो शेर से मुकाबला करना बेटे, वह भी बड़ा महंगा पड़ेगा।
तू प्रयोग यहां से कर — अगर तेरा खटमल मान जाए तो जान लेना बात ठीक है। सारे का सारा ब्रह्मविद्या का गुण मिल जाएगा।
एक और चीज है। इसके लिए उन्होंने कहा — "आगे-आगे हम वेद को लेकर चलते हैं, पीछे-पीछे धनुष-बाण को लेकर चलते हैं।"
यह प्राचीन हमारी परंपरा है, नवीन परंपरा नहीं है। नवीन परंपरा नहीं है बेटे, प्राचीन परंपरा है। और हम नवीन उसका रूप देते हैं। नवीन हम रूप दे रहे हैं कि ज्ञान के हिसाब से बल का समन्वय, ज्ञान के हिसाब से बल का समन्वय आवश्यक है।
शक्ति — शक्ति के बिना भक्ति की रक्षा नहीं हो सकती। शक्ति और भक्ति, दोनों का समन्वय होना चाहिए।
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