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Magazine - Year 2002 - Version 2

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देव संस्कृति के ज्योति स्तंभ बनेंगे ये संकाय

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विश्वविद्यालय के संकाय देव संस्कृति के ज्योति स्तम्भ हैं। यहीं से ज्ञान-विज्ञान की प्रकाश धाराएं बहेंगी। साँस्कृतिक चेतना यहीं से अपना विस्तार पाएँगी। यहीं से जन्मी ऊर्जा से अनेकों ऊर्जावान बनेंगे। विद्या-विस्तार की योजनाएँ यहीं अपना व्यवस्थित रूप और आकार पाएँगी। देव संस्कृति के उद्देश्य यहीं पर अपनी विशिष्ट पहचान गढ़ेंगे। विश्वविद्यालय की विद्या व्यवस्था संकायों में विभाजित होकर ही ऋषि संस्कृति के हर पहलू को एक नया मौलिक स्वरूप देगी। अध्ययन-अध्यापन की विधि व्यवस्था की सम्पूर्ण संरचना इन्हीं संकायों के साँचों से ही गढ़ी-ढाली जाएगी।

विश्वविद्यालय की विद्या व्यवस्था का संकायों या फैकल्टीज़ में विभाजन नया नहीं है। यह हमारी ऋषि संस्कृति की देन है, पुरातन ऋषियों द्वारा स्थापित की गयी विद्या व्यवस्था की परम्परा है। इतिहासवेत्ता डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी ने अपनी पुस्तक ‘एंशियन्ट इण्डियन एजुकेशन’ में ऐसे कई प्रमाणों का खुलासा किया है। महाभारत आदि पौराणिक ग्रन्थ भी इसका संकेत करते हैं। इस सभी वर्णन-विवरण के अनुसार ऋषियों द्वारा स्थापित विश्वविद्यालयों में कुलपति विद्या व्यवस्था को संकायों में विभाजित एवं सुव्यवस्थित करते थे। एक विश्वविद्यालय में प्रायः चार से आठ संकायों का विधान था। इन संकायों का कार्य-भार संकायाध्यक्ष सम्भालते थे। इनकी नियुक्ति का अधिकार कुलपति को था।

प्राचीन ग्रन्थों में संकायों को स्थान की संज्ञा दी गयी है। एक स्थान में ज्ञान की उस विशेष धारा से सम्बन्धित कई विषय पढ़ाएँ जाते थे। इनमें से प्रत्येक विषय को पढ़ाने के लिए कई आचार्य होते थे। प्रत्येक विषय के विभाग की जिम्मेदारी विभागाध्यक्ष सम्भालते थे। और अपने विभागीय कार्यों का ब्योरा संकायाध्यक्ष या स्थानाध्यक्ष को देते थे। इस प्राचीन ऋषि व्यवस्था का उद्देश्य यही है कि विश्वविद्यालय की विद्या-व्यवस्था सुचारु ढंग से चलती रहे। साथ ही ज्ञान-विज्ञान के प्रत्येक पहलू, प्रत्येक आयाम का स्वतन्त्र विकास होता रहे। ज्ञान के प्रत्येक पादप में नयी कलियाँ और कोपलें फूटती रहे। संकायाध्यक्ष अपनी संकाय भूमि में उनके लिए आवश्यक खाद-पानी जुटाते रहते थे।

प्राचीन ऋषियों ने जिन आठ संकायों या स्थानों का विधान बनाया था वे- 1. अग्नि स्थान, 2. ब्रह्म स्थान, 3. विष्णु स्थान, 4. महेन्द्र स्थान, 5. विवस्वत स्थान, 6. सोम स्थान, 7. गरुड़ स्थान एवं 8. कार्तिकेय स्थान थे। इनमें से अग्नि स्थान- में यज्ञ विज्ञान से सम्बन्धित अनेक विषयों का अध्ययन-अध्यापन एवं शोध कार्य सम्पन्न किया जाता था। ब्रह्म स्थान- वैदिक विषयों एवं ब्रह्मविद्या के अध्ययन एवं शोध का संकाय था। विष्णु स्थान में सभी व्यावहारिक विषयों की शिक्षा दी जाती थी। महेन्द्र स्थान- में शस्त्र-अस्त्र सम्बन्धी विषय पढ़ाए जाते थे। विवस्वत स्थान- गणित एवं फलित ज्योतिष एवं तत्सम्बन्धी विषयों के अध्ययन का संकाय था। सोम स्थान- वनस्पति शास्त्र एवं आयुर्वेद से सम्बन्धित विषयों का संकाय था। गरुड़ स्थान- में सभी तरह के वाहनों, परिवहनों एवं तत्सम्बन्धी सड़क-पुल आदि निर्माण के सभी विषयों की शिक्षा दी जाती थी। कार्तिकेय स्थान- में सैनिक संगठन से सम्बन्धित सभी विषयों के अध्ययन की व्यवस्था की गयी थी।

देव संस्कृति विश्वविद्यालय में विद्या व्यवस्था का यही साँस्कृतिक स्वरूप अभिनव ढंग से स्थापित किया गया है। यहाँ की विद्या व्यवस्था की सम्पूर्ण संरचना चार संकायों में विभाजित की गयी है। इन चार संकायों को देव संस्कृति की चतुर्मुखी प्रगति का पर्याय माना जा सकता है। ये देव संस्कृति के भावी विस्तार की चार दिशाएँ हैं। यही ऋषियों के चार साँस्कृतिक पुरुषार्थ हैं। इन्हें संस्कृति साधना के चार अनुबन्ध भी कहा जा सकता है। कथन का सार संक्षेप इतना है कि देव संस्कृति विश्वविद्यालय के चारों संकाय साँस्कृतिक चेतना के क्रियाशील कीर्तिस्तम्भ के रूप में स्थापित किए गए हैं। इनकी क्रियाशीलता में ही देव संस्कृति का भावी विस्तार निहित है। इन्हीं के द्वारा साँस्कृतिक मूल्यों की प्रयोग-प्रक्रियाएँ पनपेगी। जीवन मूल्यों का विस्तार होगा।

प्रत्येक संकाय के सभी क्रिया-कलापों का दायित्व संकायाध्यक्ष या डीन पर होगा। उसकी नियुक्ति कुलाधिपति से सहमति लेकर कुलपति स्वयं करेंगे। संकायाध्यक्ष या डीन का कार्यक्षेत्र विस्तृत है। उनके आधीन शैक्षिक एवं प्रशासनिक कई गतिविधियाँ होगी। प्रत्येक डीन के अधिकार क्षेत्र में उनके संकाय से सम्बन्धित सभी विभाग होंगे। इन विभागों के सभी विभागाध्यक्ष अपने विभागीय कार्यों का ब्योरा उन्हें देंगे। विभाग के अध्यापन एवं शोध सम्बन्धी कार्यों के लिए विभागाध्यक्ष को आवश्यक निर्देश देना डीन का ही दायित्व है। डीन को अपने संकाय के सभी विभागों का कार्य-ब्यौरा विश्वविद्यालय के कुलपति को समय-समय पर देना होगा। संकायाध्यक्ष या डीन का दायित्व होगा कि उनके संकाय की समस्त गतिविधियाँ उन सभी उद्देश्यों के लिए संकल्पित, समर्पित एवं प्रतिबद्ध रहें, जिनके लिए संकाय की स्थापना की गयी है।

विश्वविद्यालय के चारों संकाय किसी बंधी बंधायी लीक या घिसी-पिटी लकीर पर चलते रहने के लिए नहीं बनाए गए हैं। इनकी उर्वरता में कुछ न कुछ नया-विशेष जन्मता, पनपता एवं विकसित होता रहेगा। संकाय की उर्वर भूमि में नए विषय, नए विभाग एवं इनके नए आयाम अपना अस्तित्त्व पाते रहेंगे। संकाय के उद्देश्यों के व्यापक दायरे में नए विषयों एवं उनके पाठ्यक्रमों की संरचना करना उस संकाय के आचार्यों की जिम्मेदारी है। संकायाध्यक्ष या डीन इस कार्य में उनकी सम्यक् सहायता करते रहेंगे।

प्राचीन समय में चौसठ कलाएँ एवं चौदह विद्याएँ इसी तरह विकसित हुई थीं। बाद में ये विद्याएं चौदह से विकसित होकर चौबीस हो गयीं। ऐतिहासिक युग के नालन्दा विश्वविद्यालय में जिस समय जीवक ने चिकित्सा शास्त्र का अध्ययन किया, उस समय वहाँ चिकित्सा या स्वास्थ्य संकाय में छोटे-बड़े 140 विभाग एवं उपविभाग थे। नालन्दा के स्वास्थ्य संकाय में स्वास्थ्य से सम्बन्धित अनेकों पाठ्यक्रमों का संचालन होता था। आचार्य गुणमति इस संकाय के संकायाध्यक्ष या आधुनिक भाषा में डीन थे। उनकी कुशल प्रशासनिक क्षमता एवं विद्यानुराग के कारण नालन्दा विश्वविद्यालय के स्वास्थ्य संकाय ने विश्व व्यापी कीर्ति अर्जित की थी।

यही स्थिति वहाँ के साधना संकाय की थी। वहाँ के कुलपति आचार्य शीलभद्र, साधना संकाय के संकायाध्यक्ष भी थे। वे स्वयं योगशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित थे। ऐतिहासिक विवरण के अनुसार चीनी यात्री ह्वनत्साँग ने उन्हीं से योग साधना की शिक्षा पायी थी। इस संकाय में शताधिक विषयों एवं विभागों की गतिविधियाँ संचालित होती थी। देव संस्कृति विश्वविद्यालय में- 1.साधना संकाय, 2. स्वास्थ्य संकाय, 3. शिक्षा संकाय, 4. स्वावलम्बन संकाय की स्थापना भी साँस्कृतिक चेतना एवं विद्या के बहुआयामी विस्तार के लिए की गयी है। अपने उद्देश्यों के अनुरूप सतत् सृजन, संवर्द्धन, शिक्षण एवं शोध में ही प्रत्येक संकाय की गुणवत्ता एवं अर्थवत्ता समायी है। इनमें से प्रथम स्थान साधना संकाय का है। यही विद्या विस्तार की आधारभूमि है। साधना की नींव पर ही यहाँ विद्या विस्तार का भव्य भवन खड़ा होना है।

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