
श्रावणी (28 अगस्त) पर विशेष - चमक उठे राष्ट्रीय स्वाभिमान का महासूर्य इस पर्व पर
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परमात्मा की आकांक्षा ‘एकोऽहं बहुस्याम’ जिस दिन पूरी हुई, कहते हैं, उसका स्मरण ‘श्रावणी पर्व’ के रूप में मनाने का क्रम चला आ रहा है। अपनी विभूतियों को संतोष न हुआ, उन्हें विकसित-वितरित करने का संकल्प हुआ। उसके चिंतन के केन्द्र में- नाभिक से संकल्प जाग्रत हुआ- वही कर्मबेल के रूप में बढ़ा-विकसित हुआ। यही विष्णु की नाभि से कमलनाल निकलने का आलंकारिक प्रसंग है। कमलबेल से वैभव एवं घटनाक्रमों को पंखुड़ियाँ फूट पड़ती है। कमल की व्याख्या इसी रूप में की जा सकती है। इसी कमल के पराग का भ्रमण है- प्रजापति, जिसकी प्रजा के रूप में सृष्टि का विस्तार होता चला गया। परमात्मा की वह संकल्प और विकास की प्रवृत्ति जीवात्मा में भी है। उसे भी उसी प्रक्रिया पर चलना होता है।
सृष्टि का सृजन हुआ, उसमें दो तत्व प्रयुक्त हुए (1) ज्ञान, (2) कर्म। उन दोनों के सम्मिश्रण से सूक्ष्म चेतना संकल्प शक्ति स्थूल, वैभव में परिणत हो गई और इस संसार का विशाल कलेवर बनकर खड़ा हो गया। उस वैभव को अनेक धाराएँ, उसके अनेक स्वरूप ऋद्धि, यश-आनन्द-उल्लास के रूप में प्रकट हुए और सृष्टि के अंग-उपाँग बनते चले गए।
ज्ञान और कर्म के आधार पर ही मानवीय गरिमा का विकास हुआ। इन्हें जो जितना परिष्कृत और प्रखर बनाता चलता है, उसकी प्रगति पूर्णता की दिशा में उतनी ही अधिक तीव्र गति से होती है। इस तथ्य को भारतीय मनीषियों ने भली प्रकार समझा तथा जनसाधारण को भी उस दिशा में सोचते रहने के लिए, सतर्क रहने के लिए भावनात्मक व्यवस्था बनाई। भारतीय संस्कृति में इन दोनों तथ्यों को सतत् स्मरण में रखने के लिए दो प्रतीक चिन्ह हर श्रेयपथ के पथिक को अपने साथ रखने की नीति बनाई गयी। ये प्रतीक है- (1) शिखा (2) यज्ञोपवीत। ये दोनों ज्ञान और कर्म के ही प्रतीक हैं।
ज्ञान की प्रतीक शिखा ध्वजा रूप में शरीर मंदिर के उच्चतम भाग सिर पर फहराती रहती है तथा कर्म का प्रतीक यज्ञोपवीत शरीर को चारों ओर से लपेटे रहता है। शिखा-स्थापन तथा यज्ञोपवीत धारण जीवन के उन आदि उद्गम ज्ञान और कर्म को, जो आज तक भी अपनी उपयोगिता यथावत बनाए हुए है, परिष्कृत बनाए रखने की प्रेरणा के लिए भारतीय संस्कृति में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। श्रावणी पर्व इन्हीं दोनों के प्रतीकों का महत्व समझने के लिए आता है।
श्रावणी पर्व पर आत्मा की मूल वृत्ति की संतुष्टि के क्रम में जो व्यवधान आते हैं, उन्हें हटाने तथा व्यवस्थित क्रम को समझकर उस पर आगे बढ़ाने की प्रक्रिया चलाई जाती है। पिछले दिनों जो गलत क्रम चल पड़ा, उसको समझे-स्वीकार किए बिना उसको दूर कैसे किया जा सकता है तथा उससे विरत हुए बिना सही दिशा में उत्साहपूर्ण गति कैसे संभव होगी? इसके लिए प्रायश्चित संकल्प करते हैं-पिछली अवांछनीयता से विरत होने के लिए प्रायश्चित विधान पूरा करते हैं। उस दिन नया यज्ञोपवीत धारण करते हैं। शिखा-सिंचन करते हैं। यह उन दोनों का वार्षिक संस्कार है। राष्ट्रीय पर्व पर ध्वज का विशेष अभिवादन किया जाता है। उसी प्रकार शिक्षा-सिंचन और यज्ञोपवीत नवीनीकरण का क्रम श्रावणी पर्व पर निर्धारित रूप से किया जाता है। यह दो प्रकाश स्तंभ उपेक्षा के गर्त में न पड़े रह जाए, इसलिए इनका निरीक्षण- विश्लेषण आदि करना अति आवश्यक है।
इस अवसर पर वेद-पूजन तथा ऋषि पूजन भी किया जाता है। वेद आदि ज्ञान है। उसके प्रति आदरभाव बनाए रखना चाहिए। ऋषि उस दिव्य ज्ञान को सामयिक परिस्थितियों के अनुरूप व्यवहार्य कर्म में उतारने के लिए प्रबल पुरुषार्थ तय करने वाले विवेकी और साहसिक व्यक्तित्व है। उनके प्रति सम्मान का भाव जाग्रत हुए बिना उन पर आचरण हमारे लिए सम्भव कैसे होगा?
रक्षाबंधन और वृक्षारोपण का विधान भी इस पर्व के साथ जुड़ा हुआ है। राष्ट्रीय सुरक्षा और साँस्कृतिक संरक्षण का उत्तरदायित्व निभाना भारत देश के नागरिकों का अनिवार्य कर्तव्य है। इस प्रतीक के रूप में रक्षा-सूत्र बाँधा जाता है। उत्पादक श्रम, लोकमंगल की आस्थाओं का अभिवर्द्धन-पोषण आदि का प्रतीक वृक्षारोपण है।
कर्मकाण्ड का विस्तार आयोजन के स्वरूप के अनुसार किया जाना चाहिए साधनात्मक स्तर पर लोग एकत्र होकर सामूहिक आयोजन करें तो प्रायश्चित्त स्नान, पंचगव्य सेवन, तर्पण, आदि अनेक विधान कराने में कोई अड़चन नहीं है। यदि लोकशिक्षणात्मक स्तर का सामूहिक आयोजन है तो उसकी रूपरेखा भिन्न प्रकार से बनाई जानी चाहिए। उस प्रकार के आयोजनों में स्नान आदि के प्रकरण संभव नहीं, यदि वे शामिल किए जाएँगे तो लोकशिक्षण की व्यवस्था नहीं बनेगी। व्यक्तिगत या पारिवारिक स्तर के आयोजनों में आवश्यक समझे तो स्नान आदि के प्रकरण जोड़े जा सकते हैं। अन्यथा उन्हें करना कोई अनिवार्य नहीं है।
श्रावणी के सामूहिक आयोजन में भगवान विष्णु का चित्र, जिसमें उनकी नाभि से उत्पन्न कमल पर प्रजापति विराजमान् हैं, स्थापित करें। उसी का षोडशोपचार पूजन पुरुष सूक्त से किया जाए। सार्वजनिक रूप से उक्त कृत्य (1) शिखा-सिंचन (2) यज्ञोपवीत पूजन एवं धारण (3) हेमाद्रि संकल्प (4) वेद एवं ऋषि पूजन, (5) रक्षाबंधन, (6) वृक्षारोपण आदि आदि किए जाए। चंदन मिश्रित सुगंधित जल से शिखा भिगोयी जाए। यज्ञोपवीत में देव आह्वान और पूजन के बाद उसे धारण किया जाए। जो भी शरीरगत, मानसिक, सामाजिक पाप गतवर्ष बन पड़े हों, उन्हें हेमाद्रि संकल्प के साथ स्मरण किया जाए तथा पुनः न होने देने की शपथ ली जाए। पिछली भूलों से समाज की हुई क्षतिपूर्ति के लिए लोकमंगल की दिशा में कुछ विशेष अनुदान प्रस्तुत करने का निर्णय किया जाए, ताकि पापों के मुकाबले पुण्य खड़ा होकर उसकी भरपाई कर सके। वेद की पुस्तक तथा ऋषियों की प्रतीक चावलों की ढेरी या कुशों पर पुष्प-चंदन की श्रद्धांजलि चढ़ाई जाए।
रक्षाबंधन सूत्र (कलावा) को पुरोहित या बहिनें सबकी कलाइयों पर बाँधें। देश समाज और संस्कृति की रक्षा के लिए यह एक चुनौती एवं प्रेरणा का प्रतीक सूत्र है। इसे इसी भावना के साथ स्वीकार-अंगीकृत किया जाए। वृक्षारोपण किसी प्रतिष्ठित या वयोवृद्ध व्यक्ति से प्रतीक के रूप में कराया जाना चाहिए। इसके लिए कुछ अधिक नहीं तो तुलसी का पौधा लिया जा सकता है। साथ ही उपस्थित जनसमुदाय को प्रेरणा दी जाए कि इस पर्व पर अधिक नहीं तो कम-से-कम एक वृक्ष आरोपित करके उसे देख-रेख पूर्वक जीवित रखा जाए। पौधा लगा देने मात्र की लकीर पीटना उचित नहीं, इसके साथ पालन-पोषण की भी जिम्मेदारी जुड़ी है। घर-घर तुलसी अभियान भी चलाया जा सकता है।
प्रवचनों के माध्यम से अथवा कर्मकाण्ड की व्याख्या करते हुए आज के राष्ट्रीय एवं सामाजिक-साँस्कृतिक सत्यों को भावपूर्ण ढंग से समझाया बताया जाना चाहिए। इसी के साथ शिक्षा सम्बन्धी बात, यज्ञोपवीत के नौ धागों, उसके साथ जुड़े उत्तरदायित्वों का बोध कराया जा सकता है। यहाँ यह बात विशेष रूप से स्पष्ट करनी होगी कि पाप कर्मों का प्रायश्चित छुटपुट स्नान पर्यटन जैसे कृत्यों से नहीं बल्कि समाज की क्षतिपूर्ति के लिए दिये जाने वाले अनुदानों से होता है। अमीरी नहीं, महानता का चयन ही बुद्धिमत्तापूर्ण है। यह बात किसी आदर्श प्रेमी ऋषि अथवा महापुरुष एवं भ्रष्ट वैभवशाली की तुलना करके समझाई जा सकती है। रक्षाबंधन के प्रसंग में देश-धर्म-संस्कृति-रक्षण की बात से लेकर नारी-समाज के प्रति अपना दृष्टिकोण शुद्ध करने की अनेक बातें कही जा सकती है।
अपने-अपने क्षेत्र की परिस्थितियों एवं मौसम की रूपरेखा के मुताबिक़ कार्यक्रम का संयोजन एवं क्रियान्वयन करना चाहिए। इस वर्ष श्रावणी पर्व मनाते वक्त यह ध्यान रहे कि वर्तमान राष्ट्रीय परिस्थितियों में इसका महत्व पहले से कई गुना अधिक हो गया है। बहिनों की राखी ही भाइयों के शौर्य, तेज एवं बलिदानी भावनाओं का उद्रेक करती है। इस बार यह उद्रेक कुछ ऐसा उठे कि राष्ट्रीय स्वाभिमान का महासूर्य चमक उठे। यह चमक ऐसी हो कि भारत की ओर कलुषित दृष्टि से देखने वालों के नेत्र ज्योतिविहीन हो जाए।