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Magazine - Year 1971 - Version 2

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पदार्थ और चेतना-दो भिन्न अस्तित्व

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इन्द्र अग्नि, वायु, आकाश आदि सभी देवताओं का ब्रह्मा ने आवाहन किया। उनके सामने एक तिनका रखा और कहा- इसे उठाओ, जलाओ और उड़ाओ पर एक नन्हें से तिनके को हस्तान्तरित करने में कोई भी सर्मा न हुआ तब ब्रह्म ने उस तिनके को उठाया, फूंक मारकर उड़ाया और जलाकर भी देखा दिया। पराभूत देवताओं को उपदेश देते हुए केनोपनिषद में ब्रह्म ने समझाया कि शक्ति का केन्द्र शरीर नहीं आत्म-चेतना है शरीर तो जड़ है, उसका अभिमान नहीं करना चाहिये।

इस आख्यायिका में बताया है कि मनुष्य के शरीर में विभिन्न पदार्थों की सम्मिलित शक्ति होने पर भी यदि चेतना नहीं है ते मात्र पिण्ड कुछ नहीं कर सकता-सर्व शक्तिमान चेतना है--आत्मा है जड़ शरीर नहीं, यह चेतना शरीर से स्वतन्त्र अस्तित्व है।

ऋग्वेद का कथन है-

अपश्यं गोपामनपद्यमानमा च पर च पथिभिश्चरन्तम्। स सध्रीचीः स विचूचीर्वज्ञान आवरी वर्ति भुवनेष्वन्तः॥ -ऋग्वेद 1.177.3

अर्थात्- यह जीवात्मा अनेक मार्गों द्वारा शरीर में आता है (शरीर से पैदा नहीं होता) शरीर से पृथक् होता है अविनाशी और इन्द्रियों का रक्षक होता है। वह शरीर के साथ भी रहता है शरीर को छोड़कर भी रहता है।

पाश्चात्य वैज्ञानिक अभी कोई ऐसा प्रयोग नहीं कर पाये जिससे आत्म-चेतना के अस्तित्व की पृथक् अनुभूति की जा सके। पर योग-साधनाओं द्वारा आत्मा को बोधगम्य बनाने वाले भारतीय योगियों ने ऐसे प्रमाण प्रत्यक्ष प्रदर्शनों द्वारा प्रस्तुत किये हैं जिनसे पता चलता है कि आत्मा अज्ञान वश शरीर के व्यापार में आसक्त पड़ा रहे यह अलग बात है पर वह है स्वशासी, अपने नियन्त्रण में आप। एकबार सुप्रसिद्ध योगी देशबन्धु की इस मान्यता को कुछ डॉक्टरों ने अमान्य किया फलस्वरूप बम्बई मेडिकल यूनियन की और से श्री देशबन्धु का प्रदर्शन कराया गया उसे देखने के लिये बम्बई मेडिकल कॉलेज के छात्र स्टाफ तथा अन्य विशिष्ट नागरिक भी एकत्र हुये। डॉ0 बसन्त जी रैले उनके शरीर परीक्षण के लिये नियुक्त किये गये । श्री देशबन्धु से कहा गया यदि आप मानते हैं कि चेतना के शरीर से भिन्न किया जा सकता है तो आप दाहिने हाथ की नाड़ी-क्रिया को शून्य करके दिखाइये ?

श्री देशबन्धु ने लम्बी श्वांस-प्रश्वांस क्रिया की। गहरी सांस ली और उसे बाहर निकाल दिया। दाहिना और बांया दोनों हाथ बाहर निकाल दिया। श्री रैले ने देखा बायें हाथ की नाड़ी यथावत् धक्-धक् कर रही थी पर दाहिने हाथ की नाड़ी में संचालन की जरा भी गति नहीं थी। दुबारा फिर वैसा ही करके उन्होंने दाहिने हाथ की नाड़ी चलाकर दिखा दी और बायें हाथ की नाड़ी गति को शून्य कर दिया। डॉक्टरों की टीम आश्चर्य चकित तब रह गई जबकि योगी देशबन्धु ने विभिन्न प्राणायाम क्रियाओं द्वारा सारे शरीर की नाड़ी संस्थानों को तो गतिशील रखा किन्तु हृदय गति को बिलकुल रोक दिया। हृदय गति रुक जाने पर मनुष्य एक भी क्षण जीवित नहीं रह सकता। पश्चिम अभी तक कोई ऐसा प्रयोग नहीं कर सका कि शून्य गति हृदय को गति देकर मृतक को जिन्दा कर दिया हो जबकि प्रत्यक्ष उदाहरण यह था कि शेष शरीर जी रहा था और शरीर का इंजन हृदय फेल पड़ा था। श्री देशबन्धु ने कहा- आत्मा स्वतन्त्र द्रव्य है उस पर केन्द्रस्थ होकर आश्चर्यजनक दिखने वाला हर काम सम्भव है।

डॉक्टरों ने उस समय यह तर्क किया कि सम्भव है यह सब आपने हिप्नोटिज्म द्वारा लोगों को सम्मोहित करके दिखाया हो इस पर उन्होंने दुबारा प्रयोग किया इस बार एक्सरे कार्डियोग्राम द्वारा विधिवत् हृदय गति की जाँच की तो भी परिणाम ज्यों का त्यों रहा। श्री देशबन्धु ने इसे महज खेज बताते हुये कहा आत्म-चेतना नाड़ी संस्थानों द्वारा इस शरीर से सम्बद्ध है यह क्रियायें और कुछ नहीं केवल मात्र ‘वेगस नर्व’ के नियन्त्रण का परिणाम है। भली भाँति नियन्त्रित आत्म-चेतना से दूरगमन परलोक अनुभूति, परकाया प्रवेश, ईशत्व वशित्व आदि विलक्षण सिद्धियाँ और सामर्थ्यों अर्जित की जा सकती है। अणु से विराट् बनने का श्रेय इन साधनाओं द्वारा ही समुपलब्ध होता है।

येग मार्ग न सही ऐसे अनुभव पाश्चात्य लोगों ने भी किये है और माना है कि शरीर की मुख्य चेतना अपने स्वतन्त्र अस्तित्व में वस्तुतः रह सकती है। द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान अगस्त सन् 1944 को एक फौजी अफसर को हुआ वह ऑफिसर स्काउट कार द्वारा जा रहा था तभी जर्मनी की एण्टी टैंक तोपों का सीधा प्रहार हुआ। ऑफिसर जिस गाड़ी में था उसमें और भी विस्फोटक पदार्थ भरे थे उनमें विस्फोट हो गया। उस समय की स्थिति का वर्णन करते हुए ऑफिसर ने द्वितीय विश्व युद्ध के मित्र राष्ट्र गजेटियर में लिखा है-जैसे ही विस्फोट हुआ मैं 20 फुट दूर जा गिरा ऐसा लगा मैं दो भागों में विभक्त हो गया। मेरा एक शरीर नीचे जमीन में पड़ा तड़प रहा है उसके कपड़ों में आग लगी है भय से वह अपने हाथ पैर बुरी तरह हिला रहा है किन्तु दूसरा शरीर इस शरीर के ऊपर आकाश में हवा की तरह तैर रहा था मैं अपने रूप को स्वयं पहचानने में असमर्थ था पर वहां की हर वस्तु, सड़क के पर का युद्ध दृश्य, झाड़ियां, जलती कार में सब कुछ देख रहा था। मुझे भीर से एक अन्तः प्रेरणा उठी कि तड़फड़ाने से कुछ लाभ नहीं जल्दी-जल्दी शरीर को जमीन से रगड़ो ताकि आग बुझ जाये। शरीर ने ऐसा ही किया। वह लुढ़क कर बगल की खाई में जा गिरा। खाई में कुछ नमी थी, आग बुझ गई और मुझे ऐसा लगा जैसे एक पक्षी द्वारा घोंसले में प्रवेश की तरह मैं फिर उसी शरीर में आ गया। अब मुझे शरीर की पीड़ा का पुनः भान होने लगा जबकि थोड़ी देर पूर्व यही दृश्य मैं मात्र दर्शक बना देख रहा था।

यह उदाहरण विवेक चूड़ामणी की इस सत्यता का ही बोध कराते है-

असंगोऽहमनंगो हमलिंगोऽहमभंगुरः। प्रशान्तोऽहमनन्तोऽहमतान्तोऽहं चिरन्तनः॥

मैं (आत्म-चेतना) असंग हूं, अशरीर हूं, मेरा कोई लिंग भेद नहीं मेरा नाश नहीं होता, अत्यन्त शाँत अनंत अतान्त और पुरातन हूं मेरा कोई आदि अन्त नहीं।

भारतीय दर्शन के इन गूढ़ रहस्यों का मर्म श्री रामकृष्ण परमहंस बहुत सीधे सादे उदाहरण में समझाया करते कहा करते-जिस तरह प्याज की गांठ का छिलका उतार दो दूसरा छिलका आ जाता है छिलके उतारते जाओ अन्त में उसका बीज मात्र रह जाता है उसी प्रकार शरीर के पदार्थ की समीक्षा, उसका विश्लेषण करते जाओ तो समस्त स्थूल पदार्थों के बाद जो शेष बचेगा वह आत्म-चेतना ही होगी।

इसकी विधिवत् अनुभूति लम्बी योग-साधनाओं से सम्भव है पर कई बार आकस्मिक घटना भी आत्म-चेतना के प्रथक अस्तित्व का बोध करा देती है। जम्मू में शिक्षा विभाग के एक मध्यम श्रेणी कर्मचारी श्री गोपी कृष्ण ने किसी पुस्तक में पढ़ा-मस्तिष्क के मध्य ज्योतिर्लिंग का ध्यान करने से परमात्मा की अनुभूति होती हैं। एक दिन वे इसी तरह ध्यान कर रहे थे। जिज्ञासा की प्रखरता में बड़ी प्रबल शक्ति है। मन की चंचलता के कारण ध्यान का जो लाभ कुछ लोग वर्षों अभ्यास के बाद भी नहीं ले पाते, वह उनकी तीव्र जिज्ञासा ने क्षण भर में प्रदान कर दिया उन्हें सहस्रार की स्पष्ट अनुभूति अकस्मात् हो गई। वे समझ न सके यह क्या हुआ वे एक दिव्य लोक में खोये से रहने लगे एक दिन वे तवी पुल पार कर रहे थे तभी उस प्रकाश के बोध के साथ ही उनके मस्तिष्क में बहुत ही दिव्य भाव छंद बद्ध काव्य के रूप में उदित हुये। साधारण शिक्षित व्यक्ति में असाधारण कवित्व शक्ति का उदय उनके लिये एक आश्चर्य बन गया। वे कवितायें लिखने लगे। आश्चर्य तब और भी गहरा हो गया जब उनके मस्तिष्क में जर्मन, फ्रेंच इटेलियन, संस्कृति, अरबी जिनका कि उन्हें ज्ञान भी नहीं था नियमित काव्य धारायें उतरने लगी। उनके इन काव्यों और विलक्षण मानसिक शक्तियों का परीक्षण अनेक पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों ने भी किया और उन विचारों को शृंखला बद्ध नियमित और व्याकरण के नियमों से नियन्त्रित पाया। रहस्य को न समझाने पर भी सबने माना कि श्री गोपी कृष्ण के शरीर में किसी ऐसी सत्ता का विकास हो गया है जो शरीर और मन की पहुंच से बहुत व्यापक पहुंच वाली है। यह विलक्षण घटनायें देखकर योग वशिष्ठ के यह कथन याद आते है-

आत्मा शरीर सम्बन्धी शरीरमपि नात्मनि भिथो विलक्षणावेता प्रकाश तमसी यथा।

देहनास्य न संबंधों मनागेवामलात्मनः। हेम्नः पंकलवेनेव तद्र तस्यापि मानवः॥

अर्थात्- आत्मा का शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं। अन्धकार और प्रकाश की तरह दोनों दो विलक्षण पदार्थ है। सोना कीचड़ में गिर जाने से उस पर कीचड़ का आवरण चढ़ गया जान पड़ता है तथापि सोने के कणों की शुद्धता में कोई अन्तर नहीं आता उसी प्रकार शरीर में आ जाने पर भी आत्मा के अस्तित्व में किसी प्रकार का अन्तर नहीं आता।

आधुनिक वैज्ञानिक चेतना को प्राकृतिक मानते हैं। उनका कहना है कि चेतन “प्रोटोप्लाज्म” (नमक को इतना पीसा जाये कि फिर उसके टुकड़े न हो सकें उस नमक का परमाणु कहते हैं, शरीर जिस पदार्थ से बना है उसकी लघुतम इकाई का नाम “सेल” है सेल या कोश जिन तत्वों से बनता है उसे प्रोटोप्लाज्म कहते हैं) ही है। प्रोटोप्लाज्म में शहर के समान नाइट्रोजन, हाइड्रोजन, कार्बन, फास्फोरस आदि बारह पदार्थों से बना एक तरल पदार्थ होता है जिसे साइटोप्लाज्म कहते हैं। यह भौतिक पदार्थ भी इलेक्ट्रान, प्रोट्रान, न्यूट्रान, पाजिट्रान और नाभिक से बने है। हक्सले के हवाले से वैज्ञानिक कहते हैं कि इलेक्ट्रान निरन्तर गतिशील रहते हैं। प्रकृति के बदलते रहने से इलेक्ट्रानों धारा निरन्तर बहती रहती है उसी से निरन्तर चेतना का क्रम बना रहता है उसे ही चेतना या जीवन कहते हैं।

किन्तु, प्रसिद्ध वैज्ञानिक सर ओलिवर लाज ने अपनी पुस्तक विज्ञान और धर्म (साइन्स एण्ड रिलीजन) के पेज 18 में स्पष्ट किया है कि प्रत्येक परमाणु कई इलेक्ट्रान से मिलकर बना होता है यह इलेक्ट्रान गति भी करते हैं पर वे एक दूसरे से चिपके नहीं रहते वरन् जिस तरह आकाश में ग्रह-नक्षत्र दूर-दूर परिभ्रमण करते हैं उसी तर यह भी अलग-अलग रहकर परिभ्रमण करते हैं इससे इलेक्ट्रान्स की निरंतर प्रवाह प्रक्रिया को चेतना या जीवन नहीं कहा जा सकता। किसी निश्चित निष्कर्ष पर न पहुंच पाने पर भी आज के विज्ञान ने यह मान लिया है कि चेतना अजर-अमर तत्व है। इलेक्ट्रान तो मन जैसी प्रचण्ड वेग वाली पदार्थ जन्य शक्ति का नाम है। आत्मा उससे भी भिन्न है सम्भव है उसकी खोज में भारतीय तत्व दर्शन मदद कर सके।

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