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Magazine - Year 1971 - Version 2

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पुरुषार्थ और परिश्रम ही सजीवता का चिन्ह है।

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केवल प्राण धारण किये रहना ही जीवन नहीं है। जीवन का वास्तविक अर्थ पुरुषार्थ में निहित है। उन्नति और प्रगति में समाविष्ट है। संसार में न जाने कितने लूले-लंगड़े, अन्धे, गूंगे, बहरे, पागल और विक्षिप्त लोग प्राण धारण किये रहते हैं, किन्तु वे एक प्रकार से मृत ही होते हैं। क्योंकि वे जीवन की प्रगति के लिये कुछ कर नहीं पाते। कीट-पतंगों की तरह केवल श्वांसों को ढोते हुए जिन्दगी के दिन पूरी किया करते हैं। इसी प्रकार मरण शैय्या पर पड़े हुए बहुत से असाध्य रोगी प्राण रहते हुए भी मृत ही होते हैं, क्योंकि वे जीवन की उन्नति के लिये कुछ नहीं कर सकते।

यों तो संसार में लाखों करोड़ों लोग रहते हैं। किन्तु उनमें से कुछ ही ऐसे होते हैं, जो सही माइनों में जीवित कहे जा सकते हैं। उन जीवित कहे जाने वालों में ही वे आते हैं जो पुरुषार्थी है। जीवन की उन्नति और प्रगति के लिये प्राणपण से परिश्रम करने में तत्पर है। यह संसार के पुरुषार्थी लोग ही होते हैं जो उद्योग के आधार पर स्वयं तो जीवन के उच्च शिखर पर पहुंचते हैं साथ ही दूसरे लोगों को जीने और आगे बढ़ने में मदद करते हैं। संसार की सुन्दरता, उसकी सम्पन्नता और प्रगति जो कुछ भी दृष्टिगोचर होती है उन महान पुरुषों के परिश्रम का ही है जो पुरुषार्थी कहे जाते हैं।

सरी सम्पत्तियां और सारी विभूतियां परिश्रम की अनुगामिनी होते हैं। परिश्रम एक उत्पादक शक्ति है। बिना परिश्रम के किसी प्रकार का निर्माण नहीं हो सकता। व्यक्ति व्यर्थ में पड़ा-पड़ा अपना समय खराब किया करता है वह किसी प्रकार की उन्नति नहीं कर सकता। परिश्रम से केवल सम्पदाओं और विभूतियों का ही लाभ नहीं होता उससे और भी अनेक प्रकार के लाभ होते हैं। बलिष्ठता, प्रफुल्लता, चैतन्यता, स्फूर्ति, उत्साह आनन्द परिश्रम का ही पुण्य फल होता है। परिश्रम के बाद मनुष्य को जिस प्रगाढ़ निद्रा का अधिकार मिलता है उसकी तुलना ब्रह्मानन्द से की जा सकती है। परिश्रम एक ऐसा देवता है जो किसी भी समय मन चाहे वरदान देने को तैयार रहता है। परिश्रम की महिमा अपार है।

एक समय ऐसा भी था जब भारत में घर-घर नर-रत्न पैदा होते थे। देश की धरती विद्वानों, ज्ञानियों और सत्पुरुषों से भरी रहती थी। ऐसा नहीं कि उस प्राचीनकाल में भारत पर ईश्वर की कोई विशेष कृपा रही हो ओर आज न हो। उसकी कृपा तो सब कालों में एक जैसी ही बनी रहती है। किन्तु उसका लाभ अलग-अलग युग में लोग अपनी योग्यता और पात्रता के अनुसार पाते और ठाते रहते हैं। पूर्व काल की अपेक्षा सुख और समुन्नति के साधन आज अधिक है। तब भी लाग उस काल जैसी उन्नति करते दृष्टिगोचर नहीं होते। इसका एक ही कारण है कि आज का मनुष्य पूर्व कालीन पुरुषों की अपेक्षा कम परिश्रमी तथा पुरुषार्थी हो गया है। आज के सुख-साधनों ने उसे आलसी और प्रमादी बना दिया है। अधिक सुख और आराम जीवन की गति और उसकी प्रखरता को कुण्ठित बना देता है। मनुष्य में अकर्मण्यता और अदक्षता का दोष आ जाता है। यह दोनों दोष ऐसे है जो किसी भी व्यक्ति को उन्नति को प्रगति से रहित जीवन काटने पर विवश करते हैं।

पूर्वकाल में लोगों में ऐसे दोष कम थे। वे आराम और आलस्य का जीवन बिताने की अपेक्षा परिश्रम तथा पुरुषार्थ को अधिक महत्व देते थे। कितना ही कोई धनवान और साधन सम्पन्न क्यों न होता पर वह बिना परिश्रम किये जीवित रहना लज्जा की बात समझता था। साधारण व्यक्ति ही नहीं बड़े-बड़े श्रीमन्त लोग भी आलस्य और विलास से बचाने और उन्नति तथा श्रेयस्कर जीवन के योग्य बनाने के लिए अपने राजकुमारों और प्रिय पुत्रों को महलों के सुख सुविधापूर्ण वातावरण से हटाकर अभाव तथा कठिनतापूर्ण गुरुओं के आश्रम में परिश्रमी, कर्मठ तथा ज्ञानवान बनने के लिये भेज देते थे।

वहां जाकर वे राजकुमार और श्रीमन्तज सामान्य गृहस्थों के बालकों के साथ पूरी तरह घुल-मिल जाते थे। उन्हीं की तरह साधारण भोजन करते और सामान्य वस्त्र पहनते थे। उन्हीं की तरह आश्रम का सारा सेवा कार्य अपने हाथों से करते थे। गौएं चराना, लकड़ी काटना, कन्दमूल लाना, कुशा व समिधाओं का सारा प्रबन्ध वे राजाओं और श्रीमन्तों के पुत्र उसी प्रकार करते थे जिस प्रकार दूसरे सामान्य गृहस्थों के बच्चे। राम लक्ष्मण का विश्वामित्र की संरक्षता में कठिन तथा कठोर परिश्रमपूर्ण जीवन बिताना प्रसिद्ध ही है और नन्दबाबा के लाड़ले कृष्ण संदीपन गुरु के आश्रम में रहकर अपने मित्र सुदामा के साथ लकड़ी काटने जाते थे।

यह तो कल्पना ही नहीं की जा सकती कि महाराज दशरथ और ब्रजपति नन्द बाबा के पास धन सम्पत्ति अथवा साधन-सुविधा की कमी रही हो जिसके कारण उन्होंने अपने लाड़लों का गुरुओं के आश्रम में भेज दिया हो, और न यही कहा जा सकता है कि महलों में वे उनके लिये शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध नहीं कर सकते थे। वे लाग पूरी तरह समर्थ और सम्पत्तिशाली थे। लेकिन परिश्रम, पुरुषार्थ तथा स्वावलम्बन की महिमा जानने के कारण ही उन्होंने अपने बच्चों को उस कठिन और कर्मठ वातावरण में भेजा था। यदि वे उनको महलों में रखकर ही उनकी शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध करते तो निश्चय ही अपनी सन्तानों को आलसी, विलासी और सुकुमार बना देते। महलों के वैभव और विलासपूर्ण वातावरण में वह कर्मठ और स्वावलम्बन का वातावरण नहीं ही मिलता। यह उन गुरु आश्रमों में किये गये परिश्रम, पुरुषार्थ तथा स्वावलम्बन का ही फल था कि राम चौदह वर्ष का कठिन वनवास हंसते-खेलते काट सकने में समर्थ हो सके। साधनहीन तथा निःसहाय होने पर भी स्वावलंबन, प्रयत्न और आत्म विश्वास के आधार पर रीछ बानरों की सेना एकत्र कर रावण जैसे शक्तिशाली शत्रु को परास्त कर सके। यदि उनमें पुरुषार्थ की विशेषता न होती तो क्या वे इतना बड़ा श्रेय सम्पादन कर सकते थे। इसी प्रकार यदि कृष्ण को महलों में रख कर आलसी और अकर्मण्य बना डाला होता तो क्या वे अनेक असुरों के साथ कंस जैसे अत्याचारी को मार सकते थ और महाभारत जैसे युद्ध का नेतृत्व कर सकते थे। वे पूर्वकालीन महापुरुष जो भी श्रेय सम्पादित कर सके उसका आधार परिश्रम तथा पुरुषार्थ की वृत्ति ही थी जो उन्होंने प्रारम्भिक जीवन में विकसित की थी। और आजीवन बनाये रखी थी। इसी परिश्रम परम्परा के कारण ही भारत भूमि पूर्वकाल में वीरों, साहसियों, पुरुषार्थियों तथा महापुरुषों से भरी रहती थी।

आज के युग में इस बात की कमी दीखती है। उसका कारण परिश्रम से वैमुख्य ही है। परिश्रम और स्वावलम्बन को आज हेय दृष्टि से देखा जाने लगा है। इसके विपरीत आलस्य और सुकुमारता को ऊंची दृष्टि से। यह विषय ही आज देश की उन्नति का अभिशाप बनकर खाये जा रहा है। आज आमतौर पर देखने में आता है कि जिनके पास थोड़ी सी भी सुविधा होती है वह अपने बच्चे को जमीन पर पैर नहीं रखने देते हैं। थोड़ी दूर पर स्थित स्कूल जाने के लिए सवारियों का प्रबन्ध करते हैं। पुस्तकें आदि लाने ले जाने के लिए नौकर साथ भेजते हैं। घर पर भी साधारण से साधारण कामों के लिए नौकर लगा दिये जाते हैं, जहां बच्चों को प्रारम्भ से ही इस प्रकार काहिल, आलसी और अकर्मण्य बनाने की परम्परा चल रही हो वहां देश काल में कर्मठ, क्रान्तिकारी और श्रेयकारी महापुरुषों की आशा करना उपहासास्पद ही माना जायेगा। ऐसी परम्परा और वातावरण में तो आलसी, विलासी और प्रमादी लोग ही उत्पन्न होंगे। सो हो रहे है, जोकि भोजन, वस्त्र और स्नान ध्यान तक के लिये भी नौकर पर निर्भर रहते हैं।

श्रीमन्तों की बात छोड़ दीजिये। आज उनकी देखा-देखी सामान्य लोग भी परिश्रम करने में हेठी समझने लगे है। विलासिता की ओर प्रवृत्ति ले जाने से उनमें परिश्रम से मुंह चुराने का स्वभाव विकसित होता जा रहा है। काम और अधिक लाभ की एक विचित्र प्रवृत्ति चल पड़ी, इसी प्रवृत्ति ने देश में चारों ओर निर्धनता, अभाव और भ्रष्टाचार का बोलबाला कर रखा है। परिश्रम पर ध्यान न देकर पारिश्रमिक की ओर देखने वाले कभी सच्चे पुरुषार्थी नहीं हो सकते। फलस्वरूप न तो वे जीवन में कोई उन्नति कर सकते हैं और न प्रगति। सिवाय इसके कि मृतकों की तरह अगतिमय जीवन काटें और कीट-पतंगों की मौत मरकर चले जायें। इसी अकर्मण्यता के कारण ही तो भारतीय जनता आज संसार में, साधन होते हुए भी गया गुजरा जीवन बिता रही है।

उन्नति और प्रगति करने की आकाँक्षा प्रायः सभी में होती है। सभी चाहते हैं कि मैं धनवान, श्रेयवान वा और सम्पत्तिवान बनूं। मेरे पास भी कोठी, कार और नौकर-चाकरों। मेरा भी लम्बा-चौड़ा व्यापार चले। ऐसा कौन होगा जो यह न चाहेगा कि उसका ज्ञान बढ़े, वह भी आत्मा परमात्मा के विषय में जाने, आध्यात्म मार्ग में उन्नति करके अक्षय सुख और शान्ति का लाभ करें। किन्तु इस प्रकार वांछाएं करते रहने से ही तो मनोरथ पूरे नहीं जाते। यदि ऐसा सम्भव होता तो संसार में सभी धन कुबेर बन जाते और सभी मोक्ष का परमपद प्राप्त कर लेते। वाँछाओं की पूर्ति परिश्रम तथा पुरुषार्थ द्वारा ही होती है। उन्हें पूरा करने का कोई दूसरा उपाय है ही नहीं। यदि उन्नति और प्रगतिमय मानवीय जीवन की इच्छा है तो उसके लिये कठिन से कठिन परिश्रम और पुरुषार्थ करना ही होगा। परिश्रम धरती का कल्पवृक्ष है। इसका आश्रय लेते ही मनोवाँछित फल मिलने लगते हैं।

बहुधा लोग बड़े-बड़े धनवानों, व्यापारियों, उद्योगपतियों और श्रेयधारियों को देखकर यह अनुमान लगा लेते हैं कि यह लोग बिना कुछ काम किये ही मजे में जीवन बिता रहे हैं समाज में मान सम्मान और पूजा पा रहे है। किन्तु यह अनुमान गलत है। ऐसा सोचने वाले यदि समाज के अगस्थ लोगों के जीवन में पूरी तरह घुसे और निष्पक्ष दृष्टि से देखें तो पता चलेगा कि वे लोग एक सामान्य आदमी की अपेक्षा कहीं ज्यादा काम और परिश्रम करते हैं। वस्तुतः उनका सारा जीवन ही कर्त्तव्य मय हो जाता है। उनका खाना-पीना, सोना-जागना, सब कुछ काम के क्रम से ही निर्धारित होता है। वे खाते हैं तो काम करने की शक्ति प्राप्त करने के लिये, सोते हैं तो काम के लिए नव स्फूर्ति पाने के लिए। मनोरंजन करते हैं तो काम के लिये नव जीवन पाने के लिये। तात्पर्य यह कि संसार के सारे बड़े और बढ़े हुए आदमियों का सम्पूर्ण जीवन ही काम के क्रमों की एक सारिणी होती है। उनके पास फालतू खोने के लिये एक क्षण का भी अभाव होता है। इतना परिश्रम करने पर ही वे समाज में प्रतिष्ठित स्थान पाकर दूसरों के लिये प्रेरणा के उदाहरण पन पाते हैं। कोई बिना परिश्रम और पुरुषार्थ के भी आगे बढ़ सकता है-यह बात अपने मस्तिष्क से निकाल ही देना चाहिये।

सारे श्रेय, सारी सम्पत्ति और सारे साधन परिश्रम तथा पुरुषार्थ के ही अनुगामी होते हैं। उन्नति की देवी उन्हीं को बरती है जो इस रंगभूमि में अपनी पात्रता प्रमाणित करते हैं। बड़प्पन उन्हीं को मिलता है जो अपने सम्पूर्ण जीवन को परिश्रम और पुरुषार्थ की वेदी पर समर्पित कर देते हैं। परिश्रम और पुरुषार्थ उन्नति के ऊंचे शिखर पर चढ़ सकता है। इसमें रंच मात्र सन्देह अथवा अतिशयोक्ति नहीं है।

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