
सृजन संवेदना की दिव्यता का शिक्षण देने वाला संकाय
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शिक्षा संकाय के पाठ्यक्रमों की धुरी देव संस्कृति है। इसके गहरे अर्थबोध के साथ, इसमें संजोये ज्ञान-विज्ञान एवं देश की धरती व विश्व वसुधा में बसे जन-जन को इसकी पहचान कराने के मकसद से इन पाठ्यक्रमों का ताना-बाना बुना गया है। इसमें ऋषियों के चिन्तन के साथ उनकी प्रयोगवादी परम्परा भी है। इनमें अतीत के चिन्तन के साथ भविष्य का सृजन भी है। सृजन-संवेदना ही तो संस्कृति है। जो सृजन संवेदना से युक्त है, वह सुसंस्कृत है। इसके विपरीत जो कोई भी है, जहाँ भी है, उसके लिए कोई सुसंस्कृत से विपरीत शब्द ही ढूंढ़ना पड़ेगा। क्षमा याचना के साथ उसके व्यक्तित्व को विकृत ही कहना पड़ेगा। उसकी विकृति में सुधार तभी सम्भव है- जब उसका संस्कृति से परिचय हो। सृजन-संवेदना उसमें प्रवाहित हो। सृजन संवेदना की दिव्यता ही तो देव संस्कृति है। यही इस शिक्षा संकाय के पाठ्यक्रमों का केन्द्र बिन्दु है।
इन पाठ्यक्रमों की विषय वस्तु को कुछ बिन्दुओं में समझा जा सकता है- 1. देव संस्कृति का स्वरूप एवं अर्थबोध, 2. इसे अभिव्यक्ति एवं विस्तार देने के लिए देश व विदेश की विभिन्न भाषाएँ, 3. दर्शन, शिक्षा व साहित्य के रूप में इसके ज्ञान को प्रकट करने वाले अनेकों आयाम, 4. ज्योतिष, कर्मकाण्ड समेत इसके विविध वैज्ञानिक पहलू, 5. आधुनिक विज्ञान की कुछ विशेष धाराएँ जो देव संस्कृति के भविष्य को संवारने-निखारने एवं नया मनुष्य को गढ़ने में सहायक हैं।
इन बिन्दुओं के विस्तार में पहला क्रम देव संस्कृति का है। जिसका बोध कराने के लिए इस विश्वविद्यालय की स्थापना की गई है। देव संस्कृति प्राचीन भारत के ऋषियों द्वारा समूची मानव जाति को दिया गया सबसे बड़ा अनुदान है। दरअसल यह जीवन का विज्ञान है। जीवन के अर्थ, महत्त्व एवं उपलब्धियों को साकार करने वाली वैज्ञानिक प्रक्रिया है। पर कालक्रम में इसका अर्थ विकृत हो गया है। आज की युवा पीढ़ी संस्कृति का जो अर्थ समझती है, उसमें तो विकृति ही विकृति है, संस्कृति तो कहीं है ही नहीं। इस दुःख भरी विडम्बना को हटाने-मिटाने के लिए विचारशीलों, विवेकवानों को अपने समस्त प्रयास, पुरुषार्थ झोंक देने की जरूरत है। क्योंकि देश के युवा संस्कृति के संस्कृत शब्द से ही नहीं इसका अंग्रेजी पर्याय समझे जाने वाले कल्चर से भी अनभिज्ञ हो गए हैं। यह कल्चर भी तो कल्टीवेशन यानि की सृजन का द्योतक है। परन्तु यह सब अर्थ न जाने कहाँ जा छुपे हैं, जो प्रकट है वह तो अनर्थ ही है। इसे हटाने मिटाने के लिए देव संस्कृति का सत्य समझना अति आवश्यक है। इसी उद्देश्य से देव संस्कृति का स्वरूप एवं अर्थबोध बताने वाले स्नातक एवं स्नातकोत्तर स्तर के पाठ्यक्रम तैयार किए जा रहे हैं।
दूसरा क्रम भाषाओं का है। इन्हीं से संस्कृति का संचार सम्भव है। भाषा के पहचान के अभाव में देश की धरती भी बटी-बटी लगती है। अपने भी बेगाने लगते हैं। भाषा का परिचय प्रगाढ़ हो तो विश्व वसुधा के विस्तार में अपना कुटुम्ब नजर आता है। पराए देश के लोग अपने कुटुम्बी एवं स्वजन समझ में आते हैं। ऐसी दशा में भाषाओं का ज्ञान अनिवार्य है। इसी अनिवार्यता को पूरी करने के लिए विश्वविद्यालय में भाषाओं पर आधारित प्रमाणपत्र, डिप्लोमा, स्नातक एवं स्नातकोत्तर के अलग-अलग पाठ्यक्रम पढ़ाए जाएँगे। जिन भाषाओं को पढ़ाया जाना निश्चित हुआ है, उनमें भारत की प्रायः सभी भाषाएँ तमिल, तेलगु, मलयालम, उड़िया, बंगला, गुजराती, असमिया आदि हैं। विदेशी भाषाओं में अंग्रेजी के अलावा फ्रेंच, जर्मन, रशियन, स्पेनिश आदि भाषाओं का ज्ञान कराए जाने की योजना है। देश और विश्व की विविध भाषाओं के माध्यम से साँस्कृतिक संवेदना के संचार और प्रसार के उद्देश्य पूर्ण होंगे।
तीसरा महत्त्वपूर्ण बिन्दु- दर्शन, शिक्षा प्रणाली एवं साहित्य के विविध रूपों का है। ये सभी देव संस्कृति की ज्ञान धाराएँ हैं। प्रायः सभी विश्वविद्यालयों में इनका किसी न किसी रूप में अध्यापन एवं शिक्षण होता है। परम पूज्य गुरुदेव ने इन सभी ज्ञान की धाराओं में अपना प्राण-प्रवाह उड़ेला है। उन्होंने इन सभी आयामों में बहुत कुछ नए का सृजन किया है। उनके इस नवीन सृजन पर आधारित देश भर के विश्वविद्यालयों में अनेकों शोध कार्य हो चुके हैं। और अनेकों अभी हो रहे हैं। यह शोध-सिलसिला सदा जारी रहने वाला है। इन शोध उपलब्धियों एवं गुरुदेव की नवीन दृष्टि के आधार पर तीसरे बिन्दु के दायरे में पाठ्यक्रमों का निर्माण होगा। ये पाठ्यक्रम विश्व दर्शन, विश्व धर्म एवं विश्व साहित्य के उद्देश्यपूर्ण शिक्षण को ध्यान में रखते हुए बनाए जाएँगे। इनमें ऋषियों, मनीषियों, धर्म संस्थापकों की मौलिक दृष्टि के साथ, परम पूज्य गुरुदेव की जीवन दृष्टि का समन्वय सम सामयिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए होगा।
चौथे बिन्दु में देव संस्कृति की वैज्ञानिक धाराएँ हैं। इसमें ज्योतिष सहित अनेकों पक्ष हैं। आज के दौर में ये सभी पक्ष वैज्ञानिक प्रयोग और इसके निष्कर्षों से प्राप्त सिद्धान्त न रहकर मूढ़ता को पोषित करने वाली घिसी-पिटी रूढ़ियां बनकर रह गए हैं। इनके माध्यम से लोगों की भावनाओं का शोषण बहुतायत में किया जा रहा है। स्थिति यह बनी है कि आज यह ऋषियों की वैज्ञानिक विरासत दो पाटों में दबकर पिस रही है। एक वे हैं, जो इसे यथास्थिति में स्वीकारने के हिमायती हैं, और दूसरे वे हैं जो इसे कूड़े के ढेर में फेंकने की वकालत करते हैं। गलत दोनों ही हैं। निदान इसके सच को वैज्ञानिक ढंग से परखने, जानने एवं अपनाने में है। देव संस्कृति विश्वविद्यालय में यही किया जाना है। ज्योतिष ही नहीं भारतीय संस्कृति के और भी तंत्र आदि जो वैज्ञानिक पहलू हैं, समय के साथ उन्हें नव जीवन दिया जाएगा। उन्हें इस रूप में प्रतिष्ठित एवं प्रमाणित किया जाएगा कि विज्ञान का थोथा सहारा लेकर इन्हें नकारने वाले खुली आँखों से इनकी वैज्ञानिकता को सौ बार-हजार बार प्रयोगों की कसौटी पर परखने और सत्य को स्वीकारने के लिए विवश हों।
पाँचवाँ बिन्दु- आधुनिक विज्ञान के पाठ्यक्रमों के बारे में है। आधुनिक विज्ञान की पद्धतियों एवं प्रयोगों को समझना युग की माँग है। उज्ज्वल भविष्य के सृजन के लिए प्रतिबद्ध यह विश्वविद्यालय आधुनिक विज्ञान के उपयोगी पाठ्यक्रमों को लागू करने के लिए कटिबद्ध है। मानव मन की वर्तमान विखण्डित दशा को समझने के लिए मनोविज्ञान का अध्ययन जरूरी है। इसके आधुनिकतम सिद्धान्तों को जाँच-परखकर ही उसमें सुधार लाया जा सकता है। यही हाल पर्यावरण जैसे प्राकृतिक संकट का है। इसके वैज्ञानिक अध्ययन के लिए विश्वविद्यालय में नवीन पाठ्यक्रम बनाए जाएँगे। इसी भाँति औषधीय वनस्पतियों के व्यापक अध्ययन के लिए वनस्पतिशास्त्र का ज्ञान जरूरी है। इस जरूरत को पूरा करने के लिए मेडिसिनल बाँटनी पर स्नातक एवं स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम बनाए जाएँगे।
विज्ञान के इस परिदृश्य में सामाजिक एवं साँस्कृतिक पहलुओं को भी शामिल किया जाएगा। सामाजिक विघटन एवं विलगाव के बारे में मानव प्रकृति का अध्ययन, उसमें आयी विकृतियों के निदान से सम्बन्धित पाठ्यक्रमों के निर्माण की योजना को महत्त्वपूर्ण माना गया है। यही बात मानव के साँस्कृतिक अस्तित्त्व की पहचान कराने वाले पुरातत्त्व के वैज्ञानिक पहलुओं के बारे में है। नृतत्त्वविज्ञान की अंधकारपूर्ण मान्यताओं के बारे में भी प्रकाश उड़ेलने की आवश्यकता है। कथन का सार इतना ही है कि शिक्षा संकाय के पाठ्यक्रमों के निर्माण में आधुनिक विज्ञान की महत्ता किंचित भी न्यून नहीं मानी गयी है। हाँ इतना अवश्य है कि शिक्षा संकाय की व्यापकता का विस्तार शनैः−शनैः किन्तु ठोस रूप में होगा। इसके विकास की गति के साथ-साथ ही स्वावलम्बन संकाय के पाठ्यक्रमों की नीति का निर्धारण किया जाएगा।