
लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी बात
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कबीर रहस्यवादी कवि थे। उनने अपनी साखियों में जितने सरल शब्दों का इस्तेमाल किया है, उतने ही गहन और गंभीर उनके भाव है। वे प्रतीक पद्धति के भी प्रवर्तक कवि माने जाते है। उनके दोहों में रहस्यवाद और प्रतीकवाद का जैसा समन्वय हुआ है, वह अद्भुत और अद्वितीय है। उन्हें सहज शब्दावली द्वारा गहरे भाव-संप्रेषण का विशेषज्ञ कवि माना जाता है।
गागर में सागर समाएँ होने की कहावत प्रसिद्ध है। कबीर ने वही किया है विराट को छोटे-छोटे शब्दों में उड़ेला है। साधारण बोलचाल के शब्द है पर बड़े विलक्षण अर्थ सँजोए हुए है। सुनकर ऐसा प्रतीत होता है, मानो सब कुछ परिचित है, शब्द और अर्थ जाने-पहचाने है। इस आधार पर जब उसका मतलब निकाला जाता है, तो आश्चर्य होता है कि जितने महान कवि उतना ही साधारण अर्थ! पर बात ऐसी है नहीं, उसमें जो गहराई दी गई है, वह असाधारण है। ऐसा ही एक पद है-
लिखालिखी को है नहीं, देखा-देखी बात-दूल्हा-दुलहन मिल गए, फीकी पड़ी बरात॥
सामान्य दृष्टि से इस पर विचार करें, तो इतना ही अर्थ होगा कि विवाह समारोह में जब वर-वधू का मिलन हो जाता है, अर्थात् परिणय जब संपन्न हो जाता है, तो बारात की शोभा समाप्त हो जाती है। फिर उसकी कोई उपयोगिता नहीं रह जाती-यह कोई लिखने की नहीं, देखने की बात है। सामान्य संदर्भ में इस पद का इतना ही अर्थ हो सकता है, लेकिन जब गहरे में उतरते हैं तो उसमें बहुत बड़ा रहस्य छुपा पाते है।
अर्थ की तरह ज्ञान भी सामान्य और विशेष ही हो सकता है। जब दुनिया की किसी वस्तु के बारे में चर्चा करते है, तो वह मात्र बाहरी ज्ञान होता है। हम उसके सिर्फ बाहर-बाहर चक्कर काटते है। जिस प्रकार मंदिर में देव- विग्रह की लोग परिक्रमा करते और उसमें परमात्मा की प्रतीति करते है, वैसा ही यह आरोपित ज्ञान है। उसके वास्तविक सत्ता की अनुभूति तो तभी होगी, जब उसके गहन अंतराल में उतरकर उसके प्राण को, चेतना को स्पर्श किया जाए। इसके बिना समस्त जानकारी सतही होगी। सागर को जानना हो तो ऊपरी दृष्टि निक्षेप भर पर्याप्त नहीं होगा। उससे तो अवलोकक को इतना भर ज्ञात हो सकेगा कि उसमें जो ऊर्मियाँ है, वह किस प्रकार से, कितनी गति से, कैसे आ-जा रही है, किन्तु सागर संबंधी जानकारी सिर्फ इतनी हो तो नहीं है। वास्तविक ज्ञान और यथार्थ पहचान तो वह अपने भीतर की गहराई में समेटे हुए है। इसलिए सागर को समझने का एक ही तरीका है कि उसमें डुबकी लगायी जाए। इस डुबकी में भी एक अड़चन है, कारण कि वास्तविक डुबकी तो अपने में और सिर्फ अपने में ही लगायी जा सकती है। दूसरे में चाहे कितनी ही लगाएँ, उसकी आत्मा को स्पर्श न कर पाएँगे। जिस निमज्जन में चेतना के तल तक न पहुँच पाएँ, वह ज्ञान अवास्तविक होगा। वास्तविक अनुभव या ज्ञान सिर्फ अपना ही हो सकता है, दूसरे का नहीं। अतः गुरजिएफ ने ठीक ही कहा है कि आत्मज्ञान ही एकमात्र ज्ञान है, शेष सब जानकारी है। इस जानकारी को प्राप्त करने के तो पुस्तक, शिक्षक, यंत्र और कितने ही बाहरी माध्यम है, किंतु जो यह अवलंबन असहाय और असम साबित हो, वहाँ उपाय क्या हो? इनका उत्तर कबीर उपर्युक्त पद में देते है।
“लिखालिखी की है नहीं देखादेखी बात”। वे कहते है कि वह जो आत्मज्ञान है, वह पढ़ने लिखने की वस्तु नहीं, उससे आत्मज्ञानी नहीं हुआ जा सकता जब तक कि उसे स्वरूप देखा या अनुभव न किया जाए। कब जब यह लिख रहे थे, तो का पाँडित्य का गढ़ था। चारों और ज्ञान चर्चा की ही अनुगूँज थी। कोई वेद पारंगत, कोई उपनिषद् के ज्ञाता, व दर्शन में निपुण, तो कोई पुराण व्याख्याता। इस प्रकार वहाँ के जन मानस में ज्ञान की घुट्टी धुली हुई वे कबीर को अज्ञानी समझते थे, उनकी दृष्टि से सही था। पंडित ज्ञानी है, तो निश्चय ही कबीर आता है कारण कि उन्हें वाक्पटुता आती, उनमें वाक्चातुर्य नहीं है। अपनी बात बिना किसी लाग -लपेट सीधे-सादे ढंग से कह देते है। विज्ञजनों! यह जिस तत्व की आप कर रहें है, वह कहने की नहीं, अंत की चीज है इतने मात्र से वे ‘अज्ञ संज्ञा पा जाते है, पर इससे विश्व करने वाले तथाकथित पंडित -ज्ञान का हाल क्या है? उनका ज्ञान कैसा यह भी देखें। वे आत्मा की, अमरता बात तो बढ़-चढ़कर करते है, लेकिन मौत को सामने पाकर रोते, चीखते चिल्लाते है मृत्यु के स्मरण से अमरता खो जाती है,