हमारी वसीयत और विरासत (भाग 25)— दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह

दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह:—
गुरुदेव का आदेशपालन करने के लिए हमने कांग्रेस के सत्याग्रह आंदोलन में भाग तो लिया, पर प्रारंभ में असमंजस ही बना रहा कि जब चौबीस वर्ष का एक संकल्प दिया गया था, तो 5 और 19 वर्ष के दो टुकड़ों में क्यों विभाजित किया। फिर आंदोलन में तो हजारों स्वयंसेवक संलग्न थे, तो एक की कमी-बेशी से उसमें क्या बनता-बिगड़ता था।
क्रमशः जारी..
हमारे असमंजस को साक्षात्कार के समय ही गुरुदेव ने ताड़ लिया था। जब बारी आई, तो उनकी परावाणी से मार्गदर्शन मिला कि, “युगधर्म की अपनी महत्ता है। उसे समय की पुकार समझकर अन्य आवश्यक कार्यों को भी छोड़कर उसी प्रकार दौड़ पड़ना चाहिए, जैसे अग्निकांड होने पर पानी लेकर दौड़ना पड़ता है और अन्य सभी आवश्यक काम छोड़ने पड़ते हैं।’’ आगे संदेश मिला कि, ‘‘अगले दिनों तुम्हें जनसंपर्क के अनेकों काम करने हैं। उनके लिए विविध प्रकार के व्यक्तियों से संपर्क साधने और निपटने का दूसरा कोई अवसर नहीं आने वाला है। यह उस उद्देश्य की पूर्ति का एक चरण है, जिसमें भविष्य में बहुत-सा श्रम व समय लगना है। आरंभिक दिनों में, जो पाठ पढ़े थे; पूर्वजन्मों में जिनका अभ्यास किया था, उनकी रिहर्सल का अवसर भी मिल जाएगा। यह सभी कार्य निजी लाभ की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। समय की माँग तो इसी से पूरी होती है।’’
“व्यावहारिक जीवन में तुम्हें चार पाठ पढ़ाए जाने हैं। 1— समझदारी, 2— ईमानदारी, 3— जिम्मेदारी, 4— बहादुरी। इनके सहारे ही व्यक्तित्व में खरापन आता है और प्रतिभा-पराक्रम विकसित होता है। हथियार भोंथरे तो नहीं पड़ गए; कहीं पुराने पाठ विस्मृत तो नहीं हो गए, इसकी जाँच-पड़ताल नए सिरे से हो जाएगी।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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गुरुदेव का प्रथम बुलावा-पग-पग पर परीक्षा:

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