हमारी वसीयत और विरासत (भाग 17)— मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवनक्रम संबंधी निर्देश
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मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवनक्रम संबंधी निर्देश:—
“सहज शीत, ताप के मौसम में, जीवनोपयोगी सभी वस्तुएँ मिल जाती हैं; शरीर पर भी ऋतुओं का असह्य दबाव नहीं पड़ता, किंतु हिमालय-क्षेत्र के असुविधाओं वाले प्रदेश में स्वल्प साधनों के सहारे कैसे रहा जा सकता है, यह भी एक कला है; साधना है। जिस प्रकार नट शरीर को साधकर अनेक प्रकार के कौतूहलों का अभ्यास कर लेते हैं, लगभग उसी प्रकार का वह अभ्यास है, जिसमें नितांत एकाकी रहना पड़ता है; पत्तियों और कंदों के सहारे निर्वाह करना पड़ता है और हिंस्र जीव-जंतुओं के बीच रहते हुए अपने प्राण बचाना पड़ता है।”
“जब तक स्थूलशरीर है, तभी तक यह झंझट है। सूक्ष्मशरीर में चले जाने पर वे आवश्यकताएँ समाप्त हो जाती हैं, जो स्थूलशरीर के साथ जुड़ी हुई हैं। सरदी-गरमी से बचाव, क्षुधा-पिपासा का निवारण, निद्रा और थकान का दबाव; यह सब झंझट उस स्थिति में नहीं रहते हैं। पैरों से चलकर मनुष्य थोड़ी दूर जा पाता है, किंतु सूक्ष्मशरीर के लिए एक दिन में सैकड़ों योजनों की यात्रा संभव है। एक साथ, एक मुख से सहस्रों व्यक्तियों के अंतःकरणों तक अपना संदेश पहुँचाया जा सकता है। दूसरों की इतनी सहायता सूक्ष्मशरीरधारी कर सकते हैं, जो स्थूलशरीर रहते संभव नहीं। इसलिए सिद्धपुरुष सूक्ष्मशरीर द्वारा काम करते हैं। उनकी साधनाएँ भी स्थूलशरीर वालों की अपेक्षा भिन्न हैं।”
“स्थूलशरीरधारियों की एक छोटी सीमा है। उनकी बहुत सारी शक्ति तो शरीर की आवश्यकताएँ जुटाने में— दुर्बलता, रुग्णता, जीर्णता आदि के व्यवधानों से निपटने में खरच हो जाती है, किंतु लाभ यह है कि प्रत्यक्ष दृश्यमान कार्य स्थूलशरीर से ही हो पाते हैं। इस स्तर के व्यक्तियों के साथ घुलना-मिलना— आदान-प्रदान इसी के सहारे संभव है। इसलिए जनसाधारण के साथ संपर्क साधे रहने के लिए प्रत्यक्ष शरीर से ही काम लेना पड़ता है। फिर वह जरा-जीर्ण हो जाने पर अशक्त हो जाता है और त्यागना पड़ता है। ऐसी स्थिति में उसके द्वारा आरंभ किए गए काम अधूरे रह जाते हैं। इसलिए जिन्हें लंबे समय तक ठहरना है और महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के अंतराल में प्रेरणाएँ एवं क्षमताएँ देकर बड़े काम कराते रहना है, उन्हें सूक्ष्मशरीर में ही प्रवेश करना पड़ता है।”
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