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Magazine - Year 1971 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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जब कामना करें तभी वर्षा हो

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उष्ण कटिबन्धीय प्राँतों अर्थात् विषवत् रेखा (इक्वेडोर) के 5 अक्षाँश उत्तर 5 नीचे के भाग में जहाँ सूर्य अत्यधिक ताप के कारण अग्नि वर्षा सी किया करता है वहाँ पर भयंकर चक्रवात (ट्रापिकल साइक्लोन्स) उठा करते हैं इनकी प्रतिक्रिया अटलाँटिक महासागर के निकटवर्ती क्षेत्रों में होती है और उससे वहाँ भी “हरिकेन” तथा “टेरनेडो” नाम के चक्रवात जैसे उठ खड़े होते हैं। प्रशान्त महासागर में उठने वाली आँधियाँ जिन्हें “टाइफून” कहा जाता है वह भी उष्ण कटिबन्धीय चक्रवातों का ही रूप है कुछ दिन हुये इन तुफानों ने अमरीका, जापान, पाकिस्तान, श्रीलंका में आफत बरपा करती थी। पूर्वी बंगाल में हजारों लाखों लोग इस विनाश लीला में काम आये। धनुष्कोटि और रामेश्वरम् अभी कुछ दिन पूर्व ही नष्ट होकर चुके है।

गर्म प्रान्तों में चक्रवातों का एक नियम है। गर्मी के कारण वायु मण्डल में तीव्र हलचल होती है और भारी भारहीनता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है उस समय उस कमी के पूरी करने के लिए आस-पास की हवायें खिंचती है यह गति इतनी तीव्र होती है कि हवा के खिंचवा में ही हजारों टन बादल और समुद्र का जल भी खिंचा चला आता है जिससे आंधियों के साथ तीव्र वर्षा भी होती है अत्यधिक गर्म अफ्रीकी देशों में अत्यधिक वर्षा का कारण भी यही है पृथ्वी के किसी भी क्षेत्र में हुई आग्नेय हलचल का समुद्री वातावरण में तुरन्त प्रभाव पड़ता है क्योंकि वहां के ऊपरी मौसम में नमी रहती है गर्मी के कारण वायु शून्यता को पूरा करने के लिये यह हवायें दौड़े तो स्वाभाविक ही है कि अपने साथ समुद्री वातावरण के प्रभाव को जल को भी लेती जायें।

1924 में कुइन्स लैण्ड (ऑस्ट्रेलिया) के लाँगदीच में हुई वर्षा में मेंढ़कों, मछलियों यहाँ तक कि चूहों तक की वर्षा हुई। मछलियाँ बड़ी नहीं थी, डेढ़ से तीन इंच लम्बी थी तथापि उनका जीवित होना और हवा के द्वारा बादलों में खिंचे चले आना कम आश्चर्यजनक नहीं था। यह मछलियाँ कैसे आ गई वैज्ञानिकों ने इस पर खोज की तो पता चला की तेज आँधी तथा “जल बज्रा” में वह शक्ति होती है कि छिछले पानी की मछली तथा मेंढ़कों को भी लेकर आकाश में उड़ जाती है यही वर्षा के साथ गिर जाते हैं। कई स्थानों में लाल रंग की वर्षा होती है वह कोई आश्चर्य नहीं होता वरन् उष्ण कटिबन्धीय प्रान्तों के वातावरण में वायु-चक्रवातों की तीव्रता का ही फल होती है। यह समुद्र की ओर से इतनी तेजी से हवा खींचते हैं कि समुद्री भाप के साथ समुद्र में पाये जाने वाले दूसरे हलके तत्वों को भी खींच ले जाते हैं। आप्यका और किरीट वर्ग जन्तु अपने शरीर से लाल तत्व निकालते हैं जिससे पानी लाल हो जाता है यही लाल पानी लाल रंग की भाप बनकर उड़ता और लाल वर्षा करता है।

समुद्र में विकर्षण शक्ति ही नहीं होती आकर्षक शक्ति भी होती है यह आकर्षण शक्ति ज्वार-भाटा उत्पन्न करने वाले सूर्य और चन्द्रमा के आकर्षण से मुक्त होती है। सन् 1928 की बात है एक जापानी जहाजी बेड़ा “ओरियन्ट” से “टाकोमा” जा रहा था। रास्ते में बेड़े के कप्तान नेमरु ने समुद्र के ऊपर धूल भरी आँधी देखी तो आश्चर्यचकित रह गये समुद्र में धूल कहाँ ? धूल इतनी अधिक थी की डेक पर गिरी धूल ही साफ की गई तो वह 2 बाल्टी से भी अधिक निकली उसे परीक्षण और प्रमाण के लिये नाविक अपने साथ लेते आये। उत्तरी अटलांटिक में जस्टिन के कप्तान को भी ऐसी आँधी का सामना करना पड़ा। रुजवेल्ट लाईन स्टीमर का जैडेन जहाज जब कलकत्ता आया तो वह कोहरे की तरह लाल धूल और बालू से ढंका हुआ था जो लाल समुद्र में आई आई आँधी से ऐसा हो गया था। नाविक बीगल्स ने ब्राजील के पोर्टोप्राया से कई पैकेट धूल इकट्ठा की थी इस धूल का परीक्षण डा0 स्टेनबर्ग ने किया तो पाया कि उस धूलि में 67 जैव पदार्थ थे जो अफ्रीका में पाये जाते थे। अफ्रीका की मिट्टी और इस मिट्टी में समानता थी और इस बात का प्रमाण भी कि यह समुद्र की अपनी आकर्षण क्रिया द्वारा हवा के साथ अफ्रीका से उड़कर वहाँ पहुँच गयी।

यह प्रमाण इसलिये प्रस्तुत किये जा रहे है ताकि यह ठीक तरह समझा जा सके कि वायु मंडल के हर परिवर्तन का प्रभाव समुद्र में पड़े बिना नहीं रहता। यज्ञों द्वारा इसी विज्ञान पर आधारित एक महत्वपूर्ण विज्ञान है जिसकी खोज आदिकाल में ऋषि ही कर सके थे। महर्षि अंगिरा का कथन है-”यज्ञ महायज्ञौ व्यष्टि समष्टिबन्धात्” अर्थात् यज्ञ व्यष्टि (एक व्यक्ति) को समष्टि (सारे विश्व ब्रह्माण्ड) से जोड़ता है। पुराण में लिखा है-

अन्नेन भूता जीवन्ति यज्ञे सर्वं प्रतिष्ठितम्। पर्जन्यो जायते यज्ञार्त्सवं यज्ञामयं ततः॥

अर्थात्- जिस अन्न से समस्त प्राणी जीवित रहते हैं वह बादलों द्वारा उत्पन्न होता है और बादलों की उत्पत्ति यज्ञ से होती है यह सम्पूर्ण जगत यज्ञमय है।

अग्नि में कुछ वस्तुयें मन्त्रोच्चारण के साथ आहुति करने की क्रिया को लोग साधारण कह सकते हैं किन्तु उस सिद्धान्त को उपरोक्त वायु मंडल में परिवर्तन, समुद्र की आकर्षण विकर्षण क्रिया के संदर्भ में विश्लेषण करें तो वह क्रिया साधारण से असाधारण प्रतीत होगी। आस्ट्रेलिया और अमरीका में कृत्रिम वर्षा के प्रयोग हुये है हवाई जहाज से बादलों में खुश्क बर्फ छिड़की गई उससे बादलों का तापाँश कम हुआ और क्षणिक वर्षा हुई। ऐसे प्रयोग भारतवर्ष में भी हुये। इस सिद्धान्त को ऋग्वेद के दृष्टा कहीं अच्छा जानते थे-

अघ्न् घृत्रमृचीषम और्णवाभ महिशुवम्। हर्मना विध्यद बुर्दम्॥

अर्थात्- चमक दमक के साथ सर्प की भाँति रेंगते छाये इन बादलों को विद्युत् (इन्द्र) फाड़ता है और उन्हें बर्फ (ठण्डक) के द्वारा बींधता है जिससे वे वृष्टि करते हैं। अनावृष्टि रोकने का आज तक कोई भी वैज्ञानिक उपाय सफल नहीं हुआ। मौसम पर नियन्त्रण के अनसन्धान चल रहे है पर ऋषियों ने यज्ञ के द्वारा अनावृष्टि को भी मार लगाया था-”विष्टम्भेन वृष्टया वृष्टि जिन्व” अर्थात् अनावृष्टि को जीतो और सुवृष्टि को यज्ञ द्वारा पृथ्वी पर उतरो” “हारमोनिकल मैन” के लेखक प्रसिद्ध अमरीकी वैज्ञानिक डा0 एण्डरो जैक्सन डेविस ने पृष्ठ 31 से 131 तक में वृष्टि विज्ञान दिया है सिद्धान्त लगभग यज्ञ सिद्धान्तों जैसे ही है।

वातावरण के ताप का ही मौसम और वृष्टि पर असर नहीं होता पृथ्वी में ऋतु-परिवर्तन के लिये उत्तरदायी अयन मण्डल को सूर्य संचालित करता है। यज्ञ का सीधा प्रभाव सूर्य पर पड़ता है। विज्ञान का विद्यार्थी जानता है कि गुरुत्वाकर्षण केवल भार वाली पार्थिक वस्तुओं पर प्रभाव डालता है प्रकाश के अणु (फोटोन्स) और अग्नि स्फुल्लिंग उससे मुक्त होते हैं। सादृश्य और आर्न्तय का सिद्धान्त अखण्ड-ज्योति में वर्णन किया जा चुका है। उसी के अनुसार यज्ञ द्वारा उठी हुई लौ अपने साथ पदार्थों का सूक्ष्म अंश लेकर आकाश में उड़ जाता है और लाखों मील की दूरी पार कर सूर्य तक जा पहुँचता है। “यज्ञेनाप्यायिता देवा” यज्ञों से देवता सन्तुष्ट होते है-

अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्गादित्य मुप तिष्ठते। आदित्याज्जायते वृष्टि वृष्टेरन्नं ततः प्रजा॥

अर्थात्- अग्नि में विधि-विधान के साथ दी गई आहुतियां सूर्य देव को प्राप्त होती है उससे वृष्टि होती है वृष्टि से अन्न होता है और उससे प्रजा की उत्पत्ति होती है।

सूर्य वायु मण्डल को प्रभावित करता है सूर्य समुद्र को भी प्रभावित करता है (ज्वार-भाटा सूर्य और चन्द्रमा की ही आकर्षण शक्ति के कारण आते है) सूर्य को यज्ञ प्रभावित करता है यह बात साफ हो गई है कि सूर्य में उठने वाली चौंध पृथ्वी पर व्यापक असर डालती है यज्ञ की लपटें सूर्य में उसी प्रकार चौंध और हलचल उत्पन्न करती है जैसे कोई आग को लकड़ी से हिलाये डुलाये तो उसकी गर्मी और ज्वलनशीलता तीव्र हो उठती है कि सूर्य की हलचल पृथ्वी के वातावरण और समुद्र को प्रभावित करती है ताप और समुद्र के आकर्षण-विकर्षण, सूर्य द्वारा वायु मण्डल में हस्तक्षेप-यह दोनों ही बातें यज्ञ से सम्बन्धित है अतएव यज्ञ को न केवल वृष्टि वरन् ऋतु में हस्तक्षेप का एक जबर्दस्त वैज्ञानिक आधार माना जाना चाहिये।

वैज्ञानिक ग्रैहम ने अपने नाम से गैसीस व्यापनशीलता (ग्रैहम्स ला आफ डिफ्यूजन आफ गैसेज) का सिद्धान्त दिया है- निश्चित ताप और दाब पर गैसों की व्यापन गति उस गैस के घनत्व के वर्गमूल के विपरीत अनुपाती होती है (ऐट सरटेन टेम्परेचर एण्ड प्रेसर दि रेट्स आफ डिफ्यूजन आफ गैसेज आर इनवर्सली प्रप्रोर्शनल टु दि स्कवैयर रुटम आफ देयर डेन्सिटीज” अर्थात् गैस जितनी हलकी होगी उतनी ही शीघ्र वायु में मिलकर प्रतिक्रिया उत्पन्न करेगी। विभिन्न काम्य प्रयोजनों के लिये चुनी गई औषधियाँ इसी सिद्धांत पर काम करती है। वृष्टि के लिये प्रयुक्त की जाने वाली औषधियाँ, समिधायें हलके परमाणुओं वाली होने से वे वातावरण में शीघ्र प्रभाव डालती है।

संसार में कोई भी वस्तु न तो पैदा होती है न नष्ट होती है। पंच महाभूत परिवर्तित होते रहते हैं और इस परिवर्तन के फलस्वरूप ही संसार का क्रम बदलता रहता है। अग्नि में जलाई गई वस्तुयें नष्ट नहीं होती वरन् व्यापक हो जाती है और समूचे वायु मण्डल में प्रभाव डालती है यह प्रभाव ऋतु परिवर्तन तक ही सीमित नहीं रहता, हर व्यक्ति के मस्तिष्क में पोला स्थान (वेन्ट्रिकिल्स) होते हैं। इनमें वायु भरा रहता है हमारे आस-पास का गन्दा, दूषित, बुरे विचारों से जैसा भी कुछ वातावरण होगा वहीं हमारे मस्तिष्क में भी होगा कैसी भी अच्छी परिस्थितियों में जन्मा बालक अपने जीवन का निर्धारण जितना पूर्व संस्कारों द्वारा नहीं करता उससे अधिक यह परिस्थितियां उसे प्रभावित करती और प्रेरणायें देती है। उत्तरी अमरीका की बिन्डसर स्टेट की विधान सभा के एक माननीय सदस्य और राजकीय पुस्तकालय के निर्देशक क्लेरेंस एडम्स दुनिया में इसलिये विख्यात नहीं कि वह एक विधायक थे वरन् उन्हें प्रसिद्धि इसलिये मिली कि वे एक भयानक डकैत थे। उन्होंने बीसियों डकैतियां डालीं पकड़े जाने पर उन्होंने बताया कि वे डकैती धन के लिये नहीं डालते थे वरन् उससे उनको मानसिक तृप्ति और विचित्र आनन्द की अनुभूति होती थी। यह एक उदाहरण है कि जब वायु मण्डल दूषित हो जाता है तो मानसिक दुष्प्रवृत्तियां भी बढ़ जाती है। यज्ञ द्वारा वायु मण्डल के शोधन का सबसे बड़ा लाभ लोगों की मानसिक सात्विकता को बनाये रखना था आज की परिस्थितियों का यह सर्वोत्तम लाभ है किन्तु यदि कोई चाहे तो इसे काम्य प्रयोजनों के लिये विज्ञान की भांति भी प्रयुक्त कर सकता है।

वृष्टि के लिये किये गये यज्ञ परीक्षण अधिकांश सफल हुये है वह भी इस तरह की खोजों के लिये प्रेरणा देते हैं। 1961 में 4 से 15 जून तक नांगलोई (दिल्ली) में वृष्टि के लिये यज्ञ कराया गया उसका खर्च श्री मुल्कराज जी भल्ला मैंनेजिंग डाइरेक्टर हिन्दुस्तान जनरल इन्डस्ट्रीज, दिल्ली ने दिया था परीक्षण के दौरान 8 जून के वहां दूर-दूर तक वर्षा हुई।

वर्षा ऋतु न होने पर भी 26 से 21 जुलाई तक प्रसिद्ध हकीम वीरुमल आर्यप्रेमी ने 1965 में अजमेर में यज्ञ कराया। यज्ञ के दिनों में ही 41/2 इंच वर्षा हुई। 1966 में कांग्रेस अधिवेशन जयपुर के लिये 8 से 12 फरवरी तक वृष्टि यज्ञ हुआ। 10 फरवरी से ऐसी तीव्र वर्षा हुई कि काँग्रेस अधिवेशन ही स्थगित करना पड़ा था। 1966 में सारे देश को सूखे का सामना करना पड़ा खंडवा में एक बूँद पानी नहीं गिरा तक वहाँ यज्ञ कराया गया। 11 को यज्ञ समाप्त होते ही वर्षा प्रारम्भ हुई और 4 इंच से भी अधिक वर्षा हुई। ऐसे सैंकड़ों प्रयोग हुये है जिनसे इच्छा-वृष्टि हुई है यह देखकर ऋषियों का दिया सूक्त याद आता है-”निकामे निकामे नः वर्षतु” जब हम कामना करते तभी वर्षा हो। यज्ञ मानव-जीवन की सुख शाँति समृद्धि का आधार है उसकी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिये। मानव जाति की सुख-शाँति यज्ञों पर आधारित है इसलिये रु के अनिवार्य आवश्यकता मानकर उसका प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिये।

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