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Magazine - Year 2002 - Version 2

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विद्या साधना का दिव्य मंदिर-ग्रंथालय

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पुस्तकालय देव संस्कृति विश्वविद्यालय की काय संरचना का मेरुदण्ड है। विश्वविद्यालय की समस्त विद्या योजना की दृढ़ता का आधार यही है। इसे देव संस्कृति के विशालकाय महारत्न भण्डार की संज्ञा दी जा सकती है। जहाँ पुरातन भारत के ज्ञान की सनातन निधि को ढूंढ़ खोज कर इकट्ठा किया गया है। आगे भी यह प्रक्रिया अविराम रूप से जारी रहने वाली है। विश्व के विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों, साहित्य एवं दर्शन के बहुमूल्य ग्रन्थों को यहाँ बड़े यत्न से जुटाया गया है। ग्रन्थालय का वैज्ञानिक कोश आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान सम्पदा से भरपूर है। पुरातन और आधुनिक ज्ञान व विज्ञान की असंख्य व अनगिन धाराएँ यहाँ परस्पर मेल-मिलाप करती देखी जा सकती हैं। ज्ञान-विज्ञान की विविध धाराओं के अभूतपूर्व संगम की सृष्टि का सौंदर्य यहाँ झलकता है।

यह पुस्तकालय ऋषि संस्कृति की एक अभूतपूर्व एवं अद्भुत संस्थापना है। ऋषियों द्वारा स्थापित पुरातन काल के विश्वविद्यालयों में पुस्तकालय का अपना एक विशिष्ट स्थान था। यह बात अलग है कि तब इसके स्वरूप में अब से काफी कुछ भिन्नता थी। तब छपायी एवं कागज की आधुनिक सुविधाएँ नहीं थी। ग्रन्थ भोजपत्र एवं ताड़ पत्र पर लिखे जाते थे। लेखन का यह कार्य प्रायः विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों द्वारा किया जाता था। वही पुस्तकालय के लिए ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ तैयार करते थे। यह परम्परा ऐतिहासिक युग में भी बनी रही।

ऐतिहासिक अभिलेख एवं पुरातात्त्विक प्रमाण इसकी पुष्टि करते हैं। डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी, प्रो. आर.सी. मजूमदार, डॉ. राजबली पाण्डेय, प्रो. ए.एस. अल्तेकर जैसे प्रख्यात् इतिहासवेत्ताओं ने भारत की प्राचीन शिक्षा पद्धति में पुस्तकालयों के महत्त्व को स्वीकारा है। पुरातत्त्ववेत्ता सर जेम्स प्रिंसेप, अलेक्जैंडर कनिंघम, फ्लीट, सर जॉन मार्शल, मार्टीमर व्हीलर एवं प्रो. साँकलिया जैसे पुरातत्त्व-वेत्ताओं ने भारत के साँस्कृतिक ज्ञान-विज्ञान के विकास में पुस्तकालयों के महत्त्व को दर्शाने वाले संकेत दिए हैं।

समस्त ऐतिहासिक एवं पुरातात्त्विक प्रमाण एक स्वर से जिस पुस्तकालय की महिमा गाते हैं, वह नालन्दा विश्वविद्यालय का पुस्तकालय है। अपने युग में यह महत्त्वपूर्ण पुस्तकालय अति विशाल था। उसके द्वारा हजारों विद्यार्थियों और छात्रों की ज्ञान पिपासा की पूर्ति होती थी। नालन्दा विश्वविद्यालय के इस पुस्तकालय का नाम धर्मगंज था। इसके प्रसार क्षेत्र के व्यापक होने के प्रमाण मिलते हैं। ऐतिहासिक विवरण के अनुसार इस पुस्तकालय में प्रतिलिपि करने की भी सुविधा थी। चीनी विद्यार्थी इत्सिंग ने नालन्दा में रहकर चार सौ संस्कृत पुस्तकों की शुद्ध प्रतिलिपियाँ तैयार की थीं। इनमें लगभग 5 लाख श्लोक थे।

ऐतिहासिक दस्तावेजों एवं पुरातात्त्विक अभिलेखों के अनुसार ‘धर्मगंज’ नाम से विख्यात इस पुस्तकालय के भवन अतिविशाल थे। इन अनेक भवनों में से केवल तीन के नाम इतिहासवेत्ता खोज पाए हैं। ये तीन भवन- रत्नसार, रत्नोदधि और रत्नरञ्जक के नाम से विख्यात थे। इनमें लाखों की संख्या में हस्तलिखित पुस्तकें थीं। इन तीन भवनों में रत्नसागर नौ मंजिलों वाला भवन था और रत्नोदधि सात मंजिलों का। रत्नरञ्जक का आकर्षण इन दोनों से कहीं कम नहीं था।

नालन्दा विश्वविद्यालय के इसी गौरव के अनुरूप देव संस्कृति विश्वविद्यालय के पुस्तकालय का स्वरूप गढ़ा जा रहा है। विश्वविद्यालय के मुख्य परिसर में अपना स्वरूप पा रहे पुस्तकालय का एक अलग विशिष्ट भवन होगा। इस पुस्तकालय भवन में पाँच मंजिलें होंगी। इनमें से भूमिखण्ड वाली मंजिल में ज्ञान-विज्ञान का मिला−जुला पुरातन एवं नूतन स्वरूप दर्शाने वाले ग्रन्थ होंगे। शेष चार मंजिलों में से प्रत्येक मंजिल विश्वविद्यालय के चार विशिष्ट संकायों से सम्बन्धित होगी। इनमें से हर एक की व्यवस्था के लिए अलग-अलग प्रभारी नियुक्त होंगे। जो विश्वविद्यालय के मुख्य पुस्तकालयाध्यक्ष के निर्देशन में कार्य करेंगे।

विश्वविद्यालय का यह पुस्तकालय पूर्णतया कम्प्यूटरीकृत एवं सभी आधुनिक सुविधाओं से युक्त होगा। विद्यार्थियों व प्राध्यापकों को पुस्तकों के किन्हीं विशेष अंश की प्रतिलिपि उपलब्ध कराने के लिए यहाँ उच्च क्षमता वाली आधुनिक जीरॉक्स मशीन हर समय उपलब्ध होगी। छात्र एवं आचार्य दोनों ही यहाँ दी जाने वाली इन्टरनेट सुविधा का लाभ अपने अध्ययन के लिए उठा सकेंगे। प्रत्येक विषय में पुस्तकों के साथ आवश्यक सी.डी. रोम यहाँ उपलब्ध होंगे। जिन्हें कम्प्यूटर के माध्यम से देखा व पढ़ा जा सकेगा। साथ ही अनिवार्य समझे जाने वाले अंशों के प्रिन्ट लिए जा सकेंगे।

अत्याधुनिक सुविधाओं एवं ज्ञान की क्षमता वाले इस पुस्तकालय का महत्त्व विश्वविद्यालय के एक संकाय की ही भाँति होगा। जिसका दायित्व मुख्य पुस्तकालयाध्यक्ष संभालेंगे। पुस्तकालय के सभी नियमों-उपनियमों व अनुशासनों को पालन कराने का दायित्व उन्हीं का होगा। नियमों की यह विधि-व्यवस्था कुलपति के निर्देश व मार्गदर्शन में बनेगी। इस बारे में कुलपति के निर्देश ही अन्तिम होंगे। पुस्तकालय की समस्त व्यवस्था में उनकी स्वीकृति एवं सहमति महत्त्वपूर्ण होगी। पुस्तकालय की सारी आवश्यकताओं एवं क्रय की जाने वाली पुस्तकों सहित समस्त साधन सम्पदा का ब्यौरा पुस्तकालयाध्यक्ष समय-समय पर नियमित अन्तराल में कुलपति को देते रहेंगे।

पुस्तकालय के शैक्षणिक अनुशासन के महत्त्वपूर्ण बिन्दु के रूप में विश्वविद्यालय के प्रत्येक विद्यार्थी एवं शोध छात्र की उपस्थिति है। प्रत्येक कार्य दिवस में हर विद्यार्थी एवं शोध छात्र को बनाए गए अनुशासन के अनुसार पुस्तकालय में नियमित रूप से बैठकर पढ़ना होगा। सम्बन्धित प्रभारी इन सभी छात्रों की उपस्थिति अंकित करेंगे। परीक्षा में बैठने के लिए इस उपस्थिति का अनिवार्य रूप से महत्त्व होगा। जो भी छात्र पुस्तकालय के नियमों के अनुशासन में दोषी होंगे, उन्हें परीक्षा से बहिष्कृत किया जा सकेगा। पुस्तकालय की समस्त सुविधाओं का समुचित उपयोग करना विश्वविद्यालय के हर छात्र एवं आचार्य का कर्त्तव्य है। और इन्हें समयानुसार जुटाते रहना और सभी सत्पात्रों को उनकी पात्रता के अनुरूप प्रदान करना पुस्तकालय की व्यवस्था का काम है।

देव संस्कृति विश्वविद्यालय का यह पुस्तकालय माता हंसवाहिनी भगवती सरस्वती का मन्दिर है। जिसकी साज-सज्जा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों एवं राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय शोध-पत्रिकाओं के द्वारा सदा की जाती रहेगी। पुस्तकालयाध्यक्ष माता सरस्वती के इस भव्य मन्दिर के मुख्य पुजारी होंगे। अन्य पुस्तकालयकर्मी उनके सहयोगी की भूमिका निभाएँगे। इस दिव्य मन्दिर में विद्या साधना करने का भार विश्वविद्यालय के छात्रों-छात्राओं व आचार्यों-आचार्याओं का है। उनकी विद्या साधना ही इसे प्राणवान व ऊर्जावान बनाएगी। इस पुस्तकालय में अन्य विविध ग्रन्थों के साथ देव संस्कृति विश्वविद्यालय के अपने निजी प्रकाशित ग्रन्थ भी होंगे। जिनका प्रकाशन विश्वविद्यालय के प्रकाशन विभाग द्वारा होगा। इस विभाग से देव संस्कृति के बहुआयामी स्वरूप के सम सामयिक रूप नियमित व निरन्तर प्रकाशित होते रहेंगे। विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित इन कृतियों का पुस्तकालय में विशेष स्थान होगा।

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