आत्म विकास की सामान्य प्रक्रिया

कई व्यक्ति कम से कम समय में अधिक से अधिक बढ़-चढ़कर उपलब्धियाँ प्राप्त करने के लिए आतुर होते और आकुल व्याकुल बनते देखे गए हैं। ऐसे लोगों के लिए बच्चों वाले बालू के महल और टहनियाँ गाड़कर बगीचा खड़ा करने जैसा कौतुक रचना पड़ता है या फिर बाजीगरों जैसा छद्म भरा कौतूहल दिखाकर अबोधजनों को चमत्कृत करना पड़ता है। आँखों में चकाचौंध उत्पन्न करने का रूप धारा करने में नाटक कर्त्ता ही प्रवीण होते हैं। उन्हीं को मुखौटे लगाना, मेकअप करना और साजसज्जा से अलंकृत होना आता है। शालीनता के रहते बचकानी योजना बन नहीं सकती। कार्यान्वित होने का तो कभी अवसर ही नहीं आता। स्थाई निर्माणों में देर लगती हैं। स्नातक, इंजीनियर, डॉक्टर, पहलवान बनने में भी समय लगता है। जमीन से गढ़ा खजाना मिलने पर धनवान बनने वाले सुने तो जाते हैं, पर देखे नहीं गए। देवता के वरदान अथवा जादू मंत्र से किसी ने ऋद्धि-सिद्धि अर्जित नहीं की है। अंतराल को जगाने, दृष्टिकोण बदलने और गतिविधियों को सुनियोजित आदर्शवादी बनाने-संकल्पों पर आरूढ़ रहने से ही इस स्तर का विकास हो सकता है, जिसमें बहुविधि सफलताओं के फल-फूल लगें। विभूतियों के चमत्कारी उभार उभरें।
अदूरदर्शी तत्काल सम्पन्नता व सफलता से भरे पूरे अवसर उपलब्ध करना चाहते हैं। प्रकृति क्रम से यह संभव नहीं। उसमें कर्म और फल के बीच अंतर अवधि रहने का विधान है। नौ महीने माँ के पेट में रहने के उपरांत ही भ्रूण इस स्थिति तक पहुँचता है कि प्रसवकाल की कठिनाई सह सके और नये वातावरण में रह सकने की जीवट से सज्जित हो सके। जो इन तथ्यों को अनदेखा करते हैं और अपनी हठवादिता को ही अपनाये रहते हैं। उन्हें इसकी पूर्ति के लिए छद्मों का सहारा लेना पड़ता है। किसी को प्रलोभन देकर या दबाव से विवश करके ही वाहवाही का पुलिंदा हथियायो जा सकता है। काँच के बने नगीने ही सस्ते बिकते हैं। असली हीरा खरीदना हो तो उसके लिए समूचित मूल्य जुटाया जाना चाहिए। फसल से घर भरने के लिए किसान जैसी तत्परता अपनाई जानी चाहिए और बोने से लेकर काटने तक की लम्बी अवधि में धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करनी चाहिए।
आत्मिक प्रगति के लिए दुष्प्रवृत्तियों का निराकरण, सुसंस्कारों का अभिवर्धन हेतु दुहरा पुरुषार्थ अपनाया जाना चाहिए। इसका प्रथम चरण है- संयम, साधना और दूसरा- उदार संलगनता। इन दोनों के लिए आवश्यक श्रद्धा विश्वास अंतराल में पक सके, इसके लिए योगाभ्यास स्तर की तपश्चर्याओं का आश्रय लेना चाहिए। यों इस प्रकार के क्रिया कृत्यों विश्वास पर न रखने वाले व्यक्ति अपनी समूची क्रियाशीलता और सद्भावना उच्च स्तरीय क्रिया- कलापों में नियोजित करके समग्र जीवन को साधनामय बना सकते हैं।
आत्मिक विकास के लिए शरीर को स्वस्थ रखना परम आवश्यक है और शरीर को समुन्नत, समग्र, सुविकसित बनाने का सामान्य तरीका अत्यंत सरल और सामान्य है। शरीर स्वस्थता के लिए अकेला संयम भी अपना चमत्कार दिखाता है फिर अगर पौष्टिक भोजन और नियमित व्यायाम का सुयोग भी मिल जाय, तो समझना चाहिए सोना और सुगन्ध मिलने जैसी बात बन गई। वस्तुतः इन्द्रिय असंयम ही शरीर को रुग्णता और दुर्बलता के गर्त में गिराता है। मानसिक स्वास्थ्य को सुरक्षित रखने के लिए संतुलन अपने आपमें पूर्ण है। राग-द्वेष से आवेश, अवसाद से-लिप्सा, लालसा से-अहमन्यता और महत्त्वाकांक्षा से यदि अपने को बचाये रखा जा सके, तो कल्पना-शक्ति, विचार-शक्ति, निर्णय शक्ति न केवल सुरक्षित रहती है, वरन् बढ़ती भी रहती है।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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