
Magazine - Year 1971 - Version 2
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Language: HINDI
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नाभि में बैठा हुआ सूर्य
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सन् 1968 में फ्यूजी टेलीविजन कम्पनी जापान के डाइरेक्टर्स भारत आये दिल्ली में उन्हें पता चला कि भारत में एक ऐसा व्यक्ति है जो कांच, लोहा, तांबा, पिन, कंकड़, पत्थर चाहे जो कुछ खा सकता है तो भी उसकी शारीरिक क्रियाओं में रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ता। उन्होंने उस व्यक्ति को दिल्ली बुलवाया स्वागत में जहां अन्य अतिथि स्वाद युक्त भोजन पाते हैं चाय, नाश्ता करते हैं वहां इन बेचारों को कीलें, पिनें, टूटे प्लास्क और कांच के गिलास खाने को दिये गये। उन्होंने वही बड़े प्रेम से खाये और जापानियों को दंग करके रख दिया। जापानी उन्हें साढ़े तीन माह के लिए जापान ले गये उन पर तरह-तरह के प्रयोग किये पर कोई रहस्य न जान सके आखिर इस मनुष्य दैत्य के पेट में क्या है जो वह मोटर ठेले खा जाने तक की क्षमता रखता है।
दृश्य प्रकृति का सृजेता सूर्य माना गया है उसी प्रकार शरीर रूपी जगत का सृजेता भी सूर्य है जो नाभि में बैठा हुआ है। डॉक्टरों और वैज्ञानिकों द्वारा लगभग महत्व हीन नाभि को भारतीय योग शास्त्र में भारी महत्व दिया गया है। बच्चा गर्भावस्था में नाभि के द्वारा ही माँ के शरीर से जुड़ा हुआ होता है और उसके शरीर विकास के लिए उसे नाभि द्वारा ही सारी वस्तुएं प्राप्त होती है नाभि का विस्तार सारे शरीर में है। अंतर्दृष्टि जागृत करने वाली प्रत्येक साधना का प्रारम्भ को भी प्राणाकर्षण प्राणायाम की यथेष्ट मात्रा एकत्र कर लेने के बाद सर्व प्रथम “लोम विलोम सूर्य भेदन प्राणायाम” का ही अभ्यास करना पड़ता है। पातंजलि कृत योग दर्शन में बताया है-नाभिचक्रे काय व्यूह ज्ञानम्-- नाभि चक्र में चित्त वृत्तियों को स्थिर करने से नाड़ी आदि शरीरस्थ स्थूल पदार्थों का ज्ञान होता है। पाश्चात्य देशों में अब लोग इसे सोलर फ्लैक्सस के नाम से जानने भी लगे है किन्तु उनका ज्ञान अभी नहीं के बराबर है।
छांदोग्योपनिषद् में कहा है-
स य एवमेतं द्रथरन्तरमग्नो प्रोते वेद ब्रह्म वर्चस्यन्नादो भवति सर्वमायुरेति ज्योग्जीवति महान्प्रजया पशुभिर्भवति महान्कीर्त्या न डग्नि माचामेन्न निष्ठी वेत्तद व्रतम्॥
जो इस रथन्तर (नाभि स्थित) साम की अग्नि में उपासना करता है वह तेजस्वी, प्रदीप्त जठराग्नि वाला होता है पूर्ण आयु पाता है। प्रजा और पशु से सम्पन्न प्रतिष्ठा वाला होता है वह कीर्ति से भी महान् होता है- अग्नि की ओर मुख करके न कुछ खाये न थूके यह व्रत है।
योगवशिष्ठ ने तो इसी अग्नि को, सूर्य को जो नाभि में स्थित है कुण्डलिनी शक्ति का द्वार माना है और लिखा है-
मंसं कुयंत्र जठरे स्थिते श्लिष्टमुखं मिथः।
ऊर्ध्वाधः संमिलत्स्थूलहृयम्भः स्थैरिव वैतसम्॥
तस्य कुण्डलिनी लक्ष्मीर्निलीनान्त र्निजास्पदे।
पद्यराग समुद्रस्य कोशे मुक्तावली यथा॥
है राम- देह रूपी यन्त्र के उदर भाग में नाभि के पास परस्पर मिले हुये मुख वाली धौंकनियों के समान माँस का पिण्ड इस तरह थरथराता हुआ (सूर्य भी कम्पनशील प्लाज्मा या अग्नि ही है) स्थित है जैसे ऊपर और नीचे बहने वाले दो जलों के बीच में सदा स्थिर रहने वाला वेत कुँज उसके भीतर कुण्डलिनी शक्ति इसी प्रकार स्थित है जैसे मूंगे की पिटारी में मोतियों की माला।
योग-विद्या के यह तथ्य जितने तथ्य पूर्ण है उतने ही आश्चर्यजनक पदार्थ को शक्ति में बदलने वाले इस शक्ति केन्द्र की भारतीय योगियों ने तब शोध की थी जब पश्चिम शक्ति की परिभाषा करना भी नहीं जानता था। यों यह शक्ति सामान्य अवस्था में शिथिल और उपेक्षित पड़ी रहती है अमर्यादित आहार विहार के कारण उसका क्षय भी होता रहता है तथापि उस क्षय को रोककर आश्चर्यजनक काम किये जा सकते हैं। किन्हीं व्यक्तियों में वह प्रमाण स्वयं व्यक्त होता है। ऐसा ही एक विस्मय पूर्ण उदाहरण यहां भी प्रस्तुत है। साधारण तौर पर मनुष्य का पेट फल-फूल, अन्न और रस पचाने की जितनी अग्नि वाला माना जाता है यदि लोहा शीशा पचाने की बात आये तो भारी शक्ति वाली अणु भट्टी की आवश्यकता होगी। कोई व्यक्ति बिना किसी बाह्य रसायन अथवा यन्त्र की मदद से यदि इस्पात जैसी पत्थर जैसी कठोर और साइनाइड जैसे मारक विष खाकर पचा जाये तो यही तो प्रमाणित होगा कि उसके पेट उसकी नाभि में वस्तुतः कोई अग्नि कुण्ड होगा यह विश्वास दिलाना इसलिये आवश्यक है ताकि लोग जठराग्नि प्रदीप्त करने वाले प्राणायाम, योगासनों की महत्ता समझें। ताकि लोग शरीर और शरीर के लक्ष्य का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करें और मनुष्य जीवन में आने का उद्देश्य भी सार्थक कर सकें।
डॉ0 अलख मोहन माथुर नामक इस भारतीय आश्चर्य का जन्म अलीगढ़ में हुआ। वे जन्मे भी समय से पहले और उल्टा तथा जुड़वा जन्म-जात आश्चर्य पिण्ड श्री माथुर मानव आश्चर्यों के प्रतीक है। एक दिन, जबकि वे चंडीगढ़ में डाक्टरी करते थे, उन्होंने सुना कि एक बालिका धोखे से सुई खा गई। सुई खाते ही लड़की की स्थिति मरणासन्न हो गई। डॉक्टरों ने किसी तरह आपरेशन करके बालिका के प्राण बचाये। इस घटना ने श्री माथुर को बहुत विचलित कर दिया वे सोचने लगे क्या सचमुच मनुष्य इतना गया-बीता निर्माण है कि एक नन्ही-सी सुई उसकी जान ले ले। कौतूहल वश उन्होंने उसी शाम ब्लेड का छोटा-सा टुकड़ा खाकर देखा। प्रातःकाल पाखाने के साथ वह टुकड़ा निकल गया पर साथ में रक्त भी गया जिससे पता लगता था कि ब्लेड की खरोंचें लगी है। दूसरे दिन उन्होंने फिर ब्लेड खाया और कई दिन तक उसके निकलने की प्रतीक्षा करते रहे पर न ब्लेड के टुकड़े निकले और न रक्त। हैरानी बढ़ने पर उन्होंने एक्सरे कराया तो उन टुकड़ों का कहीं पता नहीं चला।
फिर एक-एक करके वे धीरे-धीरे आलपिनें लोहे के टुकड़े, शीशा, पारा, प्लास्टिक, तांबा चाहे कोई भी धातु चबाने और पचाने लग गये। यह कोई चमत्कार नहीं था एक तथ्य था जो इस शरीर रूपी अद्भुत मशीन विज्ञान से सम्बन्ध रखता था इसलिए उसकी छान-बीन प्रारम्भ हुई। दिल्ली के गोविन्द बल्लभ पंत हास्पिटल में बम्बई, कलकत्ता, लखनऊ, चंडीगढ़, अलीगढ़, गाजियाबाद में परीक्षण हुए डॉक्टरी जांच की गई पर कोई नहीं बता सका कि कौन-सा तत्व है जो इन अभक्ष भक्ष्यों को भी पचा डालता है।
जापानी डाक्टरों ने तो उन्हें कई-कई दिन तक एकाँत में रखा। खाने के तुरन्त बाद से लेकर दिन में वैसे कई-कई बार एक्सरे और अन्य प्रयोग किये पर कुछ भी जान न पाये आखिर यह कौन-सा बला विज्ञान है। उन्होंने श्री माथुर को एक सार्टीफिकेट दिया “विश्व भर में अद्भुत भारतीय” (वर्ल्ड सरप्राइज मैन आफ इण्डिया) की उपाधि ही वे दे सके श्री माथुर जी को।
अनेकों ख्याति प्राप्त अन्य वैज्ञानिकों ने, राष्ट्रपति और प्रधान मन्त्री तक ने उनके यह करिश्मे देखे है। “इण्डियन मेडिकल इन्स्टीट्यूट” के डॉक्टरों ने उन्हें सायनाइड खिला दिया। जिसका एक रबा जीभ पर रखने भर से वह मनुष्य को मार सकता है उसका भी कुछ असर न हुआ माथुर पर डाक्टरों को पसीना छूट गया। बेचारे हक्के-बक्के रह गये इस प्रयोग पर।
प्रयोगों से भरी दुनिया में यह भी एक प्रयोग था प्रयोग करते-करते एक दिन यह सिलसिला भी टूट ही जायेगा पर तब भी शायद ही लोग यह अनुभव कर सकें कि शरीर में एक कोई ऐसी सूर्य जैसी प्रचण्ड शक्ति भी है जिसका सम्बन्ध भौतिक जगत से न होकर आध्यात्मिक सत्यों से है। जिसे पाना और जानना हो तो भारतीय योग विद्या का पल्ला पकड़ना पड़ेगा और पदार्थ से भी शक्तिमान उस अनादि अविनाशी अक्षर तत्व का ज्ञान प्राप्त करना पड़ेगा। श्री माथुर का इस तरह का विवरण कादम्बिनी के जुलाई 1970 अंक में भी छपा था।