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Magazine - Year 1971 - Version 2

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उपासना में संयम के चमत्कार

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योग दर्शन व “ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका” आदि में संयम को उपासना का एक अनिवार्य अंग बताया गया है- “तत्जयात प्रज्ञा लोकाः” अर्थात्-संयम विजय से प्रज्ञा बुद्धि का विकास होता है। प्रज्ञा का अर्थ सार्वभौम ज्ञान से है इन्द्रियों की सामर्थ्य और समय की सीमा से परे अर्थात् जो कुछ देखा सुना है और जो कुछ देखा सुना भी नहीं उस समस्त ज्ञान को प्राप्त करना ही प्रज्ञ होना है। ब्रह्म की प्राप्ति भी संयम से विजित प्रज्ञा बुद्धि द्वारा ही होती है। इसलिए उपासना के साथ संयम को आवश्यक ही नहीं अनिवार्य माना गया है।

संयम का एक अर्थ होता है वीर्य की रक्षा या शरीर और मन की शक्तियों को अपव्यय से बचाना। कामवासना के नियन्त्रण का नाम भी संयम है और मौन रहना भी संयम है। किसी भी शक्ति-क्षय करने वाली इन्द्रिय के व्यापार को रोकना संयम कहलाता है उसके भौतिक साँसारिक लाभ भी स्पष्ट है। पहलवान जानते हैं कि ताकतवर होने के लिये पौष्टिक आहार व्यायाम से भी बढ़कर आवश्यक संयम है इसलिये वे प्रारम्भ में ही संयम का प्रतीक लँगोट और जांघिया बाँधने का अभ्यास करते हैं। विचारक जानते हैं कि मन को मथकर नई-नई कल्पनायें करना तभी सम्भव है जब वाणी द्वारा उसका क्षय रुके इसलिये वे प्रायः मौन रहते हैं। संयम की शक्ति से न जाने कितनी साँसारिक विभूतियां प्राप्त की जा सकती हैं क्योंकि सफलता की जननी शक्ति है और संयम शक्ति का “स्टोर”।

योग-विद्या का संयम इस संयम से विशद और व्यापक प्रभाव वाला है ऋद्धियाँ सिद्धियाँ और परमात्मा का हस्तामलक साक्षात्कार भी संयम से ही प्राप्त होते हैं उस संयम की परिभाषा करते हुये महर्षि पातंजलि ने योग-दर्शन अध्याय 3 सूत्र 4 में लिखा है- “त्रयमेकत्र संयमः” अर्थात् धारणा, ध्यान और समाधि इन तीनों के एकत्र होने का नाम ही “संयम” है। धारणा करें कि हमारी चेतना हमारा प्राण सूर्य चेतना और सूर्य प्राण का ही एक अंश है-अब सूर्य का ध्यान करें, मन को सूर्य में इस तरह घुला दें कि समाधि लग जाये अर्थात्-दोनों एक रस हो जाये तो हम सूर्य के साक्षात्कार वाले सूर्य की क्षमता, गरिमा वाले हो सकते है- मुख मंडल पर वही तेजस, शरीर में वैसी ही सक्रियता और शक्ति, बुद्धि में वैसी ही पारदर्शी निर्मलता और समस्त ब्रह्माण्ड के भेदों को जान लेने वाली सिद्धि यह सब सूर्य संयम के परिणाम होते हैं। ब्रह्म में संयम करने से उसी प्रकार अन्तःकरण ब्राह्मीभूत बन जाता है। ऐसा योग शास्त्रों में बताया है।

इन आन्तरिक आत्मिक सत्यों के परीक्षण का अभी तक कोई संगणक या यन्त्र विकसित नहीं हुआ पर ऐसे अनेक प्रमाण अवश्य है जिनसे संयम की महान् शक्ति का पता चलता है।

“कण्ठ कूपे क्षुत्पिपासा निवृत्ति” (पाँतजलि योग दर्शन 3.28)

अर्थात्-कण्ठ कूप में स्थित इड़ा नाड़ी पर संयम करने से भूख प्यास नहीं लगती। ऐसे अनेक ऋषि महात्माओं का पता है जो हिमालय के बर्फीले प्राँतों में रहते हैं जहां पत्तियां भी खाने को नहीं मिलती। बंगाल की गिरिबाला का वर्णन अखण्ड-ज्योति में छप चुका है जिसने इसी साधना के अभ्यास से भूख से निवृत्ति पाली थी, उसे जीवन भर खाने की आवश्यकता नहीं पड़ी थी। विज्ञान भी यह मानता है कि अन्न का पोषण तत्व आकाश से आता है कोई सूक्ष्म विधि खोजली जाये तो उस तत्व को हवा से ही खींचा और शरीर को स्वस्थ रखा जा सकता है।

“बलेषु हस्ति बलादीनि”

अर्थात्-शरीर के बल में संयम करने से हाथी के समान बल प्राप्त होता है। वस्तुतः अनन्त आकाश अनंत विद्युत् शक्ति का प्रवाह है शारीरिक शक्ति में मन का संयम करने से वह अपार शक्ति संचरित होकर शरीर को बलवान बना दे तो इसमें आश्चर्य क्या। महायोगी राममूर्ति ने इसी साधना का अभ्यास किया था वे ताकतवर कार को एक हाथ से रोक लेते थे, हाथी छाती पर चढ़ा लेते थे। लोहे की सांकलें तोड़ डालते थे वह सब इसी शक्ति के चमत्कार थे।

योग-विज्ञान की दृष्टि में छोटे से छोटा चमत्कार।

यहां एक और उदाहरण दिया जा रहा है जो इन्द्रियों की दिव्य शक्तियों में संयम के आश्चर्यजनक चमत्कार का बोध कराता है। बंगाल के वर्दवान जिले में एक महात्मा रहते थे। उन्होँने घ्राण-शक्ति पर संयम किया था और चाहे जब, चाहे जिस समय चाहे जिस मौसम में चाहे जिस प्रकार की सुगन्धि पैदा कर सकते थे। इसलिए उनका नाम ही गंध-बाबा पड़ गया था। वैसे उनका नाम स्वामी विशुद्धानन्द था उनके आस-पास सदैव ही तरह-तरह की सुगन्ध बिखरी रहा करती थी।

बात उन दिनों की है जब स्वामी योगानन्द बालक थे, उनकी योग-जिज्ञासायें उन दिनों बहुत प्रबल रहा करती थी, इन जिज्ञासाओं उन दिनों बहुत प्रबल रहा करती थी, इन जिज्ञासाओं की शुरुआत चमत्कार देखने से होती है सो एक दिन वे भी गन्ध-बाबा के पास उनका चमत्कार देखने के लिये जा पहुँचे। गन्ध-बाबा ने उनके पास आते ही पूछा-तू भी सुगन्ध के लिए आया है- बोल किस फूल की सुगन्ध चाहिये। युवक योगानन्द ने अपना हाथ आगे बढ़ाते हुये कहा-”गुलाब के फूल कि”- गन्ध बाबा ने युवक का हाथ पकड़ कर कहा - ले सूँघ और सचमुच हाथ से गुलाब के फूल की ऐसी बढ़िया सुगन्ध आने लगी मानो हाल का बनाया गुलाब सेन्ट हाथ से चुपड़ दिया गया हो। युवक ने एक गन्ध हीन फूल तोड़ा और गन्ध-बाबा ने हाथ में देते हुए कहा-आप इसमें चमेली के फूल की गन्ध भर सकते है--साधु ने मुस्कुराते हुये फूल की टहनी अपने हाथ में पकड़ी और फिर युवक को देते हुये कहा-ये लो सूँघो-युवकानन्द ने उसे सूँघा तो उसके आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं था कि उस फूल में सचमुच ही चमेली के फूल की महक आने लगी थी।

“फूल और फलों की सुगन्ध ला सकते हैं तो फूल और फल भी ला सकते होंगे”--युवक ने योगी से प्रश्न किया। योगी ने कहा-हाहा यह उससे सरल है। कौन-सा फल चाहिये आपको -सन्तरा युवक ने कहा-उन दिनों सन्तरों का मौसम नहीं था। बाजार में दस रुपये में भी एक सन्तरा नहीं मिलता था। स्वामी विश्वद्वानन्द ने पास रखी केले के पत्तों की पुड़िया उठायी और युवक के हाथ में देते हुये कहा- ये लो सन्तरे। युवक ने हंसते हुये कहा--पुड़िया नहीं सन्तरा माँगा है। योगी ने हंसते हुये कहा-पत्ते खोले--युवक आश्चर्यचकित था कि केले के पत्तों के बीच ताजे संतरे रखे थे, जैसे वे अभी-अभी तोड़ कर लाये गये हो।

अपनी सिद्धि की व्याख्या करते हुये स्वामी विशुद्धानन्द ने बताया कि इस सिद्धि के लिये मैंने बारह वर्ष तक संयम किया है। इस साधना का परिचय मुझे एक तिब्बती योगी ने दिया था जो स्वयं भारतीय योग साधनाओं के महा पण्डित और योगी थे। ऐसे चमत्कार योग शास्त्र में आत्म-कल्याण के लिये बाधक माने जाते हैं पर मैं अपने गुरु के आदर्श से यह प्रदर्शन इसलिये करता हूं कि लोग यह माने कि संसार में जो स्थूल है, दिखाई देता है वह सत्य नहीं। डॉक्टर सालोमन का कथन है कि प्रकृति ने हर वस्तु के लिए मौसम प्रदान किया है-- उस मौसम में ही वृक्ष उस तरह के परमाणु आकर्षित कर पाते हैं जो फल विशेष में, फूल विशेष में पाये जाते हैं, यह प्रकृति का नियम है योग शास्त्र की मान्यता भिन्न है वह डॉक्टर सालोमन की बात मानने को तैयार नहीं। भारतीय अध्यात्म विद्या संसार को परिपूर्ण मानती है। हर समय हर वस्तु विद्यमान है, सम्भव है एक समय एक स्थान पर एक तरह के परमाणु अधिकों दूसरे कम पर यह भी निश्चित है कि उसी समय दूसरी तरह के परमाणु कहीं दूसरी जगह अधिकार मात्रा में उपस्थित होंगे उन्हें आत्म-शक्ति द्वारा आकर्षित कर पदार्थ का रूप प्रदान करने कि शक्ति आत्मा में संयम में है।

स्वामी योगानन्द ने भी इसी घटना का उल्लेख अपनी आत्म-कथा में किया है। स्वामी विवेकानन्द ने भी ऐसी घटनाओं का वर्णन किया है। पर आत्म-विज्ञान की दृष्टि से संयम की अपेक्षा--”हृदय चित्तसंवित्” हृदय में संयम रखने से मन नियंत्रण में आता ज्ञान का प्रकाश उत्पन्न होता है--

मूर्द्ध ज्योतिषि सिद्ध दर्शनम्।

अर्थात्- मूर्धात् ज्योतिष (भू मध्य स्थित प्रकाश) में संयम करने से परमात्मा की प्राप्ति होती है।

“नाभि चक्रे काव्यूहहज्ञानम्।”

अर्थात्- नाभि चक्र में संयम करने से शरीर की व्यय रचना का इतना सूक्ष्म ज्ञान हो जाता है जैसा डॉक्टर सात जन्मों में भी नहीं कर सकते। ये सिद्धियां और सामर्थ्य ऊपर वर्णित सामर्थ्य से कहीं अधिक महत्व की होती है। आत्म कल्याण, लोक-मंगल और ईश्वर प्राप्ति के इच्छुक योगी ऐसा ही संयम करते हैं वे चमत्कार प्रदर्शन में पड़कर आत्मा-विकास का दिव्य लाभ प्राप्त करते हैं। यह चमत्कार तो इसलिये है कि भारतीय लोग योग-दर्शन के इस महत्व पूर्ण पहलू को समझे और इसके लाभ प्राप्त करें।

देखने, सुनने में यह बातें भारतीय दर्शन की अति रंजनायें लगती है पर यदि विश्व इतिहास की झांकी की जाये तो ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण मिल जाते हैं, जिन्हें मानसिक और आत्मिक शक्ति के केंद्रीकरण का अनुपम चमत्कारी कहा जा सकता है। उदाहरण के लिये ईस्वी सन् 286 में चीन के वी वाह्न नामक व्यक्ति के घर शक्ति के संयम (केन्द्रीकरण) का चमत्कार।

जिवैरो (अफ्रीका) में आज भी सिर को छोटा कर लेने की प्रथा है। कई लोग तो अपना पुरा शरीर ही घटाकर चौथाई तक कर लेते हैं आकृति की बनावट और नाक-नक्शे में कोई अन्तर नहीं आता फोटो की तरह शरीर छोटा (रिडीयूज) कर लेने की विद्या भी शक्ति संयम का ही चमत्कार है। पनामा पुरातत्व संग्रहालय में एक जिवैरो की खोपड़ी सुरक्षित है जीव शास्त्रियों ने परीक्षण करके बताया है कि इस व्यक्ति के बाल 16 इंच लम्बे थे जबकि खोपड़ी छोटी सी गेन्द (बेसबोल) जितनी थी। यह तभी से उसके पीछे दर्शकों की भीड़ लगने लगी। उसकी सुन्दरता को लोग घूर-घूर कर देखा करते। सारे चीन में बच्चा अलौकिक व्यक्ति के रूप में प्रसिद्ध हो गया। कुछ दिन पीछे चीन के राष्ट्र अध्यक्ष ने उसे अपने पास रख लिया, किन्तु राजनैतिक उपद्रव होने के कारण उसे वहाँ से भागना पड़ा और वहीं पहले वाली मुसीबत फिर आ पड़ी। वह नान किंग आ गया जहाँ लोग उसे देखते ही रहते। बिना किसी सर्दी, खाँसी, जुकाम या मलेरिया, तपेदिक युवक केवल घूर-घूर के देखने के कारण 26 वर्ष की अल्पायु में ही मर गया। ऐसी थी सैंकड़ों लोगों कि मातृदृष्टि एक पुत्र ने जन्म लिया इस बच्चे का नाम बी ची रखा गया किन्तु कुछ पीछे बच्चे का नाम “ज्वेल” (जवाहर) पड़ गया क्योंकि यह असाधारण सुन्दर था। भारत वर्ष की स्त्रियाँ छोटी अवस्था के बच्चों को नजर लगने से बचाने के लिये उनके काजल का टीका या काला धागा बाँधती है सम्भव है उनके इस विश्वास के पीछे विवेक कम भाव-भीरुता अधिक हो तदापि हिप्नोटिज्म जैसे सम्मोहन अवस्था से इनकार भी नहीं किया जा सकता, दृष्टि द्वारा मानसिक शक्ति का प्रभाव हो सकना कोई असम्भव बात नहीं जैसा कि इस घटना से स्पष्ट है।

बी.ची. 5 वर्ष का था खोपड़ी बड़ी खोपड़ी से घटाई गई थी। यह उदाहरण आत्म-शक्ति के संग्रह और उसके मान उपयोग के स्थूल चमत्कार मात्र है इसी शक्ति का संयम (संचय) जब आत्म-कल्याण के लिये किया जाता है तो मनुष्य शरीर में ही भगवान बन जाता है।

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