हमारी वसीयत और विरासत (भाग 20)— दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह
.gif)
दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह:—
इस प्रथम साक्षात्कार के समय मार्गदर्शक सत्ता द्वारा तीन कार्यक्रम दिए गए थे। सभी नियमोपनियमों के साथ 24 वर्ष का 24 गायत्री महापुरश्चरण संपन्न किया जाना था। अखंड घृतदीपक को भी साथ-साथ निभाना था। अपनी पात्रता में क्रमशः कमी पूरी करने के साथ लोक-मंगल की भूमिका निभाने हेतु साहित्य-सृजन करना दूसरा महत्त्वपूर्ण दायित्व था। इसके लिए गहन स्वाध्याय भी करना था, जो एकाग्रता संपादन की साधना थी; साथ ही जनसंपर्क का भी कार्य करना था, ताकि भावी कार्यक्षेत्र को दृष्टिगत रखते हुए हमारी संगठन क्षमता विकसित हो। तीसरा महत्त्वपूर्ण दायित्व था— स्वतंत्रता-संग्राम में एक स्वयंसेवी सैनिक की भूमिका निभाना। देखा जाए, तो सभी दायित्व शैली एवं स्वरूप की दृष्टि से परस्पर विरोधी थे, किंतु साधना एवं स्वाध्याय की प्रगति में इनमें से कोई बाधक नहीं बने; जबकि इस बीच हमें दो बार हिमालय भी जाना पड़ा। अपितु सभी साथ-साथ सहज ही ऐसे संपन्न होते चले गए कि हमें स्वयं इनके क्रियान्वयन पर अब आश्चर्य होता है। इसका श्रेय उस दैवी मार्गदर्शक सत्ता को जाता है, जिसने हमारे जीवन की बागडोर प्रारंभ से ही अपने हाथों में ले ली थी एवं सतत संरक्षण का आश्वासन दिया।
ऋषि दृष्टिकोण की दीक्षा जिस दिन मिली, उसी दिन यह भी कह दिया गया कि यह परिवार संबद्ध तो है, पर विजातीय द्रव्य की तरह है— बचने योग्य। इसके तर्क, प्रमाणों की ओर से कान बंद किए रहना ही उचित रहेगा। इसलिए सुननी तो सबकी चाहिए, पर करनी मन की। उनके परामर्श को— आग्रह को वजन या महत्त्व दिया गया और उन्हें स्वीकारने का मन बनाया गया, तो फिर लक्ष्य तक पहुँचना कठिन है। श्रेय और प्रेय की दोनों दिशाएँ एकदूसरे के प्रतिकूल जाती हैं। दोनों में से एक ही अपनाई जा सकती है। संसार प्रसन्न होगा, तो आत्मा रूठेगी। आत्मा को संतुष्ट किया जाएगा, तो संसार की— निकटस्थों की नाराजगी सहन करनी पड़ेगी। आमतौर से यही होता रहेगा। कदाचित् ही कभी कहीं ऐसे सौभाग्य बने हैं, जब संबंधियों ने आदर्शवादिता अपनाने का अनुमोदन दिया हो। आत्मा को तो अनेकों बार संसार के सामने झुकना पड़ा है। ऊँचे निश्चय बदलने पड़े हैं और पुराने ढर्रे पर आना पड़ा है।
यह कठिनाई अपने सामने पहले दिन से ही आई। वसंत पर्व को जिस दिन नया जन्म मिला, उसी दिन नया कार्यक्रम भी; पुरश्चरणों की शृंखला के साथ-साथ आहार-विहार के तपस्वी स्तर के अनुबंध भी। तहलका मचा; जिसने सुना, अपने-अपने ढंग से समझाने लगा। मीठे और कड़ुवे शब्दों की वर्षा होने लगी। मंतव्य एक ही था कि जिस तरह सामान्यजन जीवनयापन करते हैं; कमाते-खाते हैं, वही राह उचित है। ऐसे कदम न उठाए जाएँ, जिनसे इन दोनों में व्यवधान पड़ता हो। यद्यपि पैतृक संपदा इतनी थी कि उसके सहारे तीन पीढ़ी तक घर बैठकर गुजारा हो सकता था, पर उस तर्क को कोई सुनने तक के लिए तैयार न हुआ। नया कमाओ, नया खाओ; जो पुराना है, उसे भविष्य के लिए— कुटुंबियों के लिए जमा रखो। सब लोग अपने-अपने शब्दों में एक ही बात कहते थे।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
Recent Post
.jpg)
हमारी वसीयत और विरासत (भाग 94): तीसरी हिमालययात्रा— ऋषिपरंपरा का बीजारोपण
&l...
.jpg)
हमारी वसीयत और विरासत (भाग 87): तीसरी हिमालययात्रा— ऋषिपरंपरा का बीजारोपण
&n...
.jpg)
.jpg)
.gif)



.jpeg)
