
Magazine - Year 1971 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
वैराग्य से सत्य सिद्धि
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
सद्गुणों से-पवित्र आचार-विचार से-वैसे ही सुख-शाँति और सहयोग पूर्ण भावनाओं एवं परिस्थितियों का विस्तार होता है। संकल्प, स्वाध्याय सत्संग आदि गुणों के विकास के साधन बताये गये हैं किन्तु जिस तरह दुर्गुणों का मूल कारण अनियंत्रित महत्वाकांक्षायें होती है वैसे ही सद्गुणों का भी मूल वैराग्य है। शास्त्रकार का कथन है-
यस्यास्ति भक्तिर्भगवहयकिन्चना-
सर्वैगुणेस्तत्र समासते सुराः।
अकिंचना भक्ति - अर्थात् वैराग्य जहाँ है वहाँ समस्त सद्गुण विराजते हैं।
वैराग्य ऐसी निर्मल भावना है जो मनुष्य के मन को पक्षपात पूर्ण विचारों से बचाती है। चाहे वह अपने लिये हो, समीपस्थ सम्बन्धी अथवा किसी पड़ोसी के लिये हो। अपनी त्रुटि दोष और कमजोरियों पर तो वह कड़ाई से नियंत्रण करता ही है साथ ही उन सभी बुराइयों के विरोध में सहयोग करता है जो परमात्मा के मंगलमय विधान में विघ्न बाधा डालते हैं। इससे भलाई की शक्ति का विकास और परिवर्तन ही होता है।
विचारों की निर्मलता से दुरित दुर्गुणों का निवारण ही नहीं होता वरन् जिस तरह पतझड़ के बाद पेड़ों-पौधों में नई कोपलें फूट उठती है, चैत्र की नवरात्रियों के पास जिस तरह कोंपल प्रकृति नये-नये परिधान में निखरती है वैसे ही मस्तिष्क में भी वैराग्य की भावना आने से नई-नई कोमल भावनाओं का विकास होता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने इसी बात को इन चौपाइयों में व्यक्त किया है-
जानिअ तब मन बिरुज गोसाईं। जब उर वल विराग अधिकाई॥ सुमति छुधा बाढ़ई नित नई। विषय आस दुर्बलता गई॥
अर्थात्- जब हृदय में वैराग्य बल प्रस्फुटित होता है तो मन में विवेक का जन्म होता है। अन्तःकरण में सौमनस् की भूख प्रदीप्त हो उठती है जिससे मन में विषयों की ओर भटकने की दुर्बलता थी वह दूर होने लगती है।
गीता में मनोनिग्रह का मुख्य आधार वैराग्य को बताते हुए- भगवान कृष्ण कहते है-”अभ्यासेन तुकौन्तेय वैराग्येण च गृहृते” योग दर्शन में-’अभ्यास वैराग्याभ्याँ तन्निरोधः’ कहकर उपरोक्त कथन की पुष्टि कर दी। दरअसल स्वाभाविक दुर्बलता तब तक छूटती भी नहीं जब तक आत्मा के प्रति कौतूहल पूर्ण जिज्ञासा और संसार की निस्सारता का भाव मन में प्रकट नहीं होता है।
शास्त्र कहते हैं कि सिद्धियाँ और सफलतायें तो वैराग्यशील व्यक्ति की चरण दासी होता है। आत्म-विजय, मनोजय, राजनैतिक सफलतायें अध्यात्मिक प्रगति और साँसारिक सुख जिनकी प्रत्येक युग में आवश्यकता होती है वह वैराग्य वाले मनुष्य को स्वयमेव आवश्यकतानुसार मिलती रहती है। महाभारत में वैराग्य को सम्पूर्ण सिद्धियों का साधन बताते हुये लिखा है-
यच्छ भूतं भविष्ययं च भवम्च परम द्युते।
तर्त्सवमनुपश्यामी पाणौ फल चिकिर्षिताम॥
--शाँ0 प॰ 54।1
इसके अर्थ में रामायण की यह पंक्तियाँ प्रयुक्त हैं-
जानहिं तीन काल निज ग्याना।
करतल गत आमलक समाना॥
-वह व्यक्ति जिनसे हृदय में वैराग्य बसता है वह यह जानता है हम भूत में क्या थे और भविष्य में क्या होंगे। सम्पूर्ण सिद्धियाँ उनकी हथेलियों पर होती हैं।
वैराग्य के अभ्यास की एक ही साधना है जगत के मिथ्यात्व को अनुभव करना, चिन्तन करना। भावनाओं में इतना उभार पैदा कर लेना कि न अहंभाव रहे, न मृत्यु, न मान-अपमान, शोक-वियोग का विकार। सम्पूर्ण कालों में व्याप्त आत्मा ही आत्मा दिखाई। मैं अजर हूँ, अमर हूँ, अक्षय, अविनाशी परम प्रकाश हूँ इस धारणा की पूर्ण पुष्टि वैराग्य कहा जाता है। साँसारिकता का मोह नष्ट हो जाये वही वैराग्य है।
वैराग्य के विकास के तरीके कई विचारकों ने कई तरह से व्यक्त किये हैं, उन सबका तात्पर्य एक ही है संसार के स्थूल पदार्थों के चिन्तन से मन को विरत कर भावनाओं में लगा देना- एक कवि कहता है-
मुट्ठी बाँधे आया जग में, हाथ पसारे जाएगा।
विनय पत्रिका यों कहती है-
सहस्रबाहु दस बदन आदि नृप, वचे न काल बली ते।
हम हम कहि धन धाम सँवारे, अन्त चले उठि रीते।
सुत बनितादि जानि स्वारथ रत, न करु नेह सबही ते।
अंतहु तोहि तजिगे पामर, तू न तजै अब ही ते।
-पर्पट पन्जरिका में जगद्गुरु स्वामी शंकराचार्य ने संसार
की निस्सारता को यों व्यक्त किया है-
दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिर बसन्तौ पुनरायातः।
कालः क्रीड़ति गच्छत्यायुस्तदपि न मुन्चत्याशावायुः।
भज गोविन्द भज गोविन्द गोविन्द मूढमते॥
बार-बार दिन, सायंकाल रात्रि आती है और देखते-देखते चली जाती है इस प्रकार काल की क्रीड़ा निरन्तर होती रहती है प्राणियों की आयु इस तरह क्षीण होती जा रही है। ऐ मन क्षण भंगुर इस संसार में आशाओं की वायु का परित्याग कर परमात्मा को जान।
ऐसे अवसर पर नानक भला कैसे चुप रहते। वे लिखते हैं-
आयु गवाँईं दुनिया में दुनिया चलै न साथ।
पैर कुल्हाड़ी मारिया मूरख ने अपने हाथ॥
सबका अर्थ संसार के भौतिक सुखों को नगण्य सिद्ध कर पारलौकिक जीवन के लिये आत्म सुधार करना ही है। किसी शायर ने बड़े सुन्दर शब्दों में कहा है-
है बहारे बाग दुनिया चन्द रोज।
देखलो इसका तमाशा चन्द रोज॥
ऐ मुसाफिर कूँच का सामान कर।
है बसेरा इस सरा में चन्द रोज॥
इस संसार के सुख, तमाशे थोड़ी अवधि के लिये है। न जाने कब शरीर विनष्ट हो जाय और इस दुनिया को छोड़कर चल देना पड़े। इन परिस्थितियों को गम्भीरता पूर्वक अनुभव करना चाहिए इससे हमारे सामने एक ऐसे शुभ्र जीवन का विकास होने लगेगा जिसमें कटुता, कलह और वैमनस्य न होगा इसलिये अशान्ति न होगी। भोग न होंगे इसलिये रोगों से छुटकारा मिलेगा, कोई पराया न होगा, किसी के साथ भेदभाव, ऊँच-नीच, कम-ज्यादा का भाव न होगा। वैराग्य को इसीलिये सम्पूर्ण सद्गुणों के विकास का मूल कहा गया है। ऊपर की पंक्तियों का मनन-चिन्तन और उन्हें गुनगुनाते रहने से इसी मूल-भावना की दिनों दिन पुष्टि भी की जा सकती है। जीवन लक्ष्य प्राप्ति की आवश्यकता तो इससे स्वयमेव फलित होती है। “व्यास भाष्य” में बताया गया है-
“कोऽहमासं कथमहमासं किंस्विदिंदकथं स्विदिदं के वा भविष्यामः कथ वा भविष्याम इत्येवमस्य पूर्वान्तं परातं मध्ये स्वात्म भाव जिज्ञासा स्वरुपेणोपावर्तते
एता यमस्थैर्ये सिद्धयः।”
पूर्ण विरक्त जनों को, जिन्होंने संसार के विषय सुख, राग, मोह, मदारि का परित्याग कर दिया है, मैं कौन था कैसे था? वर्तमान शरीर क्या है? कैसा है? आगे क्या होऊँगा? कैसे रहूंगा? इन सब बातों का स्पष्ट ज्ञान हो जाता है।