
जीवनदृष्टि से ओतप्रोत विद्याप्रधान पाठ्यक्रम
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पाठ्यक्रमों की दृष्टि एवं दिशा से ही विश्वविद्यालय की मौलिक विशेषताएँ जन्म लेंगी। इसी से देव संस्कृति के उद्देश्यों को पाने की राहें बनेंगी। इसी के द्वारा पुरातन ऋषियों की सनातन विरासत को नूतन पीढ़ी को सौंपा जा सकेगा। पाठ्यक्रम अनेकों जगह बनते हैं और अनेक तरह से बनते हैं- इनका बनना महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्वपूर्ण है इनकी दृष्टि एवं दिशा। जो पढ़ाया जा रहा है, वह क्या है? और क्यों पढ़ाया जा रहा है? ये क्या और क्यों के प्रश्न चिह्न प्रायः अनुत्तरित रहते हैं। कम से कम विद्यार्थीगण तो इनका जवाब पाने में प्रायः असफल ही रहते हैं। यदि किसी तरह उन्हें जवाब मिलते भी हैं तो गलत-सलत। उदाहरण के लिए क्या के उत्तर में उन्हें कुछ विषयों के नाम रटा दिए जाते हैं। और क्यों के उत्तर में उनके मन तरह-तरह के लालच की लार से भीगे रहते हैं।
क्या यही देश के भविष्य को गढ़ने की उचित विधि है? क्या यही वह विद्या है, जिसकी महिमा ऋषियों ने ‘सा विद्या या विमुक्तये’ कह कर बखानी है। इन सवालों के उत्तर निराशा जनक हैं। निराशा की इस अंधेरी भूल-भुलैया में दृष्टि का प्रकाश एवं दिशा का बोध बनकर रह जाते हैं। बहुतेरी देशी-विदेशी उपाधियाँ बटोरने के बावजूद जिन्दगी में सही सोच और समझ नहीं विकसित हो पाती। पढ़ाई और जीवन दोनों अलग-थलग पड़े रहते हैं। कभी-कभी तो दोनों एक दूसरे से विमुख हो जाते हैं। आपस में विरोधी बन जाते हैं। ये सारी भूले वहाँ से पनपती है, जहाँ से पाठ्यक्रम जन्म लेते हैं।
देव संस्कृति विश्वविद्यालय के संचालक इस सच को जानते हैं। तभी यहाँ पाठ्यक्रमों की दृष्टि एवं दिशा पर बहुत चिन्तन-मन्थन किया गया है। आगे भी यह प्रक्रिया चलती रहेगी। अभी तक के निष्कर्षों के आधार पर यह सोचा गया है कि पाठ्यक्रम मनुष्य जीवन से जुड़े और गुँथे होने चाहिए। पाठ्यक्रम एवं जीवन यदि दोनों एक दूसरे के पर्याय न बन सके, तो पढ़ने वालों में हमेशा ही जीवन दृष्टि का अभाव बना रहेगा। जीवन छोटा नहीं है, इसकी व्यापकता बहुत विस्तृत है। मनुष्य के देह, प्राण, मन तो जीवात्मा की तीन परतें भर हैं। इसके विस्तार में प्रकृति-पदार्थ एवं समाज सभी आते हैं। मोटे तौर पर जीवन के दो विभाजन किए जा सकते हैं, आन्तरिक एवं बाह्य। लेकिन यह विभाजन केवल अध्ययन की सुविधा के लिए है। वैसे तो दोनों ही एक दूसरे को प्रभावित करते हैं और एक-दूसरे से प्रभावित होते हैं।
जीवन के आन्तरिक दायरे में देह, प्राण, मन एवं आत्मा का स्वरूप एवं इसकी गतिविधियों, विकास व अभिव्यक्ति के अनेक आयाम आते हैं। बाहरी दायरे में प्रकृति, पदार्थ, परिस्थिति, परिवेश की गणना होती है। देश, दुनिया, प्राणि, वनस्पति सब इसी में सिमटे-बंधे हैं। जीवन के दोनों आयाम सचल, सजीव, सचेतन और विकासशील है। इनमें जड़ता कहीं भी नहीं है। समस्त विस्तार के कण-कण में शाश्वत की सामयिक अभिव्यक्ति चलती रहती है। सारी विद्याएँ एवं कलाएँ इसी को जानने के उद्देश्य से जन्मी है। यह दृष्टि स्पष्ट होने पर कोई भी विषय जीवन से विमुख न हो सकेगा। भौतिकी एवं रसायन शास्त्र में भी विद्यार्थी योग विज्ञान की ही भाँति अपने जीवन के अर्थ एवं उद्देश्य को खोज सकेंगे, पा सकेंगे। पाठ्यक्रम का विषय एवं स्वरूप कोई भी हो, पर उसमें जीवन सत्य की स्थापना ही उसे जीवन दृष्टि से सम्पन्न करता है।
इसका मतलब केवल इतना है कि पढ़ने वाले विद्यार्थी कोई भी विषय पढ़े, पर उसके पाठ्यक्रम के द्वारा उन्हें अपने जीवन का स्वरूप, अर्थ एवं उद्देश्य साफ-साफ समझ में आना चाहिए। उन्हें साफ-तौर पर अपने वर्तमान एवं भविष्य में पाठ्यक्रम की उपयोगिता एवं आवश्यकता समझ में आनी चाहिए। पाठ्यक्रम में समझाए जा रहे, बताए जा रहे सच में विद्यार्थियों को अपने जीवन की झलक हर हालत में मिलनी चाहिए। उन्हें पढ़ते समय यह महसूस हो कि जो वे पढ़ रहे हैं, वह किसी भी तरह से बोझ नहीं है। यह तो उन्हीं की अपनी जिन्दगी की अबूझ, अनसुलझी एवं रहस्यमयी पहेलियों के रोचक व रुचिकर समाधान है। पाठ्यक्रमों की यही दृष्टि ही शिक्षा को विद्या का रूप देगी। इसी से जीवन का सत्य और बोध प्रकट होगा।
देव संस्कृति विश्व विद्यालय में जो भी पाठ्यक्रम पढ़ाए जाएँगे, सभी में यही जीवन दृष्टि होगी। जीवन दृष्टि से ओत-प्रोत पाठ्यक्रम का निर्माण दुःसाध्य जरूर है पर असाध्य नहीं। इस कठिन कार्य को इन्हीं दिनों यहाँ सम्भव बनाया जा रहा है। विश्वास किया जाता है कि यहाँ प्रवेश पाने वाले सभी विद्यार्थी विश्वविद्यालय के किसी भी पाठ्यक्रम का चुनाव करके एक समान जीवन दृष्टि हासिल कर सकेंगे। इस दृष्टि के सहारे उन्हें जीवन की राहें साफ नजर आएँगी और अपनी मौलिकता के अनुरूप दिशा का चुनाव कर सकेंगे।
दृष्टि से ही दिशा मिलती है। यह सच जीवन का भी है और विश्वविद्यालय में चलाए जाने वाले पाठ्यक्रमों का भी। विद्यार्थियों की मौलिकता व योग्यता के विकास के लिए सामर्थ्य पाठ्यक्रमों की दिशा से ही मिलती है। मोटे तौर पर दो तरह के व्यक्ति संसार में जन्म लेते हैं। एक वे जिनमें विचार संवेदना है, दूसरे वे जिनमें विश्लेषणात्मक तार्किक प्रतिभा है। मनुष्य के इन मौलिक गुणों के अनुरूप ही पाठ्यक्रमों की दिशा निर्धारित की जानी चाहिए। इस कथन का सार संक्षेप केवल इतना है कि पाठ्यक्रमों की दिशा ऐसी हो कि उसके द्वारा मनुष्य की मौलिकताओं का परिष्कार व विकास हो सके। पाठ्यक्रमों की दिशा से ही विद्यार्थियों की प्रतिभा का परिष्कार व विकास होता है। कमल के बीज को विकसित होने के लिए अलग तरह की कीचड़ वाली पानी से भरी जमीन चाहिए। लेकिन गुलाब के बीज भुरभुरी मिट्टी वाली सूखी क्यारियों में उगते हैं। विद्यार्थी की सभी मौलिक विशेषताओं का विकास पाठ्यक्रमों की दिशा निर्धारण का लक्ष्य होना चाहिए।
देव संस्कृति विश्वविद्यालय के संचालकों ने इस सत्य को ध्यान में रखा है। उन्होंने विद्या परिषद एवं पाठ्यक्रम समितियों का गठन इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए किया है। यहाँ पाठ्यक्रम के स्वरूप व प्रकार कई होंगे, पर उन सभी से विद्यार्थी को जीवन की दिशा मिलेगी। अन्य जगहों पर इसके अभाव की वजह से ही उपाधियों के बोझ से लदे विद्यार्थी निराशा और हताशा के गहरे गड्ढों में जा गिरते हैं। किंम् करोमि? क्व गच्छामि? के उनके सवाल कभी हल नहीं होते। क्या करें? किधर जाएँ? के सवाल सारी पढ़ाई खत्म करने के बाद भी उनका पीछा नहीं छोड़ते। इस विश्वविद्यालय में पढ़ाए जाने वाले सभी पाठ्यक्रम न तो स्वयं दिशा विहीन होंगे और न ही विद्यार्थियों को दिशा विहीन करेंगे।
विषय कोई भी हो, पर विद्यार्थियों की मौलिक सामर्थ्य के परिष्कार एवं विकास के उद्देश्य को ध्यान में रखकर ही सभी पाठ्यक्रम की दिशा तय होगी। पाठ्यक्रमों की दृष्टि एवं दिशा दोनों के ही द्वारा विद्यार्थी देव संस्कृति के जीवन मूल्यों की अमूल्य निधि प्राप्त करेंगे। प्रतिभावान, क्षमतावान, सामर्थ्यवान, प्रचण्ड आत्मबल से सम्पन्न विद्यार्थियों का निर्माण हो, इस विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों का मकसद है। इनका निर्माण देव संस्कृति विश्वविद्यालय द्वारा गठित की गई विद्या परिषद एवं पाठ्यक्रम समितियाँ करेंगी।