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Magazine - Year 1999 - Version 2

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ध्यान से बड़ा नहीं-कोई भी नशा

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चेतना के विस्तार का सर्वसुलभ एवं सुगम उपाय क्या हो? इस सम्बन्ध में मनुष्य अति आरम्भ काल से ही सोचता-विचारता रहा है। वैदिक युग में सोचता-विचारता रहा है। वैदिक युग में सोमरस को इसका सरल विकल्प माना जाता था, जबकि वर्तमान समय में इसके लिए अनेक प्रकार के मादक द्रव्यों का इस्तेमाल किया जाता है, ताकि मन सामान्य दशा से असाधारण अनुभूतियों के आयाम में पहुँच सके।

यहाँ विचारणीय प्रश्न यह है कि एल.एस.डी, स्तर के नशीले पदार्थ चेतना के विस्तार में सहायक है क्या? एवं इस अवस्था में मन जो कुछ अनुभव करता है, उसे क्या विस्तृत चेतना का परिमाण मान लिया जाये? योगविद्या के आचार्यों के मत है कि चेतना का विस्तार विशुद्ध रूप से एक एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है। इस चरित्र, चिंतन, व्यवहार में पवित्रता और शुचिता के बिना उपलब्ध नहीं किया जा सकता। इसके अतिरिक्त वह रंग-बिरंगी सुखद प्रतीतियों तक ही सीमित नहीं, अतींद्रिय सामर्थ्य की महत्वपूर्ण आधार भी है। नशे की अर्धमूर्छा-अर्द्ध-तंद्रा स्थिति में जो कुछ भी अनुभव होते हैं, उसे इंद्रियातीत नहीं, इंद्रियजन्य कहना चाहिए। वह मन-मस्तिष्क का क्रिया व्यापार है, उसका कोई अतींद्रिय आधार नहीं।

चेतना के रहस्यमय स्तरों को प्राप्त करने की दिशा में मादक द्रव्यों का प्रयोग प्रारम्भ से ही विवाद का विषय रहा है और इस बारे में अक्सर यह सवाल उठाया जाता रहा है कि इससे होने वाले अनुभव वास्तविक ध्यान के अनुभव कहे जा सकते हैं क्या? तर्क शील लोगों का इस सम्बन्ध में कहना है कि भले ही ये अनुभव यथार्थ स्तर के न हों, पर उनसे उस तल की एक झाँकी तो प्राप्त की ही जा सकती है। जिससे कि तात्त्विक अनुभूति का अनुमान लगाया जा सके। यह अध्यात्म मार्ग के जिज्ञासुओं के लिए उपयोग सिद्ध हो सकता है। उनका यह कथन योगाभ्यासियों को अंधकूप में धकेलने के समान है, जहाँ से वे फिर कभी निकल ही न सके।

पदार्थ चेतना को प्रभावित करता है-यह सत्य है किन्तु वह उसके स्तर को ऊँचा उठाता है-इसमें कोई तथ्य नहीं। जो ऐसा नहीं मानते, वे वस्तुतः स्वयं भ्रमित हैं और दूसरों को दिग्भ्रांत करते हैं, अन्यथा यदि चेतना के उत्थान और विस्तार का इतना ही सरल तरीका रहा होता, तो योगी-यतियों को इतनी कष्टसाध्य प्रक्रिया से होकर गुजरने और तपपूर्ण जीवन बिताने के क्या आवश्यकता थी? फिर वे एल.एस.डी. की कुछ खुराक लेकर दिव्य अनुभूतियाँ न प्राप्त कर लेते! सच तो यह है कि ऐसे द्रव्य आत्मोन्नति के मार्ग में बाधक है। वास्तविक योगी इनके सेवन के प्रति इस पथ के पथिकों को सदैव सावधान करते और जागरूक रहने के लिए निर्देश करते हैं।

चेतना-विस्तारक तत्व के रूप में मादक द्रव्यों के सेवन की शुरुआत तब हुई, जब द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व और पश्चात् यूरोपीय समाज की अवस्था अत्यन्त दयनीय थी। सोच में उभरती आक्रामकता और गिरते मानवीय मूल्यों के कारण तत्कालीन समाज के प्रहरियों को यह चिंता सताने लगी कि कहीं ऐसा न हो कि संपूर्ण सभ्यता ही पतन के भयावह गर्त में समा जाए। इसके लिए बहुत सोच-विचारकर उन्होंने एल.एस.डी. समेत कुछ ऐसे नशीले पदार्थों की खोज की, जो सेवनकर्ता की मनोदशा में वाँछित परिवर्तन लाकर उन्हें अवांछनीय गतिविधियों से विमुख कर सकें। ऐसा करने के पीछे उनका उद्देश्य समाज को नशाखोर बनाना नहीं था। वे यह चाहते थे कि चाहे जैसे भी हो, वर्तमान दुरावस्था से समाज की चेतना के स्तर को ऊँचा उठाया जाए। इस क्रम में एल.एस.डी. अमेरिकी और यूरोपीय समाज में लोकप्रिय तो हुई, पर शीघ्र ही लोग उससे ऊबने लगे। इसका यह मतलब नहीं कि वह अपने प्रयोजन में विफल रही। उसने जनमानस में एक अद्भुत आनंद का संचार निश्चय ही किया, लेकिन आगे की रिक्तता की पूर्ति वह न कर सकी, जबकि समाज चेतना की और अधिक विकसित तथा स्थायी अवस्था की अनुभूति करना चाहता था। यहीं से उनका ध्यान उन पौर्वात्य ध्यान-परंपराओं की ओर गया, जो बौद्ध ताओ एवं योग पद्धतियों के रूप में प्रचलन में थीं। अनेक पाश्चात्य विद्वान उसके बाद भारत आए और यहाँ के योगियों के संपर्क में आकर ऐसे अद्भुत अनुभव प्राप्त किए, जो उनके लिए आश्चर्यजनक थे। इन विद्वानों में हार्वर्ड विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान के प्राध्यापक डॉ. रिचर्ड एलबर्ट (बाबा रामदास) का नाम उल्लेखनीय है।

वे अपने संस्मरण में लिखते हैं कि एक बार वह एक भारतीय महात्मा के संपर्क में आए। उन्होंने उन महात्मा को एल.एस.डी. की काफी बड़ी मात्रा खिलायी, किंतु इसका कोई असर उन पर नहीं हुआ। यह देखकर वे अचंभित रह गए। वह महात्मा एक उच्चस्तरीय योगी थे और चेतना के उस आयाम में स्थित थे, जहाँ मादक द्रव्यों के सेवन द्वारा नहीं पहुँचा जा सकता है। इसके बाद वे अमेरिका लौट गए और नशीले पदार्थों के विकल्प के रूप में चेतना की उच्चतर अवस्थाओं की प्राप्ति हेतु योग का व्यवस्थित ढंग से प्रचार प्रारम्भ किया।

धार्मिक कर्मकाण्डों एवं आयोजनों में चेतना की परिवर्तित अवस्था को प्राप्त करने के लिए अनादिकाल से नशीले द्रव्यों का प्रयोग होता रहा है। आर्ष साहित्य में सोम नामक पौधे की यत्र-तत्र चर्चा हुई है। ऐसा उल्लेख मिलता है कि सोमरस के पान से दिव्य अनुभूतियाँ होती हैं। इसलिए तब इसकी पूजा की जाती थी। आज तो हम इसका उपयोग ही नहीं, पहचान भी खो बैठे हैं। अमेरिका, रूस आदि देशों में कुकुरमुत्ता, नागफनी, धतूरा आदि द्रव्यों का इस्तेमाल इस दौरान होता था।

पुराने जमाने में यूनान के डायोनिसस संप्रदाय के अनुयायी शराब एवं कुछ मादक प्रभाव उत्पन्न करने वाली बूटियों से एक ऐसी नशीली सुगंध का निर्माण करते थे, जिसके बारे में विश्वास था कि वह उन्हें शरीर से पृथक् होने तथा ईश्वरीय शक्ति से आवेशित होने में मदद करती थी।

साइबेरिया की शमनिक जन-जातियों में प्रेतात्माओं से संपर्क करने के लिए नशीले द्रव्यों का सेवन आम है। इसके लिए यहाँ के तुँगस शमन कबीले के लोग कई प्रकार की मादक जड़ी-बूटियों को जलाकर उनका धूम्र लेते और मद्यपान करते हैं। उनकी मान्यता है कि अर्धचेतना की स्थिति में अशरीरी आत्माओं से संपर्क शीघ्र सधता है। आनन्द की भावदशा प्राप्त करने के लिए तिब्बत के शमन ‘जूनीपर’ नामक नशे का प्रयोग करते हैं।

विश्व भर की तिलस्मी परंपराओं में भी कहीं-कहीं चेतना की परिवर्तित अवस्था प्राप्त करने के लिए ऐसे पदार्थों का सेवन सामान्य है। ब्राजील के नृतत्ववेत्ता कारलोस केस्टानिडाने अपनी रचना ‘दि टीचिंग’ ऑफ जाँन जुआ-ए याक्वी वे ऑफ नॉलेज’ में इस बात का उल्लेख किया है कि किस प्रकार उन्हें मैक्सिकन जादुई परंपरा में दीक्षित होने के बाद पराभौतिक क्षमता अर्जित करने के लिए धतूरे आदि का प्रयोग सीखना पड़ा था। इसके अतिरिक्त अन्य अनेक प्रकार की जड़ी-बूटियों के सेवन की चर्चा भी की है, जिनका एकमात्र उद्देश्य अतींद्रिय सामर्थ्य विकसित करना था। याक्वी पंथ में ऐसी मान्यता है कि प्रारम्भिक अवस्था में ऐसी वस्तुओं के उपयोग से बाद में चेतना के विकास में सहायता मिलती है।

यों तो योग परंपरा में उच्च चेतनात्मक स्थिति प्राप्त करने के लिए जिन पाँच माध्यमों का उल्लेख मिलता है, उनमें से एक औषधि भी है, पर यह औषधि आज के गाँजा, भाँग, शराब, एल.एस.डी. जैसे साधारण मादक द्रव्य नहीं थे। वे दिव्य औषधियाँ थीं। आज तो उनका ज्ञान, पहचान और प्रयोग सब कुछ विलुप्त हो चुका है। ऐसे में सामान्य नशे का सेवन कर उस परंपरा की लकीर पीटना और उससे इंद्रियातीत अनुभूति की बात करना भ्रामक नहीं तो और क्या है? यह सच है कि ऐसे कुछ उदाहरण मौजूद हैं, जिनमें चाय-कॉफी जैसे साधारण पदार्थों के प्रयोग से चेतनात्मक परिवर्तन महसूस किया गया और उस दिशा में ऐसे कठिन-कठिन सवाल हल किये गये, जो साधारण अवस्था में असंभव स्तर के प्रतीत होते थे, किन्तु इन्हें सामान्य घटना नहीं, अपवाद कहना चाहिए। ऐसे ही एक अपवाद फ्राँस के प्रख्यात गणितज्ञ पायन केयर थे। उन्हें कॉफी पीने की आदत नहीं थी। ऐसा कहा जाता है कि जब वे इसे पी लेते, तो चेतना की एक ऐसी अवस्था में प्रवेश कर जाते थे, जैसी निद्रा के पूर्व होती है। तब उन्होंने ऐसे सूत्र और समीकरण खोजे तथा हल किए, जो सामान्य चेतना की अवस्था में संभव नहीं थे- ऐसा उनका स्वयं का मत है। किंतु ऐसे इक्के दुक्के उदाहरणों को सर्वसाधारण पर तो घटित नहीं किया जा सकता। इससे ऐसा भी कोई संकेत नहीं मिलता कि कॉफी जैसे औसत पदार्थ से हर एक में उक्त प्रकार का परिवर्तन होता ही है। ऐसे में इन्हें अपवाद कहना ज्यादा उचित है। अपवाद कहीं-कहीं और कभी-कभी ही घटित होते हैं, इसलिए वे सामान्य श्रेणी में नहीं आते। अतएव चेतना विस्तारक द्रव्य के रूप में इनकी गणना अमान्य हो जाती है।

नशीले पदार्थों का शरीर और मस्तिष्क पर पड़ने वाले प्रभावों के सम्बन्ध में पिछले दिनों गहन अध्ययन हुआ है। शरीरशास्त्रियों का कहना है कि इनसे सुस्ती, आलस्य, अवसाद, अकर्मण्यता, उदासी जैसी स्थितियाँ उत्पन्न होती है। अधिक लेने पर मृत्यु का भी खतरा बना रहता है। इस आधार पर उन्हें दो श्रेणियों में विभक्त किया गया है। क्लोरोफार्म, ईथर, अल्कोहल, नाइट्रस आक्साइड तथा संपूर्ण शामक औषधियाँ-ये मस्तिष्क की गतिविधियों को बाधित करतीं तथा संपूर्ण तंत्रिका को लकवाग्रस्त बनाती हैं। इनका प्रयाग प्रायः गंभीर स्थिति में ही सर्वसाधारण के लिए वाँछनीय माना गया है। यों मदिरा जैसे द्रव्य का कम मात्रा में प्रयोग से व्यक्ति दिन प्रतिदिन के तनावों और दुखों से मुक्त रहते हुए सक्रियता बढ़ाना चाहता है, पर इसके नियमित सेवन से शरीर और मस्तिष्क पर घातक असर पड़ता और उनकी कार्यक्षमता घटती है। इन दिनों लोगों की निर्भरता इस पर बढ़ी है। वे कुछ विलक्षण अनुभव के लिए इसका इस्तेमाल नहीं करते, वरन् जीवन की वास्तविकताओं से पलायन कर चिंता-मुक्त होने के लिए इसका प्रयाग करते हैं। यह वर्तमान समाज के लिए एक खतरे की घंटी है।

दूसरे वर्ग में चरस, गाँजा, भाँग, एस.एस.डी., मेस्कालिन तथा साइलोसिविन जैसे उन द्रव्यों को रखा गया है, जिनसे मूर्च्छा तो नहीं आती, पर एक मस्ती जैसी स्थिति हमेशा बनी रहती है। कदाचित इसी को चेतना का विस्तार मान लिया गया, पर यथार्थता ऐसी नहीं है। तंत्रिकाविज्ञान का अभिमत है कि ऐसे पदार्थों से संपूर्ण स्नायु संस्थान अल्प अंशों में अपनी सजगता खो बैठता है। यह चेतना का प्रसार नहीं, उसकी प्रखरता कुंद होने की प्रक्रिया भर है। इसके कारण बाह्य स्थिति-परिस्थिति से बेखबर व्यक्ति आनन्द जैसी अवस्था का अनुभव करने लगता और यह भ्रम पाल बैठता है कि वह चेतना की किसी उच्चतर भूमिका का स्पर्श करने लगा है। यदि ऐसे अनुभवों को सामान्य चेतना के प्रकाश में देखे, तो वे वास्तविकता से परे निरर्थक तथा बेतुके प्रतीत होंगे ओर ऐसा मालूम पड़ेगा, मानो यह किसी सनकी का अनर्गल प्रलाप है।

विलियम जेम्स इस संदर्भ में अपने ग्रंथ ‘दि वेरायटीज ऑफ रिलिजियस एक्सपिरियेंसेस’ में क्रिस्टोफर मेथ्यू का उदाहरण प्रस्तुत करते है। मेथ्यू का उदाहरण प्रस्तुत करते है। मेथ्यू अपने ऐसे ही एक अनुभव का बखान करते हुए कहता है-मुझे हर वस्तु के अंतिम सत्य की पूरी जानकारी प्राप्त हो चुकी, मैं ज्ञानसम्पन्न सर्वज्ञ हो गया। मैं अपने चिकित्सक के पास गया तथा उससे इसकी चर्चा की। उसने मुझसे मेरे अनुभव के बारे में पूछा। मैंने कहा कि वह सब कुछ केवल हरे रंग के प्रकाश जैसा था।”

इसे किसी स्वस्थ का नहीं, अर्धविक्षिप्त जैसा अनुभव कहना चाहिए। इसमें व्यक्ति अपना आत्म-नियंत्रण खो बैठता और ऐसी बहकी-बहकी बातें करता है, जिसका सत्य-तथ्य से शायद ही कोई वास्ता ही। तत्त्ववेत्ता इस स्थिति को खतरनाक बताते और कहते है कि यदि ऐसे पदार्थों का अप्रतिहत प्रयोग जारी रहा, तो मनुष्य के जीवन में एक आध्यात्मिक रिक्तता पैदा हो सकती है। अवसाद और उदासी इस हद तक बढ़ सकती है। कि वह जिंदगी से निराश हो जाए। समाज और संसार के नीरस होने और उमंग-उत्साह के मर जाने से जीवन का अर्थ और उद्देश्य लगभग समाप्त हो जाता है। यही है आत्मपरायण की स्थिति। इस दशा में व्यक्ति स्वयं के प्रति या तो बिलकुल लापरवाह हो जाता और किसी प्रकार जीवन की गाड़ी खींचता -घसीटता रहता है अथवा अपने आप को खत्म कर डालता है।

इसलिए ऐसे द्रव्यों के सेवन के प्रति सावधान करते हुए रॉबर्ट एस.डी. राँप अपनी कृति ‘दि मास्टर गेम’ में लिखते है कि जो लोग इन रसायनों का बिना सोचे-समझे प्रयोग करते है, वे अपने विकास की संभावनाओं का गला घोंट देते है। उनके आत्मोत्कर्ष का अंकुर सूख जाता है और आदमी ऐसे चौराहे पर आ खड़ा होता है, जहाँ से से वह अपने ही पतन-प्रवाह को मूकदर्शक की तरह देखता रह सकें।

सच तो यह है कि चेतनात्मक विकास के लिए किसी द्रव्य की नहीं, आध्यात्मिक अनुशासन को आवश्यकता है। यदि व्यक्ति ईश्वरपरायण होकर रहें और नीति-निष्ठा तथा ईमानदारी पूर्वक जीवनयापन करें, तो उसे उस आनंद से अनेकों गुना अधिक संतोष और आनंद की प्राप्ति होगी, जिसकी खोज वह मादक पदार्थों में करता है इसलिए ध्यान ही इनका वास्तविक विकल्प हो सकता है, नशा नहीं। चेतना का सही अर्थों में विकास और विस्तार इसी के माध्यम से शक्य है। सामान्य जीवन में भी यह उतना ही प्रभावकारी है, जितना उच्चस्तरीय साधना की स्थिति में। ध्यान के क्षेत्र में पिछले दिनों के अनुसंधानों का निष्कर्ष यह है कि नियमित रूप से इसका अभ्यास करने से जीवन की समस्याओं से पलायन करने के लिए मादक द्रव्यों के सेवन की इच्छा ही समाप्त हो जाती है। इसके अतिरिक्त शरीर और मन पर पड़ने वाले प्रभाव मादक द्रव्यों के असर से बिलकुल भिन्न है। अन्वेषणों से यह विदित हुआ है कि ध्यान की फलश्रुति व्यक्ति में सदा मानसिक एकाग्रता, बौद्धिक कुशलता तथा शारीरिक दक्षता के रूप में सामने आती है, जबकि नशीले पदार्थों से सुस्ती, आलस्य, अवसाद के साथ-साथ शरीर-मन को क्षमताओं में ह्रास और बिखराव होता है। इसके जो अनुभव है, वह इंद्रियजन्य, अस्थायी, बहिरंग तथा सतही होते है। इसके विपरीत ध्यान हमें अन्तर्यात्रा पर ले जाता है। वह हमें अपने शुद्ध स्वरूप की दर्शन-झाँकी कराता और बताता है कि व्यक्ति यदि उस तल पर स्थायी रूप से प्रतिष्ठित हो सकें, तो वह अंदर की दुनिया इतनी अद्भुत, अनुपम और अवर्णनीय आनंद की होगी कि उसके आगे बाह्य संसार एकदम नीरस और और उबाऊ प्रतीत होगा। ध्यान से व्यक्ति में आत्मनियंत्रण की क्षमता विकसित होती है, जबकि नशा उसे हर प्रकार से अनियंत्रित बना देता है। इसके प्रयोग की अनुमति स्वास्थ्य शास्त्री सिर्फ विशेष परिस्थितियों में ही देते है। व्यक्ति यदि बीमार हो, असह्य कष्ट पा रहा हो, तो राहत पहुँचाने की दृष्टि से इन पदार्थों का सामयिक प्रयोग अनुचित नहीं, किन्तु जब ये तथाकथित चेतना विस्तारक सामान्य उपयोग की वस्तु बन जाएँ और गम गलत करने के निमित्त प्रयुक्त होने लगें, तो इसे अशुभ संकेत माना जाना चाहिए। जो शुभ न हो, वह सात्विक परिणाम कैसे उत्पन्न कर सकता है? जिसके कण-कण में तामसिकता धुली हो, उससे अभीष्ट फल की आशा कैसे की जा सकती है? वह तो विचारों में आक्रामकता और भावनाओं में अपवित्रता ही उत्पन्न करेगा।

मादक द्रव्य मूर्च्छना पैदा करते है। उनसे न तो चेतना का ऊर्ध्वारोहण होता है, न कोई विशिष्ट आध्यात्मिक अनुभूति। बाह्य सजगता में कमी के कारण इस प्रकार की भ्रांति हो सकती है, पर नशा उतरते ही जल्द ही वह टूट भी जाती है। इसलिए यह अवधारणा पूरी तरह निरस्त हो जाती है कि नशीले पदार्थ हमें असाधारण भूमिका में ले जाते और अलौकिक अनुभव कराते है।

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