
Magazine - Year 1971 - Version 2
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Language: HINDI
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आत्म एवं सनातनो
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आर्य पिता शुद्धोधन ने अनुमति देदी है तात ! राज-प्रासाद में घिरा हुआ जीवन नीरस-सा प्रतीत होता है, राज्य भोग अब तृप्ति नहीं दे पाते। प्रकृति--माता की गोद आकर्षित करती है उठो और स्यंदन (रथ) साजो, हम वन-विहार के लिए प्रस्थान करना चाहते हैं ? सिद्धार्थ ने सारथी को सम्बोधित करते हुये कहा।
“राजकुमार की आज्ञा शिरोधार्य !” कहकर सूतक ने उन्हें प्रणाम किया। अश्वशाला के श्रेष्ठतम चार चारु-काबुली हय निकाले उसने राश बांधी, अम्बरी डाली और चन्दन के बन रथ पर उन्हें जोत दिया। स्वर्ण-तार जड़ित राजसी परिधान धारण कर राजकुमार राज भवन से बाहर आये तो ऐसा लगा जैसे पूर्णमासी का चन्द्रमा छिटक कर नकल आया हो। सेवकों ने बढ़कर सहारा दिया। सिद्धार्थ रथारुढ़ हुये और अश्व-दल द्रुत गति से आगे बढ़ चला।
राजधानी के गगनचुम्बी भवन पार कर रथ जनपथ पर मंद मंथर गति से बढ़ रहा था तभी एक महिला पथ पार करने की शीघ्रता में लड़खड़ा कर गिर गई। बैरागी राजकुमार के आदेश से रथ रुक गया। कुछ लोग आगे आये महिला को उठाते हुए उन्होंने अभ्यर्थना की-कुमार देव ! रथ के कारण नहीं महिला अभाव जन्य स्थिति के कारण गिर गई है। महाराज ! निर्धनता संसार का सबसे बड़ा अभिशाप है,चार पुत्र पहले हो चुके हैं उस पर भी मातृत्व बोझ, सूखी रोटियां पर पलने वाली इस अभागिन को दो दिन से अन्न भी नहीं मिला। इसी से आशक्त हो गई यह इसमें आपका क्या दोष आप वन-विहार के लिये जाइये, देव ! जाइये।
सूत-पुत्र ने रथ आगे बढ़ाया। सिद्धार्थ ने प्रश्न किया तात ! अभाव किसे कहते हैं,यह महिला क्योँ अभाव ग्रस्त है ? हम अभाव ग्रस्त क्यों नहीं ? सूत पुत्र ने सिर ऊपर आकाश की ओर उठाया और फिर अश्वों की राश ढीली करते हुये कहा’-आर्य पुत्र ! जीवनयापन की सामान्य सुविधाओं का उपलब्ध न होना अभाव है संसार के लोग इस स्थिति में इसलिए है कि कुछ लोग सम्पत्ति का परिग्रह करने को बड़प्पन मानते हैं। आप राज पुत्र है महाराज ! सारी प्रजा के परिश्रम का लाभ आपको मिलता है तो आपको क्यों अभाव होगा-अभाव ग्रस्त तो प्रजा होती है जिसे मात्र शोषण की वस्तु मानकर सत्ताधारी लोग सताया करते हैं।
असमानता-संसार का एक दुःख है, रथ अब राजधानी पार कर चुका था तभी आगे से आता हुआ दिखाई दिया वृद्ध। जरा ने जीर्ण कर दिया था गात जिसका। कमर झुक गई थी, दांत टूट गये थे आंखें धंस गई थी एक लकड़ी के सहारे चल रहे उस वृद्ध को देखकर सिद्धार्थ ने दूसरा प्रश्न किया-सारथी ! इन आर्य पुरुष को क्या हुआ है जो झुककर चलते हैं ? दीर्घ निःश्वास छोड़ते हुये सारथी ने निवेदन किया तात ! यह शरीर की चौथी अवस्था जरावस्था-सबको ही एक दिन वृद्ध होना पड़ता है। संसार का कोई भी व्यक्ति इससे बच नहीं पाता। इन्द्रियों की सामर्थ्य समाप्त हो जाती है तब चाहे वह मूर्ख हो या पंडित, गृहस्थ हो या विरक्त, रंक हो या राजा सब की यही अवस्था होती है।
हम भी नहीं बच सकते तात ! हमें तो कोई अभाव नहीं विधाता को हम जरा को दूर रखने के लिए स्वर्ण दे सकते हैं, मणि-मुक्ता दे सकते है-सिद्धार्थ कह रहे थे और सारथी समझ रहा था तात, संसार के तुच्छ लोग लोभ और लालच में पड़कर नैतिकता का नियमोल्लंघन कर सकते हैं ईश्वरीय विधान तो पत्थर की चट्टान के समान अटल और अडिग होते हैं।
क्रम अभी चल ही रहा था कि सामने से कुछ ग्रामीण जन आते दिखाई दिये। वंश खपाटिकाओं पर श्वेत वस्त्रावेष्टित कोई वस्तु चार व्यक्ति अपने कन्धों पर रखे चले आ रहे थे उन्हें देखते ही सारथी ने रथ खड़ा कर दिया। रथ से उतर कर सारथी ने तीन पग आगे बढ़ा और भूमि प्रणाम कर प्रदक्षिणा की और फिर रथ में आ बैठा-हांकदी अश्व फिर चल पड़े।
राजकुमार जो अभी चित्रवत् देख रहे थे बोले-सारथी, यह कौन लोग है, इनके कन्धों पर क्या है। तुम इन्हें देखकर रथ से क्यों उतरे ? तुमने किस देवता को प्रणाम किया ?
एक दिन एक बच्चा था तात ! फिर वह बड़ा हुआ-सारथी समझा रहा था सिद्धार्थ को मानो वह कक्षा “अ” वर्ग के नव-प्रविष्ट विद्यार्थी हों-उसने विवाह किया, संतानोत्पत्ति की। ऐश्वर्य, भवन, पुत्र, कलम-न मालूम क्या-क्या अर्जित किया उसने पर मृत्यु के मुख में गया वहीं बालक है यह आर्य अब लोग इसे ले जायेंगे और अग्नि में भस्मसात् कर देंगे इसके पार्थिव शरीर को। मृत्यु का यह देवता बड़ा प्रबल है। इसे हर कोई प्रणाम करता है तात ! इससे आप भी बच नहीं सकते।
सांसारिक विषमतायें, जरा और मृत्यु-फिर संसार का सत्य क्या है सनातन क्या है ? सूत पुत्र ! राजकुमार का गला भर आया था, भावनायें - उमड़ने लगी थी। सारथी ने समझाया-तात ! ज्ञानी जन कहते हैं सत्य और सनातन तो यह आत्मा है जो उसे प्राप्त कर लेता है पार्थिक अभाव, अशक्ति, अज्ञान उसे दुःखी नहीं कर पाते ?
ठीक है सूत पुत्र ! अब तुम रथ रोक दो, पग-पग पर परिवर्तनीय साँसारिक सुख और वैभव व्यर्थ है आत्मा ही शाश्वत है तो फिर आत्मा को ही प्राप्त करना चाहिए और अब मैं उसे ही प्राप्त करने जाऊंगा-तुम यह रथ यह सन्देश लेकर लौट जाओ कि सिद्धार्थ अब कभी लौटकर नहीं आयेगा।
स्तक खड़ा-खड़ा निर्निमेष देख रहा था और तब तक खड़ा देखता रहा जब तक कि लक्ष्य-सिद्धि का साधक सिद्धार्थ पूरी तरह आंखों से ओझल नहीं हो गया।