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Magazine - Year 1999 - Version 2

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राष्ट्रधर्म पर युगद्रष्टा का चिंतन

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राष्ट्र की आज परिस्थितियों में हमारा युगधर्म क्या हो, इस संबंध में समय-समय पर परमपूज्य गुरुदेव द्वारा व्यक्त किए गए विचार पढ़ें संदर्भों के साथ।

राष्ट्रधर्म

कर्तव्य धर्मों में तीन प्रमुख माने गये है- वैयक्तिक धर्म समाज धर्म और राष्ट्रधर्म। वैयक्तिक धर्म व्यक्ति की सुख-सुविधा और विकास हेतु होता है। समाज धर्म में व्यक्ति और समाज की गति- प्रगति की बात सोची जाती है, जबकि राष्ट्रधर्म में व्यक्ति समाज और राष्ट्र तीनों की उन्नति निहित होती है। अतः सिर्फ। एक राष्ट्रधर्म के पालन से शेष दोनों धर्मों का निर्वाह स्वतः होता रहता है। इसलिए तीनों धर्मों में राष्ट्रधर्म-को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना गया है। अस्तु तन, मन, धन, श्रम, साधन, व्यवसाय, विचार, कला, विज्ञान और धर्म- अध्यात्म के प्रसार द्वारा राष्ट्रधर्म है। इसे आज का सबसे बड़ा धर्म कहा गया है। प्रस्तुत समय में इसका परिपालन और भी आवश्यक है।

जननी भूमि

मातृभूमि को जननी के समतुल्य माना गया है। जिस देश के हम नागरिक हैं, जिस धरती ने हमें जन्म दिया, साधन-सुविधाएँ दीं और मनुष्य कहलाते-योग्य बनाया, वह भूमि निश्चित ही माँ कहलाने योग्य है। तभी तो अपने देश को हम भारतमाता कहकर पुकारते है। माँ की मदद यदि शिशु को आरम्भ में न मिले तो क्या जीवित रह पायेगा? कदाचित रह भी जाए, तो रामू भेड़िये जैसा ही होगा। तात्पर्य यह कि नवजात शिशु से लेकर बड़ा वयस्क बनने तक में माता-पिता की जो भूमिका होती है, उससे इनकार नहीं किया जा सकता। इसमें भी प्रथम अनुदान शिशु को माँ से प्राप्त होता है, अतएव वह और भी श्रेष्ठ कहलाती है। यही बात मातृभूमि के संबंध में भी कही जा सकती है। मनुष्य जिस देश का नागरिक होता हैं, वही उसे प्रथम शिक्षा मिलती हैं। उसके निमार्ण में प्रगति, समृद्धि में उस राष्ट्र की ही साधन-संपदा काम आती है और उसी से वह एक सुयोग्य नागरिक बन पाता है इस दृष्टि से देखा जाए, तो जननी और जन्मभूमि की भूमिकाएँ समान होती हैं।

प्रत्येक सपूत को चुनौती

आज समय ने पुनः वही परिस्थितियाँ हमारे सामने पैदा कर दी है। वीरता और कायरता की प्रत्यक्ष चुनौती अनायास ही सामने आ खड़ी हुई है और हमें विवश कर दिया है कि किसी एक को चुन ले। पड़ोसी देश पाकिस्तान ने जो परोक्ष आक्रमण करके उसी मनोवृत्ति दुहराया है, जिससे प्रेरित होकर पिछड़ी शताब्दियों में आक्रमणकारी भारत हमले करते रहे है।

भारत माता पर होने वाले प्रत्यक्ष और परोक्ष आक्रमण उसके प्रत्येक सपूत के लिए एक चुनौती है माता के लिए पददलित एवं अपमानित होते देखकर भी जिसका खून न खौलता हो, जिसके मन में क्षोभ और प्रतिकार की भावनाएँ न उठती हों उसे मनुष्य शरीर में विचरण करने वाला नरपशु ही कहना चाहिए।

राष्ट्रीय ऋण से उऋण हों

मनुष्य जिस राष्ट्र भूमि की गोद में पलता, बढ़ता, विकास करता है, जिसकी संस्कृति से जीवन को सभ्य, सुसंस्कृत बनाता है, जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत जिसके अनेकानेक उपकारों अनुदानों से अनुगृहीत होता है व प्रगति करता है, उसे राष्ट्र के प्रति हमारा भी कर्तव्य होता है कि हम उसके उत्थान- विकास की बात सोचें और ऐसी रीति अपनाएँ, जिसमें उसका हितसाधन समाहित हो, तभी हम बच्चे अर्थों में उस राष्ट्र ऋण में उऋण हो सकते हैं, जो जीवन भर हम पर लदते रहते है। ऋण चाहे किसी भी प्रकार का हो, उसे चुकाने में ही कृतज्ञता मानी जाती है।

राष्ट्र की समृद्धि का आधार

राष्ट्र को समृद्ध और शक्तिशाली बनाने के लिए आदर्शवाद, नैतिकता, मानवता, परमार्थ, देशभक्ति एवं समाजनिष्ठा की भावनाओं की जाग्रति नितांत आवश्यक है। इसके अभाव में अन्य साधन- सामग्री चाहे कितने ही विपुल परिमाण में उपलब्ध क्यों न हों, हमारी आंतरिक दुर्बलता को दूर न कर सकेंगी। आदर्शहीन कपटी, भ्रष्ट दुराचारी, कायर और नस्वामी लोगों के हाथ में साधन, सामग्री लग जाए, तो इसके आधार पर उनकी बुराई ही अधिक बढ़ती है और उससे अहित ही अधिक होता है। इसलिए सुरक्षा और प्रगति के साधन जुटाते हुए इस बात का भी ध्यान रखा जाना आवश्यक है कि मानव अंतः करण में सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों की भी अभिवृद्धि निरंतर होती रहे। देशभक्ति और बलिदान की भावनाओं से ओत−प्रोत नागरिक ही राष्ट्र ही रीढ़ है।

नियति तो परिवर्तन पर उतारू है, हम निमित्त मात्र बन जाएँ

एक सनसनीखेज खबर के रूप में आज चारों ओर नोस्ट्राडेमस की भविष्यवाणी की चर्चा है कि 1999 में निश्चित की तीसरा महायुद्ध विश्व स्तर पर होने की संभावना है, जिसमें दुनिया की प्रायः एक तिहाई से अधिक आबादी नष्ट हो जायेगी। फ्रेंच में काव्य के रूप में लिखी इन पंक्तियों का जितने व्यक्तियों ने जिस प्रकार अपनी-अपनी तरह से भाष्य कर पूर्वानुमान व्यक्त किया है, वह स्वयं में एक प्रमाण हैं। कई प्रकार की प्रतिक्रियाएँ भी इस संदर्भ में है। अनेक ज्योतिर्विदों का मत है कि 28 मई 200 में 9 जून 2000 तक का समय अवश्य ऐसा है, जब प्राकृतिक प्रकोपों से लेकर मौसम में बड़े व्यापक स्तर पर परिवर्तन की प्रतिक्रियाएँ देखी जाएँगी। इसे प्रलय तो नहीं कहा तो सकता, परन्तु कहना है कि यदि नोस्ट्राडेमस की भविष्यवाणी के परिप्रेक्ष्य में चिंतन किया जाए तो यह समय 1999 के प्रथम तिमाही वाले भाग से ही प्रारम्भ हो चुका हैं एवं संभवतः जुलाई 2000 तक रहेगा, जिसमें पूरे विश्व में कही भी, कभी भी कोई शांति से नहीं बैठ सकेगा।

फिर भी संकेत सभी ओर से यही मिल रहे हैं कि प्रस्तुत एक वर्ष की अवधि न केवल दक्षिण एशिया वरन् सारी विश्व वसुधा के लिए कष्टों से भरी है। हमारी सीमाएँ तात्कालिक रूप में भले ही सेनाओं द्वारा सुरक्षित कर ली जाएँ, परन्तु आक्रान्ता शांत बैठने वाले नहीं है। हिमालय के किस छोर से युग- परिवर्तन के केन्द्रबिन्दु भारत वर्ष पर कब हमला हो जाए, कुछ नहीं कहा कहा जा सकता। हमें पूर्वी व पश्चिमी तथा उत्तरी हर दिशा में स्थित अपने पड़ोसी राष्ट्रों से सावधान ही रहना होगा ताकि इस देश की एकता-अखण्डता को काई खतरा न पहुँचने पाये। ग्रह गणित के अनुसार भी आगामी दो वर्षों तक दो महाशक्तियों की वक्र दृष्टि हमारी सीमाओं पर है एवं ऐसे में हमें मात्र वर्तमान कतिपय सफलताओं से प्रफुल्लित न हो शाँति-अहिंसा की आड़ में संभावित हर षड्यंत्र से जूझने हेतु तैयार रहना चाहिए।

इस वर्ष प्राकृतिक आपदाएँ बड़े विकराल रूप में आएँगी- मात्र भारत ही नहीं, सारी विश्ववसुधा पर। रूस में पड़ रही भयंकर गर्मी, यूरोप में हो रही वर्षा, ल नीना ‘व’ अलनीनों के प्रभाव के विश्वव्यापी परिवर्तन क्या-क्या घटाटोप बरसा सकते हैं, इनकी कल्पना कर- करके खंडप्रलय का आभास होता है। पिछले दिनों वैज्ञानिकों ने संयुक्त राज्य अमेरिका के आकार की उक विशाल छतरी आयनोस्फियर की परत से नीचे हिंद महासागर के ऊपर अंटार्कटिक ध्रुव के समीप देखी है। यह बताया जा रहा है कि विषाक्त धुएँ से भरे ये बादल महानगरों से उत्सर्जित गैसों के कारण बने हैं एवं इनमें से- तिहाई विकसित कहे जाने वाले देशों से आया हैं। वैसे दोष दक्षिणी एशियाई देशों को दिया जा रहा हैं। किन्तु परिणाम अम्ल वर्षा व मौसम के असंतुलन से लेकर भिन्न भिन्न रूपों में सारे विश्व को झेलने पड़ सकता हैं एक अनुमान के अनुसार अमेरिका, यूरोप एवं सर्वाधिक प्रभाव देखा जाएगा, जिसमें समुद्री तूफान, अत्याधिक वर्षा भूस्खलन का नाम लिया जा रहा है।

युगसंधि की इन घड़ियों में विश्वव्यापी तनाव अभी आगामी दो वर्षों तक बने रहने की संभावनाओं के बारे में सभी ज्योतिर्विद् सहमत है। सभी किसी आणविक युद्ध की संभावना को नकारते है और बताते है कि यह पाकिस्तान के विखंडीकरण का समय है। एक भविष्यवक्ता के अनुसार सभी जिन उच्छृंखल हाथों से छापामार यु0 भाड़े के सैनिकों को झोंककर पाकिस्तान लड़ रहा है।, वे ही उसके विनाश के कारण बनेंगे। सिंध व पंजाब का एक बहुत बड़ा हिस्सा भारत में मिल जाएगा एवं एक छोटा टुकड़ा ईरान से तथा एक हिस्सा चीन से लगकर आज के पाकिस्तान के अस्तित्व को समाप्त कर देगा। यह सारा अंजाम 2004 तक हो जाएगा एवं इसके बाद वह स्वर्णिम युग आरंभ होगा, जो आगामी 90 वर्षों तक चलेगा, जिसमें भारत सारे विश्व का मार्गदर्शक होगा।

भविष्यवक्ता विजाँन दारुवाला बजाक है कि आगामी छह माह भूकंपों की विश्वव्यापी श्रृंखला, हवाई दुर्घटनाओं व मिसाइलों के हमलों से तबाही से भरे है। चीन अमेरिका व रूस के नेतृत्व में आमूलचूल परिवर्तन एवं भारतीय संस्कृत के आदर्श नेतृत्व की और सुझाव एक अजीबोगरीब प्रक्रिया के रूप में सारा विश्व देखेगा। पृथ्वी से परे विकसित अन्य सभ्यताएँ भी आगामी 2-3 वर्षों में हमसे सम्पर्क साधेगी एवं यह संबंध दिनोंदिन प्रगाढ़ होते जाएँगे। निश्चित ही उज्ज्वल भविष्य से भरी इक्कीसवीं सदी की पूर्व वेला में यह सब जो कुछ होने जा रहा है इसके द्रष्टा बनने का हम सभी को सौभाग्य मिलने जा रहा है।

आज से कुछ भी युद्धलिप्सा के घातक रूप के माध्यम से दिखाई दे रहा है वह भविष्य के समाज की रचना हेतु आधारभूमि गुरुदेव ने कहा था कि इसी संधिवेला में वह चिंतन उभरकर आएगा जो समूह चिंतन का रूप लेगा एवं विश्व सरकार, एक ही विश्व- व्यवस्था, एक ही आचार- संहिता, विभिन्नताओं के बावजूद एक ही संस्कृति के विकास के रूप में दिखाई देगा। कितने महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़े है हम। सहज ही हमें अपने सौभाग्य का अहसास नहीं होता, किन्तु यह समय निश्चित ही विश्व इतिहास में एक युगांतरकारी अवधि वाला सिद्ध होगा, इतिहास अगले दिनों यह बताएगा।

एक विलक्षण संयोग यह भी है कि सूर्य पर उभरने वाले स्फोटों की श्रृंखला विगत तीन वर्षों से बढ़ोत्तरी पर है। सभी जानते है कि पृथ्वी की जलवायु का नियंत्रण सूर्य द्वारा होता है। इसलिए इन सौर−कलंकों का पृथ्वी के जीवन पर गम्भीर प्रभाव पड़ता है। सूर्य पर जब ये धब्बे अधिक संख्या में पड़ने लगते है, तो चुम्बकीय तूफान, रेडियो तरंगों के प्रसारता में अवरोध के अवसर बढ़ जाते है। सूर्यकलंकों के समय अग्निज्वालाएँ लाखों मील तक लपलपाती है। हर दृष्टि से इनका उभरना अशुभ माना जाता है। इन दिनों प्राकृतिक विपदाएँ तो कहर ढाती ही है, मानवी प्रकृति असाधारण रूप से प्रभावित होती है। ऐसे अवसरों पर समुद्री जलयानों, वायुयानों के बीच दुर्घटनाएँ छह गुनी बढ़ जाती है। दुर्भिक्ष सूखा, युद्धोन्माद में बढ़ोत्तरी तरह-तरह के रोग, बाढ़ तूफान भूकंप आदि दैवी आपदाओं से जन-धन की क्षति भी काफी होती है। अब जब संधिकाल की अंतिम वेला आ पहुँची तो इन सौर−कलंकों की संख्या सतत् बढ़ती ही जा रही है। अमेरिका वैज्ञानिकों ने सौरलपटों का फिल्माँकन कर यह निष्कर्ष निकाला है कि सूर्य इस समय बड़ा कुपित है एवं इसके प्रभाव समष्टिगत हो सकते है।

इन दिनों लगता तो यह है कि अदृश्य द्वारा मनमानी चल रही हैं किन्तु, आएगा जो समूह चिंतन का रूप लेगा एवं विश्व सरकार एक ही विश्व व्यवस्था, एक ही आचार- संहिता, विभिन्नताओं के बावजूद एक की संस्कृति के विकास के रूप में दिखाई देगा। कितने महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़े है हम। सहज ही हमें अपने सौभाग्य का अहसास नहीं होता, किन्तु यह समय निश्चित ही विश्व इतिहास में एक युगांतरकारी अवधि वाला सिद्ध होगा, इतिहास अगले दिनों यह बताएगा।

एक विलक्षण संयोग यह भी है कि सूर्य पर उभरने वाले स्फोटों की श्रृंखला विगत तीन वर्षों से बढ़ोत्तरी पर है। सभी जानते है कि पृथ्वी की जलवायु का नियंत्रण सूर्य द्वारा होता है। इस लिए इन सौर−कलंकों का पृथ्वी के जीवन पर गम्भीर प्रभाव पड़ता है। सूर्य पर जब से धब्बे अधिक संख्या में पड़ने लगते हैं, तो चुम्बकीय तूफान, रेडियो तरंगों के प्रसारण में अवरोध, ध्रुवीय प्रकाशों की प्रखरता में बढ़ोत्तरी के अवसर बढ़ जाते है। सूर्यकलंकों के समय अग्निज्वालाएँ लाखों मील तक लपलपाती है। हर दृष्टि से इनका उभरना आरम्भ अशुभ माना जामा है। इन दिनों प्राकृतिक विपदाएँ तो कहर ढाती है, मानवी प्रकृति असाधारण रूप से प्रभावित होती है ऐसे अवसरों पर समुद्री जलयानों, वायुयानों के बीच दुर्घटनाएँ छह गुनी बढ़ जाती है, ऐसा वैज्ञानिकों का अध्ययन है। दुर्भिक्ष सूखा युद्धोन्माद में बढ़ोत्तरी, तरह-तरह के रोग बाढ़, तूफान भूकंप आदि दैवी आपदाओं से जन धन की क्षति भी काफी होती है। अब जब संधिकाल की अंतिम वेला पहुँची, तो इन सौर−कलंकों की संख्या सतत् बढ़ती ही जा रही है। अमेरिका वैज्ञानिक ने सौरलपटों का फिल्माँकन कर यह निष्कर्ष निकाला है कि सूर्य इस समय बड़ा कुपित है। एवं इसके प्रभाव समष्टिगत है। हो सकते है।

इन दिनों लगता तो यह है कि अदृश्य द्वारा मनमानी चल रही है, किन्तु वस्तुतः यह क्रिया को प्रतिक्रिया ही हैं, जो संभावनाओं के रूप में दिखाई दे रही है। दूसरी ओर प्राणवान आत्माएँ अपनी आत्मशक्ति से प्रकृति व नियति दोनों को प्रभावित परिवर्तित करने की क्षमता रखती है। यही गायत्री परिवार के उज्ज्वल भविष्य के चिंतन का मूल आधार है। सन् 1988 में जब बारह वर्षीय युगसंधि महापुरश्चरण आरम्भ हुआ था तब किस ने कल्पना की थी कि क्रमशः चौबीस करोड़ प्रतिवर्ष से बढ़कर चौबीस सौ ही नहीं चौबीस हजार करोड़ प्रतिवर्ष से बढ़कर चौबीस सौ नहीं, चौबीस हजार करोड़ गायत्री जाप प्रतिवर्ष होने लगेगा। किन्तु क्रमशः इस महापुरश्चरण में भाग लेने वालों की संख्या बढ़ती चली गयी है। एवं अब इस अवधि का अंत आते-आते बढ़ते हुए इस चरम शिखर पर पहुँच गई है कि अब हम आगामी वर्ष एक करोड़ प्राणवान परिजनों के माध्यम में विराट महापूर्णाहुति आयोजित करने जा रहे हैं। महापूर्णाहुति के लिए इससे श्रेष्ठ समय और क्या हो सकता है।

युगनिर्माण योजना को-गायत्री परिवार की युगांतर चेतना को परमपूज्य गुरुदेव ने समय की पुकार, जनमानस की गुहार दैवी इच्छा की प्रत्यक्ष प्रक्रिया का पर्याय बताया। उनका मत था कि संगठन का जन्म ही संधिकाल से विश्वमानवता को उबारकर सारी विश्ववसुधा का मार्गदर्शन करने के लिए हुआ है। उनके इस कथन पर पूरी श्रद्धा, अटूट निष्ठा बनाए रख हम सबके लिए यही उचित होगा कि भौतिक और आत्मिक स्तर पर ऐसा प्रबल पुरुषार्थ सँजोए जिनसे रुष्ट नियति को मना लेने और क्रुद्ध प्रकृति को शाँत करने का अवसर मिल सके। रोग अपनी जगह है-उपचार अपनी जगह। विपत्ति अपना काम करती है और रोकथाम के लिए बरते गए पुरुषार्थ का अपना महत्व है। विषम बेला में यही सबसे बड़ी बुद्धिमानी है। कि आतंकित होने की मनः स्थिति उत्पन्न न होने दी जाए, साथ ही प्रचंड पुरुषार्थ को सँजोकर असंभव को संभव बनाया जाए। ध्वंस को सृजन से ही निरस्त किया जा सकता है। भौतिक स्तर पर हम जो पुरुषार्थ इन दिनों कर सकते है, वह है राष्ट्र की शक्ति का अपव्यय रोकने हेतु सामूहिक स्तर पर बल देना। सभी व्यक्ति न केवल निर्धारित समय की अपनी ड्यूटी देने का काम पूरा करें-राष्ट्र का उत्पादन बढ़ाने में जो भी कदम सहायक हो, वह उठाएँ। कोई भी कार्यालय क समय का उपयोग निजी प्रयोजनों के लिए न करें- अपनी ओर से कोई आलस्य व प्रमाद को भीतर प्रविष्ट न होने दें। कामचोरी को भीतर प्रविष्ट न होने दे। कामचोरी और हरामखोरी रोकना इस समय का युगधर्म हे। सामूहिक स्तर पर जहाँ अपव्यय हो उसे रोकना, भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध मुहिम छेड़ना मुनाफाखोरी व कालाबाजारी के विरुद्ध सत्याग्रह स्तर पर मोर्चा चलाना एक प्रकार से राष्ट्र-सेवा है। किसी को भी साम्प्रदायिकता के विष को फैलाने का अवसर न मिले, यह हम सभी को भली−भाँति ध्यान रखना है। किसी को भी साम्प्रदायिकता के विष को फैलाने का अवसर न मिले, यह हम सभी को भली−भाँति ध्यान रखना है। जितने भी सरकार के रचनात्मक कार्य है, उनमें हमें सहयोग देना चाहिए। राष्ट्रीय सुरक्षा कोष के लिए अधिकाधिक अंशदान देने का क्रम भी स्थान स्थान पर चले। सामूहिक स्तर पर रक्तदान के कैंप लगें, अभी आवश्यकता न हो तो भी अपना ग्रुप पता लगाकर पंजीयन करा लें ताकि अवसर आने पर उसका नियोजन हो सके। प्राकृतिक विपदाओं में जहाँ तक हो सके, राहत पहुँचाने का प्रयास होना चाहिए। सप्ताह में एक दिन हम राष्ट्र रक्षा के लिए उपवास रख-बचत का नियोजन पोस्ट ऑफिस की सेविंग्स व बैंक की सेविंग में कर सकते है, जिनके ब्याज से राष्ट्र को मदद मिलेगी। खर्चीली शादियों का न केवल विरोध उनका बहिष्कार भी किया जाना चाहिए। ऐसे विषम समय में जेवरों का त्याग कर अधिकाधिक सादगी का परिचय चाहिए। अन्न व शाक का उत्पादन बढ़ाना बंदूकें बनाने के समान है। देश को स्वदेशी आधारित बनाते हुए स्वावलंबी बनाना इस समय का एक परम पुनीत पुण्य है।

आत्मिक स्तर पर सृजन सैनिकों से अपेक्षा की जाती है कि वे जागृतात्माओं के लिए निर्धारित विशिष्ट उपासना अभियान साधना, प्रखर साधना वर्ष की अपनी साधना के अतिरिक्त एक अतिरिक्त गायत्री मंत्र की माला इस धर्मयुद्ध रखा-अनुष्ठान विभीषिका निवारण के लिए करेंगे। विश्व शाँति की सामूहिक साधना तभी बन सकेगी, जब अधिकाधिक व्यक्ति एक ही समय, एक ही भावना से एकनिष्ठ होकर समष्टिगत शक्ति के उपार्जन की दृष्टि से उसे संपन्न करेंगे। एक अतिरिक्त माला जा कर रहे है। क्लीं बीजमंत्र के संपुट सहित जपें। ॐ भूर्भुवः स्वः क्लीं क्लीं क्लीं तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् क्लीं क्लीं ॐ। इस मंत्र का जप करें। जप के साथ राष्ट्रीय समस्या समष्टिगत विपत्तियों के समाधान हेतु आध्यात्मिक ऊर्जा के जागरण और चहुँ ओर विस्तार का भाव बनाए। इस संबंध में प्रयोग के विशिष्ट पक्ष हेतु प्रज्ञा अभियान पाक्षिक का 14 जून 99 तथा 1 जुलाई 99 का अंक अवश्य देख लें। सांप्रदायिक सद्भाव के विस्तार हेतु एवं उज्ज्वल भविष्य के अवतरण की प्रार्थना में भी अधिकाधिक लोगों को साथ जुटाने का प्रयास किया जाना चाहिए।

इसी के साथ-साथ कई परिजन जो नियमित अग्निहोत्र करते है अथवा साप्ताहिक दीपयज्ञ आयोजन संपन्न करते है। दो विशिष्ट आहुतियाँ अभी सामयिक परिस्थितियों के निवारण के निमित्त कम से कम सन् 2000 के अंत तक देते रहें। युद्ध प्रत्यक्षतः थम जाने पर भी अपना यह आध्यात्मिक पुरुषार्थ चलता रहे। ये आहुतियाँ हैं-

सैन्य निजय-प्राप्त्यर्थं आहुतिः॥

इन्द्रः सेनां मोहयतु, मरुतों घ्नन्तु ओजसा। चक्षूंषि अग्निरादत्तं, पुनरेतु पराजिता, स्वाहा॥ इदं इंद्राय इदं न मम।

हुतात्मनः शान्त्यर्थं आहुतिः॥

शन्नों मित्रः शं वरुणः शन्नों भवर्त्वयमा। शन्नडडन्दों बृहस्पतिः शन्नों विणुरुरुक्रमः स्वाहा॥ इदं हुतात्मनः शान्त्यर्थ इदं न मम

इन सभी के साथ भाव यही रहे कि हम सैन्य शक्ति के संवर्द्धन तथा हुतात्मा शहीदों की आत्मा की शाँति सद्गति हेतु प्रार्थना कर रहे हैं। यह नियमित यज्ञ के अतिरिक्त हो।

अपना ज्ञानयज्ञ का क्रम विद्या−विस्तार का क्रम इन सबके साथ नियमित चले, क्योंकि वही तो मिशन की धुरी है। परमपूज्य गुरुदेव की प्रेरणानुसार निर्धारित उपर्युक्त पुरुषार्थ में स्वयं संलग्न हो, यदि समस्त जाग्रत परिजनों का समुदाय मिल−जुलकर अवांछनीयताओं के विरुद्ध निर्णायक युद्ध छेड़ेगा और विश्वकर्मा की तरह नई दुनिया बनाकर खड़ी करेगा, तो गुरुवर के शब्दों में अंधे भी देखकर कह सकेंगे कि कोई चमत्कार हुआ।

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