
दिशावान, तनावमुक्त, व्यक्तित्ववान विद्यार्थी ही होगा मूल केन्द्र में
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विश्वविद्यालय का विद्यार्थी जीवन कई अर्थों में अनूठा एवं अनोखा है। यह व्यक्तित्व के समग्र एवं सम्यक् विकास का सार्थक प्रयोग है। देव संस्कृति के सत्यों एवं तत्त्वों को यहाँ प्रकट होना है। विश्वविद्यालय में विद्याभ्यास करने वाले विद्यार्थियों के व्यक्तित्व को इस ढंग से विकसित किया जाना है कि उनकी सम्पूर्ण मौलिकता उनमें प्रकाशित हो उठे। यह काम आसान नहीं है। घिसी-पिटी लकीरों एवं बंधे-बंधाए ढर्रे पर चलने से यह मुमकिन नहीं। इसके लिए कुछ नए उपाय करने पड़ेंगे, कई नए प्रयोग करने पड़ेंगे। विद्यार्थियों के जीवन को सभी ग्रन्थियों, सारे आन्तरिक बन्धनों से मुक्त करने के लिए अध्यात्म विद्या की आवश्यक वैज्ञानिक प्रक्रियाएँ अपनायी जाएँगी।
ये प्रयोग और प्रक्रियाएँ आसान नहीं हैं। पर इन्हें किए बिना भी गुजारा नहीं है। इसके बिना विद्यार्थी उस मानसिक बोझ और जटिल बन्धनों से छुटकारा नहीं पा सकते, जिसे वे ढो रहे हैं, जिसमें वे कसे-बंधे हैं। यह काम स्नायविक शल्य-चिकित्सा से भी ज्यादा कठिन है। लेकिन इस कठिन कार्य को यहाँ आसानी से किया जाएगा। क्योंकि देश के युवाओं को यदि जीवन की सही दिशा मिल सकी, तो देश को सही दिशा मिलेगी। आज देश यदि विपत्तिग्रस्त है, तो उसका कारण यही है कि देश के युवा विपत्ति में हैं। वे हारे-थके और दिग्भ्रमित हैं। उन पर भटकन इस कदर हावी है कि हताशा में आत्महत्या तक कर बैठते हैं।
युवाओं की इस विपत्ति को देव संस्कृति विश्वविद्यालय के संचालकों ने समझा है। और उनकी मानसिक ग्रन्थियों को खोलने के लिए आवश्यक आध्यात्मिक उपायों को जुटाने का संकल्प किया है। इस क्रम में सबसे पहली बात है- अहंकार की दौड़ की समाप्ति। सामान्य रीति-नीति यही है कि विद्यार्थियों को विद्यालय जीवन से ही एक गलाकाट प्रतियोगिता में उलझा दिया जाता है। इस प्रतियोगिता में जो उत्तीर्ण होते हैं, वे अहंकार के उन्माद से भर जाते हैं। जो अनुत्तीर्ण होते हैं वे आत्महीनता और हताशा की खाइयों एवं गड्ढों में गिर जाते हैं। कुल मिलाकर अपने जीवन के विकास में दोनों ही असफल रहते हैं। इस प्रतियोगिता की भागम-भाग में अपने जीवन की मौलिकता तो एकदम बिसर जाती है। एक दूसरे को पीछे छोड़ने और आगे निकलने की धुन में अपनी स्वयं की जिन्दगी कब खो गई पता ही नहीं चलता। विद्यालय से विश्वविद्यालय तक की इस अन्धी दौड़ में विद्यार्थी गंवाते ही गंवाते हैं।
स्थिति से निबटने के लिए यहाँ अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों को यह बताया जाएगा कि तुम्हारे विकास की राहें तुम में हैं। किसी के पीछे भागकर किसी से अपनी तुलना करके तुम्हें स्वयं को नहीं गंवाना है। परमात्मा ने सबको अपना अंश समान रूप से दिया है। जरूरत उस दिव्यता को उजागर करने की है। यहाँ विद्यार्थियों को यह सिखाया जाएगा कि तुम्हें अपने विकास के लिए पूरे जीवट के साथ जुटना है। तुम्हें भरपूर मेहनत करनी है। जमकर पढ़ना लिखना है, पर किसी से आगे निकलने के लिए नहीं, बल्कि अपने चरम बिन्दु पर पहुँचने के लिए। तुम्हें अपनी चेतना के गौरीशंकर शिखर पर चढ़ना है। किसी से आगे तो उसे गिराकर, धक्का देकर भी निकला जा सकता है। पर अपने शरीर, मन, बुद्धि एवं भावना के विकास के चरम पर पहुँचने के लिए सदा अनवरत प्रयत्न की जरूरत है। किसी से आगे निकलने पर तो यात्रा थम सकती है। क्योंकि लक्ष्य छोटा था, जो पाना था वह मिल चुका। पर अपने चरम तक पहुँचने के लिए तो यात्रा सदा चलती है।
इस रीति-नीति में एक खास बात और भी है। इसमें दूसरों को गिराने में नहीं बल्कि उठाने में प्रसन्नता होती है। क्योंकि दूसरों से खतरा प्रतियोगिता में होता है, आत्म विकास में नहीं। प्रतियोगिता नहीं सहयोग इस विश्वविद्यालय के विद्यार्थी जीवन की रीति-नीति होगी। उपनिषद् युग के अनुरूप वे सदा ही अपने विकास के चरम तक पहुँचने के लिए तप-निरत रहेंगे। उन्हें बताया जाएगा कि अपना चरम तो ‘अयमात्मा ब्रह्म’ को जानने में है। स्वयं का परम विकास यही है। इस विकास को पाने का सूत्र है- ‘क्चद्ग ड्डठ्ठस्र रुड्डद्मद्ग’ याने कि बनो और बनाओ। यह प्रक्रिया जीवन के हर तल पर चलनी चाहिए। शरीर स्वस्थ और समर्थ हो, प्राणबल प्रचण्ड हो, मन स्वच्छ हो और अन्तरात्मा निर्मल हो। यही तो सही विकास है। देव संस्कृति विश्वविद्यालय का विद्यार्थी जीवन इसी दिशा में आगे बढ़ेगा।
यहाँ के विद्यार्थियों के लिए विश्वविद्यालय में परामर्श केन्द्र या काउन्सिलिंग सेण्टर खोला जाएगा। इस केन्द्र में मनोवैज्ञानिक, विभिन्न विषयों के विशेषज्ञ एवं अध्यात्मविद् होंगे। इस केन्द्र की गतिविधियां और उद्देश्य अध्ययन-अध्यापन से भिन्न होंगे। हालाँकि इसका सम्बन्ध विश्वविद्यालय के आचार्यगणों से होगा। यह परामर्श केन्द्र पढ़ाई-लिखाई के रोजमर्रा के विषयों से हटकर विद्यार्थियों की निजी समस्याओं पर विचार करेगा। समस्याएँ किसी भी तरह की हो, विद्यार्थी इस केन्द्र में आकर कह सकेंगे। इस केन्द्र के सदस्य विद्यार्थियों के साथ उनके अभिभावकों से भी कहीं अधिक प्रेम पूर्ण बर्ताव करेंगे। सभी विद्यार्थी बेझिझक, बिना किसी संकोच के उनसे अपनी बात कह सकेंगे।
विद्यार्थियों की समस्याएँ यदि पढ़ाई-लिखाई से जुड़ी होंगी, तो परामर्श केन्द्र के सदस्य सम्बन्धित विषयों के आचार्यों से मिलकर उनके समाधान निकालेंगे। यदि समस्याएँ निजी और नितान्त व्यक्तिगत जीवन से जुड़ी हैं, तो संवेदनशील सोच एवं मानव मन की विशेषज्ञता के आधार पर इसके समाधान जुटाए जाएँगे। परामर्श केन्द्र का दायित्व विद्यार्थियों के उज्ज्वल भविष्य की राहें खोजना होगा। विश्वविद्यालय के विद्यार्थी यहाँ के परामर्श केन्द्र से अपने कैरियर सम्बन्धी आवश्यक परामर्श और उचित सहयोग बेझिझक प्राप्त कर सकेंगे।
यहाँ अध्ययन करने वाले विद्यार्थी देव संस्कृति विश्वविद्यालय के अंग-अवयव हैं। और अध्ययन करने के बाद, दीक्षान्त समारोह में अपनी उपाधि प्राप्त कर लेने के बावजूद भी ये सदा विश्वविद्यालय के अंग अवयव बने रहेंगे। यहाँ से पढ़कर निकलने के बाद भी उनकी समस्याओं को सुनने और उन्हें सुलझाने में विश्वविद्यालय का परामर्श केन्द्र उनके सहयोग व परामर्श के लिए तैयार और तत्पर रहेगा। इस सबका उद्देश्य एक ही है, ग्रन्थिमुक्त, अवसादविहीन, कर्मठ, विचारशील, सहयोग कुशल युवा पीढ़ी का निर्माण। यहाँ ऐसे विद्यार्थी जीवन को गढ़ा, निखारा एवं तराशा जाएगा जो स्वयं दिशावान हो और राष्ट्र, समाज व विश्व मानवता को सही उपयुक्त दिशा सुझा सके।
यहाँ का विद्यार्थी जीवन कभी भटकन की भूल-भुलैया में न उलझेगा। उसे यहाँ पर ऐसी जीवनदायिनी आध्यात्मिक औषधियाँ मिलेंगी कि उन्हें अहंकार का ज्वर कभी न सता सकेगा। गलाकाट प्रतियोगिता के स्थान पर आपसी सहयोग इनके जीवन की रीति-नीति होगी। यहाँ पर उनकी बौद्धिक विचारशीलता के साथ भाव प्रवणता को भी जगाया जाएगा। क्योंकि इक्कीसवीं सदी में जन्मने और पनपने वाले उज्ज्वल भविष्य का आधार यही भाव संवेदना ही है। विश्वविद्यालय में उन्हें बतायी गयी प्रक्रियाएँ, सिखाए गए प्रयोग अध्ययन काल के साथ उनके भावी जीवन के लिए भी समर्थ सहायक की भूमिका निभाएँगे। विद्यार्थियों के लिए देव संस्कृति विश्वविद्यालय एक नए संसार की संरचना है। जो अपेक्षाकृत दिव्य है, उत्कृष्ट है, देवत्व से भरपूर है। ऋषियों की भूमि पर बसे इस आलोक-लोक में प्रवेश के लिए विश्वविद्यालय की प्रवेश प्रक्रिया से गुजरना अनिवार्य है।