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Magazine - Year 2002 - Version 2

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Language: HINDI
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संस्कृति सृजन में निपुण तपःपूज शिल्पी बनेंगे आचार्य

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आचारवान आचार्यगणों का तपस्वी जीवन देव संस्कृति की ऊर्जा का स्रोत है। आचार्यों के तप की प्रखरता इसे प्रखर बनाती है। उनके आचरण के प्राण बल से इसे प्राण मिलते हैं। आचार्यों के जीवन व चरित्र की शुद्धता से ही इसमें दैवी एवं दिव्य तत्त्वों का संचार होता है। सच तो यह है कि देव पुरुष आचार्यों ने ही भारत देश की संस्कृति को देव संस्कृति का स्वरूप दिया है। इसके सभी आदर्श आचार्यगणों ने अपने आचरण से गढ़े हैं। संस्कृति के स्वरूप एवं आचार्यों के जीवन में सब कुछ अनुक्रमानुपाती है। जैसे-जैसे आचार्यों के आचरण का प्राण बल घटता है, वैसे-वैसे संस्कृति अपना जीवन खोती है। आचार्यों के तप परायण न रहने से संस्कृति ऊर्जाहीन हो जाती है। आचार्यों के जीवन से आदर्शों का लोप होने से संस्कृति का अस्तित्त्व विलोप होने लगता है।

आज देश में यदि पुरातन साँस्कृतिक आदर्श विलुप्त हो रहे हैं, तो उसका कारण यही है कि आज केवल आचार्यों के जीवाश्म मिलते हैं। उनके जीवन में कहीं जीवन्तता दिखाई नहीं देती। आज डिग्रियों के भाँति-भाँति के गहनों से अपने को सजाए हुए विद्वान् प्रोफेसर हैं, पर अपने आचरण से विद्यार्थियों के जीवन को गढ़ने वाले आचार्य नहीं हैं। विश्वविद्यालय में जो पढ़ाते हैं, उनके पास पुस्तक में छपे हुए शब्दों का भण्डार है, लेकिन आचरण की अनुभूति नहीं है। बाहर से आकृति तो आचार्य की है, पर आन्तरिक प्रकृति बिल्कुल भी वैसी नहीं है। जब पढ़ाने वालों का जीवन धन के इर्द-गिर्द परिक्रमा कर रहा हो, तब विद्यार्थियों का जीवन भी तो कुछ वैसा ही स्वरूप पाएगा। साँचे ही तो ढाँचों को गढ़ते हैं। आज के ढाँचों को देखकर सहज ही साँचों की कल्पना की जा सकती है। इस स्थिति में यदि कोई बदलाव सम्भव है, तो केवल आचार्यों का आचरण बदलने से। देव संस्कृति विश्वविद्यालय की स्थापना का आधार यही सोच है। यहाँ के संचालकों ने एक देव पुरुष आचार्य के आचरण से असंख्यों को गढ़ते, ढलते, बनते, बदलते, संवरते, सुधरते देखा है। यह कथा कागद की लेखी नहीं, आँखिन की देखी है। युग ऋषि गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य ऐसे ही आचार्य थे। जिनके चरणों के सान्निध्य में अनगिनत जीवनों ने देव संस्कृति के सत्य की अनुभूति पायी। सौ प्रतिशत हू-ब-हू उनके जैसा हो पाना न भी सम्भव हो, तो भी उनके द्वारा स्थापित आदर्शों के लिए स्वयं को निछावर तो किया जा सकता है। बढ़-चढ़कर उनकी बनायी-बतायी राहों पर चलते हुए मरा और मिटा तो जा ही सकता है।

इससे कम में देश और धरती का साँस्कृतिक कायाकल्प होगा भी नहीं। ध्यान रहे कि जीवन से ही जीवन बदलते हैं। जलते हुए दीए ही दूसरे दीयों को जलाते हैं। चिंगारी ही फूस और लकड़ी को छू कर ज्वालाओं को जन्म देती है। देव संस्कृति विश्वविद्यालय में ऐसे आचार्यों का आह्वान है, आमंत्रण है, प्रीतिभरा स्नेह आमंत्रण है। उन प्राणवान, तपस्वी आचार्यों को देश और विश्व के साँस्कृतिक नवोन्मेष के लिए बुलाया जा रहा है जो साहसी हैं, संकल्पवान हैं, जिनमें देव संस्कृति के लिए जीने-मरने का दम-खम है। बुलावा है उन्हें, जो शब्दों से नहीं जीवन से बात करते हैं। उनको निमन्त्रण है, जिन्होंने अक्षरों की नहीं आचरण की सामर्थ्य जुटायी है। इन पंक्तियों के माध्यम से उन्हें पुकारा गया है, जिनकी प्रतिभा बिकने के लिए नहीं भारत माता की साँस्कृतिक वेदी पर न्यौछावर होने के लिए है। प्रतिभा के व्यापारियों को नहीं, संस्कृति सृजन में निपुण समर्पित शिल्पियों को बुलाया जा रहा है।

देव संस्कृति विश्वविद्यालय में उनका स्थान सुनिश्चित है, जिनके सामने महर्षि अरविन्द का आदर्श है। जिन्होंने राष्ट्रीय और साँस्कृतिक आदर्श के लिए बड़ौदा कॉलेज की 710 रुपये की नौकरी छोड़कर कलकत्ता में नव स्थापित हुए नेशनल कॉलेज में मात्र 150 रुपये मासिक पर अध्यापन करना स्वीकार किया। इसी तरह जब महामना मदन मोहन मालवीय जी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की तो उन्होंने हिन्दी के सुप्रतिष्ठित विद्वान् आचार्य रामचन्द्र शुक्ल से बी.एच.यू. का हिन्दी विभाग सम्भालने का आग्रह किया। ठीक उसी समय आचार्य शुक्ल को कालाकाँकर के राजा का भी प्रस्ताव मिला। राजा साहब शुक्ल जी को साढ़े तीन हजार रुपये मासिक के साथ अन्य सुविधाएँ भी दे रहे थे। काम भी कुछ खास नहीं था। मालवीय जी के पास उन्हें केवल सवा तीन सौ रुपये देने की क्षमता थी। और काम भी बहुत था। अन्य सुविधाएँ बिल्कुल नहीं थी। पर शुक्ल जी ने मालवीय जी के प्रस्ताव को चुना। उन्होंने कालाकाँकर के राजा साहब को मना करते हुए कहा- राजा साहब, देश और संस्कृति के लिए कुछ कर गुजरने के अवसर जीवन में बार-बार नहीं आते। कालाकाँकर नरेश ने जब उन्हें कुछ और रुपये देने का लालच दिया तो आचार्य शुक्ल बोले- मैं हिन्दी का आचार्य हूँ, कोई व्यवसायी नहीं।

ऐसे एक नहीं अनेक आचार्य इस देश की धरती में हुए हैं। विश्वास किया गया है कि अपनी धरती और अपनी संस्कृति से प्यार करने वाले अभी भी कम नहीं हुए हैं। भले ही उन्हें सही अवसर न मिल पाए हों। अभी भी ऐसी अनेकों प्रतिभाशाली आत्माएँ हैं, जिनके जीवन में देश की मिट्टी महकती है। जिनके हृदय अपने राष्ट्र और अपनी संस्कृति के प्रेम से स्पन्दित होते हैं। जिनके पास बुद्धि के विचार विस्तार के साथ हृदय की भाव विशालता भी है। जो देश और धरती की, राष्ट्र और मनुष्य की वेदना, टीस, कसक, तड़प और छटपटाहट को अनुभव कर सकते हैं। इस अनुभूति को लिए हुए तपस्वी आचार्यगण यहाँ अवश्य आएँगे, ऐसा विश्वास है। यह विश्वविद्यालय उनके लिए एक सौभाग्यपूर्ण सुअवसर है। युद्ध का बिगुल बजते ही वीरों से चुप नहीं बैठा जाता। उनके बाजू फड़कते हैं, और उनमें हथियार चमकने लगते हैं। उनकी रग-रग में प्राण मचल उठते हैं, दुश्मन से लोहा लेने के लिए।

माता भवानी की सन्तानों की ही भाँति माता सरस्वती के पुत्र-पुत्रियों का भी यही हाल है। संस्कृति के नवोन्मेष का उद्घोष हो और वे बैठे रहें, सोए रहें, भला यह कैसे सम्भव है? उनकी सृजन संवेदना उन्हें अधिक देर तक मूकदर्शक नहीं रहने देती। देव संस्कृति विश्वविद्यालय की स्थापना के उद्घोष के साथ ही, असंख्य प्रतिभावानों के हृदय संवेदित हो उठे हैं। उनके हृदयों में संस्कृति सृजन के संवेदन उठना स्वाभाविक भी है। देव संस्कृति के लिए कुछ कर गुजरने के पहले कदम के रूप में उन्हें कुलाधिपति या कुलपति, देव संस्कृति विश्वविद्यालय, शान्तिकुञ्ज हरिद्वार के पते पर पत्र व्यवहार करना चाहिए। इसके बाद ही उन्हें मालूम हो सकेगा कि उन्हें, कब, कैसे, कहाँ और क्या करना है।

देव संस्कृति के आदर्शों के अनुरूप ही यहाँ आचार्यों के तीन स्तर होंगे- सहायक आचार्य, सह आचार्य एवं आचार्य। इन स्तरों का निर्धारण उनकी योग्यता, अनुभव, तप एवं समर्पण के आधार पर किया जाएगा। यह बात जो सब में एक सी होगी, वह है जीवन व चरित्र की शुद्ध, खरी प्रामाणिकता, अपने विषय की विशिष्ट योग्यता, देव संस्कृति के प्रति अनुराग एवं जीवन की तपस्वी रीति-नीति। यूनान के महान् दार्शनिक सुकरात ने आचार्य को परिभाषित करते हुए कहा कि मैं आचार्य उसे कहता हूँ, जो अपने आचरण से अपने विद्यार्थी में एक नयी आत्मा को जन्म दे। सुकरात स्वयं भी ऐसे ही आचार्य थे। उन्होंने अपने अनेकों विद्यार्थियों में यह कर दिखाया।

देव संस्कृति विश्वविद्यालय के आचार्यों में तप की यही तेजस्विता चाहिए। क्योंकि यहाँ केवल विद्यार्थियों को केवल पाठ्यक्रम रटा-रटाकर परीक्षाएँ नहीं पास करवानी है। और भी बहुत कुछ करना है। देश की धरती और विश्ववसुधा में नैतिक, बौद्धिक, सामाजिक एवं साँस्कृतिक क्रान्ति की ज्वालाएँ भड़कानी है। जिसके भीतर आग है, वही तो ज्वालाओं को जन्म देगा। बुझे हुए चिराग भला दूसरों में क्या लपटें पैदा करेंगे। आचार्यों के रूप में यहाँ जलते हुए रोशन चिराग चाहिए, जो अपनी ऊष्मा और उजाले से विश्वविद्यालय के विद्यार्थी जीवन में विचार क्रान्ति के लिए प्रतिबद्धता पैदा कर सकें।

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