हमारी वसीयत और विरासत (भाग 22)— दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह
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दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह:—
इस संदर्भ में प्रह्लाद का फिल्म-चित्र आँखों के आगे तैरने लगा। वह समाप्त न होने पाया था कि ध्रुव की कहानी मस्तिष्क में तैरने लगी। इसका अंत न होने पाया कि पार्वती का निश्चय उछलकर आगे आ गया। इस आरंभ के उपरांत महामानवों की— वीर बलिदानियों की— संत-सुधारक और शहीदों की अगणित कथागाथाएँ सामने तैरने लगीं। उनमें से किसी के भी घर-परिवारवालों ने— मित्र-संबंधियों ने समर्थन नहीं किया था। वे अपने एकाकी आत्मबल के सहारे कर्त्तव्य की पुकार पर आरूढ़ हुए और दृढ़ रहे। फिर यह सोचना व्यर्थ है कि इस समय अपने इर्द-गिर्द के लोग क्या करते और क्या कहते हैं? उनकी बात सुनने से आदर्श नहीं निभेंगे। आदर्श निभाने हैं, तो अपने मन की ललक-लिप्साओं से जूझना पड़ेगा। इतना ही नहीं, इर्द-गिर्द जुड़े हुए उन लोगों की भी उपेक्षा करनी पड़ेगी, जो मात्र पेट-प्रजनन के कुचक्र में ही घूमते और घुमाते रहे हैं।
निर्णय आत्मा के पक्ष में गया। मैं अनेकों विरोध और प्रतिबंधों को तोड़ता— लुक-छिपकर निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचा और सत्याग्रही की भूमिका निभाता हुआ जेल गया। जो भय का काल्पनिक आतंक बनाया गया था, उसमें से एक भी चरितार्थ नहीं हुआ।
छुटपन की एक घटना इन दोनों प्रयोजनों में और भी साहस देती रही। गाँव में एक बुढ़िया मेहतरानी घावों से पीड़ित थी; दस्त भी हो रहे थे; घावों में कीड़े पड़ गए थे; बेतरह चिल्लाती थी, पर कोई छूत के कारण उसके घर में नहीं घुसता था। मैंने एक चिकित्सक से उपचार पूछा। दवाओं का एकाकी प्रबंध किया। उसके घर नियमित रूप से जाने लगा। चिकित्सा के लिए भी— परिचर्या के लिए भी— भोजन-व्यवस्था के लिए भी। यह सारे काम मैंने अपने जिम्मे ले लिए। मेहतरानी के घर में घुसना; उसके मल-मूत्र से सने कपड़े धोना आज से 65 वर्ष पूर्व गुनाह था। जाति बहिष्कार कर दिया गया। घरवालों तक ने प्रवेश न करने दिया। चबूतरे पर पड़ा रहता और जो कुछ घरवाले दे जाते, उसी को खाकर गुजारा करता। इतने पर भी मेहतरानी की सेवा छोड़ी नहीं। यह पंद्रह दिन चली और वह अच्छी हो गई। वह जब तक जीवित रही, मुझे भगवान कहती रही। उन दिनों 13 वर्ष की आयु में भी अकेला था। सारा घर और सारा गाँव एक ओर। लड़ता रहा, हारा नहीं। अब तो उम्र कई वर्ष और अधिक बड़ी हो गई थी। अब क्यों हारता?
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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