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इन दिनों महाविनाश और महासृजन आमने-समाने खड़े है इनमें से एक का चयन सामूहिक मानवीचेतना को करना ही पड़ेगा। उस चेतना को, जिसका प्रतिनिधित्व जाग्रत और वरिष्ठ प्रतिभा करती रही है। ऐसी प्रतिभाएँ जो प्रामाणिकता एवं प्रखरता से सुसम्पन्न हो उन्हीं को युग समन्वय का निर्णायक भी कहा जा सकता है।
क्योंकि उसे जानी तो नहीं, पढ़ी थी, देखो तो नहीं, सुनी थी। वह अपना बोध नहीं, किसी और का अनुभव था। इसलिए कबीर कहते है कि इस लिखालिखी के ज्ञान से काम चलने वाला नहीं, वह देखादेखी जैसा प्रत्यक्ष होना चाहिए। यदि लिख-पढ़ लेने मात्र से ही समस्त ज्ञान उपलब्ध हो जाता, तो फिर तप को, ध्यान की, साधना की क्या उपादेयता रह जाती? फिर तो सब कुछ अत्यंत सरलतापूर्वक संपन्न हो जाता। तब कोई अंधा भी पढ़ सुनकर प्रकाश हस्तगत कर लेता, पर यह संभव है क्या? नहीं। मनुष्य ने प्रकाश के संबंध में जो कुछ खोजे की है, वह सब कुछ यदि वह अपने मस्तिष्क में भर ले, उसकी संपूर्ण भौतिकी समझ ले, उत्पत्ति संबंधी सारी प्रक्रिया जान ले, तो इस पर भी क्या उसकी आँखें प्रकाश की एक क्षीण किरण भी उपलब्ध कर सकेगी कि वह दो कदम चल सके? उत्तर सदा नहीं में देना पड़ेगा।
तो फिर उपाय क्या है? कबीर कहते है-देखादेखी बात।” इससे कम में काम चलने वाला नहीं। आँखें खोलनी ही पड़ेगी। बाहर की वस्तुओं को देखने के लिए बाहर की आँखें है। उसी प्रकार भीतर के प्रकाश को देखने के लिए भीतरी नेत्र है। योग का यह अंतिम अनुसंधान है कि जितनी क्षमताएँ बाहर है, उससे किसी भी प्रकार कम अंदर नहीं अपितु ज्यादा ही है, कारण कि हर चीज के दो पहलू होते है। दूसरा पहल-अदृश्य पहलू पहले की तुलना में कम महत्वपूर्ण है, सो बात नहीं। वह भी उतना ही आवश्यक और उपयोगी है, अस्तु जब हम नेत्रों से बाहरी संसार को देखते है, तो उसका मतलब स्पष्ट है कि इसका दूसरा छोर और किनारा भी होना चाहिए। वह आँख भी होनी चाहिए, जिससे अंतर्जगत् को देखा जा सके। कान बाहर के शब्द सुनते है, तो वे कर्ण भी जरूर होंगे, जिससे अंतरात्मा की आवाज सुनी जा सकें। हाथ का काम स्पर्श करना है, तो निश्चय ही अंतस् में भी स्पर्श की यह सामर्थ्य होगा जिससे हम स्वयं का अनुभव-स्पर्श कर सकें, अन्यथा बात बड़ी विचित्र मालूम पड़ेगी कि हम औरों का तो अनुभव कर लेते है। अपना अनुभव नहीं कर सकते। सारी दुनिया को देख लेते है, स्वयं को नहीं देख पाते। बाहर के कोलाहल तो सुन सकते है, किन्तु अंदर का अनहद नाद नहीं सुनाई पड़ता।
कबीर कहते है कि इसके लिए अंदर की सूक्ष्म इंद्रियों को जगाना पड़ेगा, जो सीधे भीतर की और खुलती है, तभी अंतर्जगत् का दर्शन-स्पर्श संभव है अंतस् में तो कोई शास्त्र है नहीं कि उसे पढ़ लें, कोई वेद-कुरान नहीं कि उसे जानकर भीतर के संसार को जान लें। वहाँ तो सिर्फ आत्मा है, जो पढ़ने या जानने की वस्तु नहीं देखने की, अनुभव करने की चीज है। जब आँतरिक नेत्र भीतर के उस परमतत्व आत्मा को देख लेते हैं, तो कबीर उस घटना को ‘देखादेखी बात’ कहकर वर्णित करते है। लिखालिखी-यह बाह्य संसार की घटना है वहाँ इतने से भी बात बन जाती है, शब्द और शास्त्र से काम चल जाता है जीवन-नौका को खेने के लिए इतना भर पर्याप्त है, लेकिन भीतरी जगत में इनका कोई अर्थ नहीं। वहाँ यह निरर्थक और निष्प्रयोजन है। उसके लिए इन्हें त्यागना पड़ेगा। इसका यह मतलब नहीं कि शास्त्र बेकार है। उसमें उन्हीं के वचन है, जिनने उस परमतत्व को प्रत्यक्ष किया था, किंतु अब तो वे उपदेश और शब्द मात्र है दर्शन और अनुभव तो द्रष्टा के पास हो रह जाते है, शब्द के साथ तो वे आते नहीं। इसलिए उन्हें अब छोड़ना पड़ेगा। यही दर्शन और अनुभूति की और पहला कदम है।
‘दूल्हा दुल्हन मिल गए, फीकी पड़ी बरात’। पद का यह अंतिम चरण अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रतीक की भाषा में कहा गया है। दूल्हा परमात्मा का प्रतीक है और दुलहन आत्मा का। दूल्हा जब बारात लेकर आता है तब बारात बड़ी महत्वपूर्ण होती है, किंतु दूल्हा-दुलहन के मिल जाने के बाद विवाह हो जाने के पश्चात् फिर बारात की कौन चिंता करते है। बारात की प्रासंगिकता तभी तक है, जब तक शादी न हुई हो, वरमाला न डली हो, गठबंधन न हुआ हों।
कबीर कहते है कि शास्त्र और शब्द ऐसी बारात की तरह है। जब आत्मा-परमात्मा का मिलन हो गया, मनुष्य आत्मज्ञ हो गया, तो फिर वेद-पुराण में क्या रखा है? सब बेकार है।
इनकी उपादेयता तभी तक है, जब तक दुलहन अर्थात् आत्मा के द्वार तक न पहुँचे थे। वहाँ तक यह पहुँचा दें, तो पर्याप्त है, बारात का काम कर दें, काफी है। इसके बाद तो बात ही समाप्त हो जाती है। व्यक्ति पार कर गया, फिर नदी-नाव की कौन चिंता करता है पुल से गुजर गए, फिर उसे कौन स्मरण रखता है इसलिए कबीर प्रतीक की भाषा बोलते हुए कहते है-दूल्हा दुल्हन मिल गए, फीकी पड़ी बरात।
कबीर लोककवि है। उनके पदों की यह विशिष्टता है कि वे जीवन के सामान्य प्रसंगों के माध्यम से इतनी गंभीर बात कह देते है, जो सभी के लिए सहज बोधगम्य हो। वे स्वयं में सार्वकालिक-सार्वदेशिक सत्य सँजोए हुए है, अतएव उनकी प्रासंगिकता अब भी यथावत बनी हुई है। हमें उसका स्मरण रखना चाहिए।
आचारः प्रथमों धर्मो, नृणां श्रेयस्करो महान-मनुस्मृति
उत्तम आचार ही सबसे पहला धर्म है और मनुष्यों के लिए महान कल्याणकारी है।