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Magazine - Year 2002 - Version 2

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अनुबंधों-व्रतबंधों की अनुशासन मर्यादाएँ

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अनुशासन की तप-साधना देव संस्कृति विश्वविद्यालय के प्रत्येक आचार्य एवं छात्र-छात्रा के लिए अनिवार्य कर्त्तव्य है। इसका लक्ष्य सच्चा आत्म स्वामित्व है। जीवन की सामान्य रीति-नीति बड़ी अनगढ़ होती है। अवाँछनीय आदतों और कुसंस्कारों की अनेकों विवशताएँ इसे घेरे रहती हैं। इन मजबूरी में चाहे-अनचाहे ऐसा हो जाता है, जो जीवन के सोचे गए लक्ष्य एवं चुनी हुई दिशा से पूरी तरह से उल्टा है। आवेग और आवेश में ऐसे कृत्य हो तो जाते हैं, परन्तु बाद में विचार और विवेक के जगने पर बड़ी शर्मिन्दगी होती है। अन्तर्चेतना पश्चाताप से पीड़ित होती है। मन में बार-बार सवाल उठता है, ऐसा हुआ ही क्यों? ऐसा किया ही क्यों गया? ऐसे सवाल का एक ही सार्थक हल है- अनुशासन की तप-साधना।

अनुशासन का तप करने वाले को अपने जीवन में कभी पछताना नहीं पड़ता। उसकी जिन्दगी कभी अन्धेरे गड्ढों में नहीं गिरती। उसके जीवन में ठहराव, रुकावट के क्षण नहीं आते। जीवन पथ पर उसे प्रारब्ध या परिस्थितियों के अवरोध तो मिलते हैं, पर अनुशासन के तपस्वी को ये सब मिलकर रोक नहीं पाते। जिसकी अनुशासन में निष्ठ दृढ़ है, उसे पीछे नहीं मुड़ना पड़ता। मुड़-मुड़ कर देखने, पीछे कदम हटाने जैसी स्थितियाँ अनुशासन के व्रती जनों के जीवन में नहीं आ पाती। अनुशासन की तप-साधना से उत्पन्न ऊर्जा उन्हें निरन्तर गतिशील बनाए रखती है। राह में आने वाले पहाड़ जैसे अवरोध इसके प्रभाव से बरबस अपने आप ही हटते और मिटते हैं।

इस बहु प्रचलित, बहु प्रचारित तप साधना के यथार्थ स्वरूप से बहुसंख्यक जन अपरिचित हैं। जिन्हें इससे परिचित होने का विश्वास है, वे भी प्रायः भ्रमित हैं। ऐसे लोग अनुशासन को पराधीनता, परवशता या जबर्दस्ती लादी गयी बेबसी-मजबूरी मानते हैं। लेकिन ये मान्यताएँ वास्तव में भ्रमित चित्त की देन है। दरअसल ऐसा अनुशासन को शासन का पर्याय मानने से होता है, जबकि ऐसा है नहीं। शासन केवल नियन्त्रण या नियमन है। इससे काफी अलग- अनुशासन, आत्म नियंत्रण से आत्म स्वामित्व का विकास है। प्राचीन गृहसूत्रों, धर्मसूत्रों एवं स्मृतियों में इस बारे में काफी कुछ कहा गया है। देव संस्कृति की परम्परा एवं मर्यादा के अनुसार कुलाधिपति एवं कुलपति आचार्यों को व्रत विधान एवं अनुशासन के सूत्र देते रहे हैं। और आचार्यगणों ने ये सूत्र अन्तेवासी अपने छात्र-छात्राओं को दिए हैं।

देव संस्कृति विश्वविद्यालय में इसी साँस्कृतिक निष्ठ का पालन किया जाएगा। कुलाधिपति एवं कुलपति यहाँ अध्यापन, शोध का मार्गदर्शन एवं शिक्षण करने वाले आचार्यों को अनुशासन के सम्यक् सूत्र देंगे। और आचार्यगण छात्र-छात्राओं के समक्ष इनका जीवन्त आदर्श प्रस्तुत करते हुए उन्हें इनके सत्य का प्रबोध कराएँगे। यहाँ से जुड़ने वाले, अध्ययन-अध्यापन करने वाले प्रत्येक छात्र एवं आचार्य को अनुशासन के सत्य को सीखना, समझना और अपनाना होगा। लेकिन यह ठीक तरह से तभी सम्भव है कि अनुशासन कोई शासन की दण्ड व्यवस्था नहीं बल्कि आत्म विकास के मनोवैज्ञानिक सूत्र है। इन्हें मानने और अपनाने से जहाँ समग्र जीवन में वास्तविक विकास होगा, वहीं इनकी अवहेलना करने से जीवन का पथ से विचलित होना, भटक जाना सुनिश्चित है।

महासागर के विराट् स्वरूप को अपना लक्ष्य मानने वाली गंगा-यमुना जैसी समर्थ नदियाँ भी तटबन्ध को व्रतबन्ध मानकर अग्रसर होती हैं। किनारों का अनुशासन यदि ये न मानें, तो इनका जीवन जल कब का राह में बिखर कर नष्ट हो जाए। जब कभी किसी प्राकृतिक दबाव में यह अनुशासन थोड़े बहुत समय के लिए टूटता है, तो बाढ़ जैसे प्रलयंकारी उपद्रव ही खड़े होते हैं। यह अल्पकालिक अनुशासनहीनता भी विनाश की विभीषिका को ही जन्म देती है। जबकि अनुशासन की महिमा से इनकी राहों में अनगिनत जीव-जन्तु, जमीन-जंगल अपनी प्यास बुझाते हैं। और अनेकों जीवनदायिनी फसलें लहलहाती हैं।

अनुशासन के तप का अर्थ जीवन की शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक सभी तरह की शक्तियों के क्षरण को रोककर, इनका जीवन के सार्थक उद्देश्य के लिए संकल्पनिष्ठ सुनियोजन है। इसमें देव संस्कृति के दैवी एवं दिव्य स्वरूप का परिचय भी निहित है। विश्वविद्यालय के अनुशासन सूत्रों के सृजन का सार यही है। इन सूत्रों में सबसे पहला स्थान चिन्तन के सूत्रों का है। ये निम्न है- 1. अपने चिन्तन को पवित्र एवं निष्कपट बनाए रखेंगे। 2. अपने चिन्तन को सभी तरह के मनोविकारों से रहित करने के लिए प्रयत्नशील रहेंगे। चरित्र के सूत्रों का महत्त्व अधिक है। इनके अनुसार- 1. कर्त्तव्यपालन एवं आत्म नियंत्रण पहला सूत्र है। 2. यहाँ के सभी जन साधना एवं संयम के चारित्रिक आदर्शों का पालन करेंगे। 3. आचार्य एवं विद्यार्थी सभी सामाजिक मर्यादाओं एवं वर्जनाओं का पालन करेंगे।

व्यवहार के सूत्रों में पहली बात यही है कि किसी भी संस्कृति का प्रथम परिचय उसकी वेशभूषा से होता है। इसलिए प्रत्येक आचार्य/आचार्या, छात्र व छात्राएँ भारतीय वेशभूषा धोती-कुर्ता अथवा कुर्ता-पायजामा/ साड़ी-ब्लाउज अथवा सलवार-कुर्ता एवं दुपट्टा धारण करेंगे/करेंगी। 2. विश्वविद्यालय परिसर में किसी भी तरह का नशा (शराब, बीड़ी, सिगरेट, पान, तम्बाकू, गुटका आदि) पूर्णतया वर्जित है। 3. व्यवहार में शिष्टता-शालीनता एवं पारस्परिक सौमनस्य का सभी ध्यान रखेंगे। 4. विश्वविद्यालय की प्रार्थना, सभा एवं यज्ञ आदि कार्यक्रमों में सभी की नियमित भागीदारी अनिवार्य होगी। 5. आचार्य गण अपने शिक्षण सम्बन्धी दायित्वों का एवं विद्यार्थीगण अपने अध्ययन सम्बन्धी दायित्वों का अनिवार्य रूप से पालन करेंगे। 6. छात्र-छात्राओं को विशेष रूप से पुस्तकालय सहित प्रत्येक कक्षा में 75' उपस्थिति अनिवार्य होगी।

आचार्यों को इन अनुशासन सूत्रों का प्रबोध एवं उनकी अनुशासन निष्ठ की परख कुलाधिपति या कुलपति स्वयं अथवा उनके प्रतिनिधि के रूप में उपकुलपति एवं संकायाध्यक्ष (डीन) करेंगे। इनके द्वारा दिए गए दिशा निर्देशों का पालन करना एवं इनके मार्गदर्शन को स्वीकारना सभी आचार्यगणों के लिए अनिवार्य होगा। छात्र-छात्राओं को अनुशासन सूत्र प्रदान करने का कार्य सम्बन्धित आचार्यगण करेंगे। यह कार्य संकायाध्यक्ष (डीन) के नीति-निर्देशन एवं विभागाध्यक्ष के प्रत्यक्ष मार्गदर्शन में होगा। विश्वविद्यालय के आचार्य वर्ग एवं छात्र वर्ग तथा यहाँ के कर्मचारीवृन्द के लिए ये जो भी अनुशासन प्रारम्भिक रूप से दिए जाएँगे, उनमें समय-समय पर बदलाव एवं विकास होता रहेगा। परन्तु इनकी यही मूलभावना यथावत बनी रहेगी।

प्रत्येक की अनुशासन निष्ठ से उसके साधनात्मक साहस की परख होगी। दरअसल यह मानव चेतना में जन्म लेने वाला, आन्दोलित होने वाला रोमाँचक अभियान है। इसलिए महर्षि अरविन्द ने इस अनुशासन निष्ठ को Real Adventure in Human Consciousness (मानव चेतना में किया जाने वाला सच्चा साहस) कहा है। अपने विकसित रूप में यह अभियान अवाँछनीय आदतों एवं कुसंस्कारों के विरुद्ध होता है। संकल्प के धनी अनुशासन निष्ठ, अनेक निम्नगामी आकर्षण से मुक्त होने में सफल होते हैं। और आत्मसत्ता के दिव्य एवं दैवी आकर्षण का ऊर्ध्वगामी वेग प्राप्त करते हैं। इसीलिए अनुशासन निष्ठ को साधक कहा गया है। यह सही मायने में कुलाधिपति एवं आचार्यों के बीच तथा आचार्य एवं छात्रों के बीच विकसित होने वाला साधनात्मक अनुबन्ध है। इन अनुबन्धों एवं व्रतबन्धों की अनुशासन मर्यादाओं को स्वीकार करने वाले आचार्य एवं छात्र-छात्राएँ यहाँ की शिक्षण प्रक्रिया की मौलिकता का सृजन करेंगे।

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