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Magazine - Year 2002 - Version 2

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देव संस्कृति एवं उसके निहितार्थ

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देव संस्कृति का सही अर्थ देवभूमि भारत के ऋषियों, सन्तों एवं मनीषियों द्वारा स्थापित जीवन मूल्यों, परम्पराओं एवं प्रयोगों में निहित है। इन्हें अपनाकर मनुष्य सहज ही अपने दैवी एवं दिव्य गुणों को विकसित कर सकता है। यह मनुष्य में देवत्व को उभारने, निखारने एवं विकसित करने का विज्ञान-विधान है। इसे मानव को आमूल-चूल रूपांतरित करके देवता बनाने वाला दिव्य रसायन भी कहा जा सकता है। देव संस्कृति के प्रवर्तक ऋषिगणों का कहना है कि मनुष्य होना हम सबके वर्तमान का सत्य है। लेकिन देवता होना हमारे जीवन का लक्ष्य है। देव संस्कृति के सभी सूत्र, सारी प्रक्रियाएँ, समस्त साधना मनुष्य को इसी ओर तीव्रगामी वेग से बढ़ चलने के लिए प्रेरित करती है। इन संस्कृति सूत्रों के अनुसार देवता वे हैं जो दिव्य हैं, दैवी गुणों से सम्पन्न हैं और वरदान देने में समर्थ हैं। मनुष्य में ये सभी क्षमताएँ बीज रूप में हैं। जो अभी सुप्त एवं अविकसित दशा में हैं। यदि इनका विकास हो सके तो मानव की आकृति तो वही रहेगी, परन्तु प्रकृति से वह देवता हो जाएगा।

देवों को गढ़ने वाली देव संस्कृति भारत देश की देन है। यह इसी देश की माटी में उपजी एवं पनपी है। भारत माता की गोद में पली-बढ़ी है। भारत जननी की अनेकों विशिष्टताओं में यह सर्वोपरि है। अन्य सभी विशेषताएँ इसी की छाया से आच्छादित है। यह राष्ट्र के अस्तित्त्व एवं अस्मिता की पहचान है। यही वह अक्षय पात्र है, जिसके बल पर चिर प्राचीन काल में भारत देश ने समस्त विश्व को तृप्ति दी। इसी के बलबूते भारत ने समस्त विश्व को अनेकों अजस्र अनुदान दिए। इसी की महिमा से देश चक्रवर्ती एवं जगद्गुरु कहाया। देव संस्कृति के सूत्रों को अपनाकर ही भारत देश सम्पदा, समृद्धि एवं वैभव के चरम शिखर पर पहुँचा। इसकी चरम से आकर्षित हुए विदेशियों ने इसे सोने की चिड़िया कहा। यह इतिहास का सच है कि देव संस्कृति के सत्य को अपनाकर ही देश ने सब कुछ पाया। और आज यदि राष्ट्र ने अपना बहुत कुछ गंवा दिया है तो इसका कारण अपने संस्कृति सत्य की विस्मृति ही है। इसके स्मरण एवं जीवन में इसकी स्वीकृति से फिर से गरिमामय वर्तमान और उज्ज्वल भविष्य की रचना की जा सकती है। भारत माता फिर से अपनी देव सन्तानों की सामर्थ्य के द्वारा विश्व कुटुम्ब को अपने अजस्र-अनुदान बाँट सकती है।

यह सब देव संस्कृति की मूल प्रेरणा में निहित है। जो मनुष्य की इस मौलिक सोच पर आधारित है कि जीवन को परिवर्तित, रूपांतरित एवं विकसित होना ही चाहिए। ऐसा सोचने के कारण भी हैं। जीवन का जो वर्तमान है उसमें सिवाय दुःख, पीड़ा, अशान्ति, संघर्ष और कलह के कुछ भी नहीं है। जीवन की इसी पीड़ा ने जीवन को रूपांतरित करने की प्रेरणा पैदा की है। शायद ही कोई ऐसा क्षण हो जब मनुष्य आनन्द को उपलब्ध हो पाता है। हाँ, आनन्द की आशा लगी रहती है कि कल मिलेगा और आज उसी आशा में दुःख को हम सहते हैं। लेकिन कल जब आता है तो हमें उतना ही दुःख देता है जितना की आज। आशा फिर आगे सरक जाती है। ऐसे जीवन भर आदमी उस सुख की आशा में जीता है और पाता निरन्तर दुःख है। यदा-कदा तो वह इस सुख की आशा के चक्कर में औरों के जीवन में दुःख को बढ़ा देता है। सुख की आशा बनी रहती है और प्रकृति, परिवेश, परिस्थिति दुःख की छटपटाहट से कराहते रहते हैं।

इस दशा में दो बातें सोची जा सकती हैं और सोची भी गयी हैं। पहला तो यह कि जीवन में आनन्द है ही नहीं, आनन्द की खोज ही गलत है। दूसरी बात यह है कि जैसा जीवन आज है, आज जीवन के जो रंग-ढंग हैं, तौर-तरीके, जीने की शैली है, उसमें आनन्द नहीं है। इनमें से जिनकी सोच पहली तरह की है, वे तो घोर नकारात्मक चिन्तन वाले निराशावादी हैं। उनके निराशावाद का गहरे से गहरा अर्थ आत्मघात के अतिरिक्त कुछ नहीं होता है। ऐसे लोग जीवन और उसके स्रष्टा के अनुदानों से सदा ही अपरिचित रहते हैं। जिनकी सोच दूसरी बात पर टिकती है, उन्हें इस सत्य का बोध होता है कि जीवन को परिवर्तित रूपांतरित करने की खोज आवश्यक है।

अब जीवन को परिवर्तित करने के भी दो विकल्प हैं। पहला विकल्प यह है कि जीवन को बाहर से बदल डालें, शायद आनन्द हो जाय। दूसरा विकल्प यह है कि हम बाहरी परिस्थितियों का आकार और आकृति नहीं अपनी आन्तरिक प्रकृति बदलें। जैसे हम हैं, उस होने को बदलें, शायद वहाँ आनन्द हो जाय। इन सभी दिशाओं में मनुष्य ने प्रयास किए हैं। निराशावादियों ने तो जीवन को समझने की चेष्टा ही नहीं की- उसके अर्थ और औचित्य को ही गंवा दिया। जिन्होंने जीवन को बाहर से बदलने की चेष्टा की, उन्होंने भारी सफलताएँ पायीं। अपने जीवन में अनेकों साधन जुटाए, शक्ति भी उपलब्ध की। परन्तु जीवन की आन्तरिक दृष्टि के अभाव में उनकी सारी उपलब्धियाँ उन्हीं के लिए अन्ततः भस्मासुर साबित हुई और हो भी रही हैं।

जिन्होंने अन्तिम विकल्प चुना, उनका प्रयास इन सभी प्रयासों में सबसे सार्थक, समग्र, तर्कपूर्ण एवं वैज्ञानिक सिद्ध हुआ। इस प्रयास को ही देव संस्कृति नाम दिया गया। इसके निष्कर्ष बहुत ही प्रभावी, अर्थपूर्ण और मानवी जीवन में क्रान्ति लाने वाले सिद्ध हुए। इस दिशा में प्रयोग करने वाले महावैज्ञानिक ऋषियों ने घोषणा की कि मनुष्य जीवन आनन्दपूर्ण हो सकता है यदि साधना को पहले और साधनों को बाद में स्थान दिया जाय। जीवन को आनन्द से भरपूर करने के लिए मनुष्य को पहले अपनी प्रकृति में बदलाव लाना होगा। बाद में इससे मिली नवीन जीवन दृष्टि के आधार पर परिस्थितियाँ बदली जा सकती हैं।

देव संस्कृति के सत्य का अनुसरण करने वाले एक नहीं अनेक लोगों के जीवन में असाधारण घटनाएँ घटीं। वे सचमुच ही मनुष्य रूप में देवता बन गए। अध्यात्म ज्ञान से उन्होंने अपनी आन्तरिक शक्तियों का अपरिमित विकास किया। भौतिक विज्ञान में भी उन्होंने आश्चर्यजनक प्रगति की। ज्ञान और विज्ञान की असंख्य एवं अनगिन धाराएँ इस देश की धरती पर प्रवाहित हुई। मनुष्य का देवता बनना यहाँ एक मिथक नहीं रहा, बल्कि सत्य प्रामाणित हुआ। देव संस्कृति के प्रणेता ऋषियों ने प्रायोगिक एवं वैज्ञानिक आधार पर जीवन एवं अस्तित्त्व को सत्-चित्-आनन्द सिद्ध किया। देव संस्कृति के सत्यों एवं सूत्रों का प्रवाह इस देश की धरती पर अविराम प्रवाहित होता रहा है। हाँ इसके वेग की गति अवश्य काल-क्रम के अनुसार परिवर्तित हुई है।

इस देश की धरती पर जन्में असंख्य ऋषियों, सन्तों एवं मनीषियों ने बार-बार, अगणित बार इसमें निहित सत्य और सूत्रों को प्रमाणित करने के लिए अपने जीवन की गवाही दी है। अपनी जीवन साधना से उन्होंने देव संस्कृति के निहितार्थ को प्रकट किया है। उन सबने बड़े ही आत्मविश्वास के साथ यह बात कही है कि जब एक के बाद एक और इस तरह से अनेक जनों के जीवन में देवत्व अवतरित हो सकता है, आनन्द घटित हो सकता है तो फिर सबके जीवन में क्यों नहीं? इस प्रश्न का उत्तर जीवन को समझने में हुई भूल के निवारण-निराकरण में है। देव संस्कृति के सूत्रों से मनुष्य की प्रकृति को परिष्कृत करना, संस्कारित करना ही एक मात्र उपाय है। इस उपाय को जब कभी, जिसने भी अपनाया, उसी के जीवन में आनन्द के फूल खिले, खुशियों की सुरभि बिखरी।

देव संस्कृति भारत वर्ष के सभी देव मानवों की साधना का सार है। यह देश की धरती का मौलिक सच है। इसमें अनेकों दैवी विभूतियों के तप की ऊष्मा है, ऊर्जा है, आभा है, प्रकाश है। वैदिक काल से लेकर हर युग में इसकी अभिव्यक्ति अपनी अनूठी रीति से होती रही है। विश्वामित्र, वशिष्ठ, वामदेव, वाल्मीकि, व्यास सभी ने इस सत्य की अनुभूति की। उन्होंने अपने जीवन को रूपांतरित करते हुए देव संस्कृति को जीवन विद्या का पर्याय माना। जीवन जीने की कला के रूप में इसकी व्याख्या की। अपने शिष्यों को इसके शिक्षण के लिए प्रेरित करते हुए कहा- ‘स्व-स्व आचरण शिक्षरेण पृथ्वियाँ सर्वमानवः’ अर्थात् अब तुम जाओ और पृथ्वी के सभी मनुष्यों को अपने निज के आचरण से देव संस्कृति के सत्य को, इसके सूत्रों को समझाओ, बताओ।

देव संस्कृति के विश्वव्यापी विस्तार का यही रहस्य है। देव संस्कृति के आचार्यों ने शब्दों से नहीं, वाणी से नहीं अपने आचरण से जन-जन को इसके सूत्र बताए। उन्होंने बार-बार कहा- मनुष्य जीवन विधाता का दुर्लभ अनुदान है। यह दुःख का नहीं आनन्द का पर्याय है। दुःख तो केवल इस कारण है कि हमसे इसको समझने में भूल हुई है। हम इसे ठीक तरह से समझ नहीं पाए हैं। इसी भूल के कारण हमारे जीवन को समझने में हुई नासमझी है। सच्चाई भी यही है, अगर जगत् में एक भी मनुष्य प्रकाश में खड़ा हो सका, तो फिर हमारा जो अंधेरा है, वह कुछ हमारे ही ओढ़े हुए के कारण है। शायद हम अपना द्वार बन्द किए बैठे हुए हैं घर में। सूरज तो बाहर निकला हुआ है। अगर एक मनुष्य के जीवन में संगीत घट सका है, और हमारे जीवन में नहीं है, तो शायद हमीं बहरे बने बैठे हैं, कान बन्द किए बैठे हैं क्योंकि संगीत है, यह एक मनुष्य के जीवन में घटने से सिद्ध हो जाता है। इसी तरह अगर एक मनुष्य के जीवन में आनन्द के स्वर उठ सकते हैं तो सबके जीवन में इसकी सम्भावना खुल जाती है।

यह सम्भावना हर युग में सम्भव है। ‘सम्भवामि युगे-युगे’ की अपनी शाश्वत प्रतिज्ञा पूरी करने आए परम पूज्य गुरुदेव ने देव संस्कृति के इसी सत्य को अपने जीवन से सिद्ध किया। युग सत्य को प्रकट करने के कारण वह युगऋषि कहाए। आचरण से शिक्षा देने के कारण उन्हें आचार्य कहा गया। देव संस्कृति के ज्ञान (वेद) की साकार मूर्ति होने के कारण वह वेदमूर्ति थे। तप से उन्होंने देव संस्कृति के सत्य की एक निष्ठ साधना की। यही उनके तपोनिष्ठ होने का रहस्य था। श्रीराम की ही भाँति वे मर्यादा पुरुषोत्तम थे। देव संस्कृति की सभी मर्यादाओं की स्थापना के लिए ही उन्होंने अवतार लिया था। ऐसे युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य हम सबके परम पूज्य गुरुदेव ने अपनी साधना से देवमानवों की शृंखला में कुछ नए निष्कर्ष जोड़े। उन्होंने इस युग में देव संस्कृति की आध्यात्मिक चेतना एवं वैज्ञानिक सत्य को एक नयी अभिव्यक्ति दी।

उन्होंने बताया कि देव संस्कृति समग्र जीवन की साधना है। इसमें पदार्थ और चेतना, विज्ञान और अध्यात्म दोनों का समुचित समावेश है। उदाहरण के लिए एक बीज को हम बोते हैं, अंकुर बीज से निकलता है, लेकिन पास में पड़ी बूँदें, गिरा पानी, सूरज की किरणें मौका बनती हैं। वे मौका बनती हैं कि अंकुर निकल सके, हालाँकि अंकुर उनसे नहीं निकलता, अंकुर तो बीज से ही निकलता है। यदि बीज की जगह कंकड़ डाला गया हो, तो अच्छी से अच्छी जमीन, अच्छे से अच्छा पानी, अच्छी चमकदार सूरज की किरणें और कुशल से कुशल माली भी उनमें अंकुर नहीं ला सकेंगे। दूसरी बात भी सच है- श्रेष्ठतम बीज हो, लेकिन अच्छी भूमि न मिले, उसे पत्थर पर डाल दिया गया हो, पानी न मिले, माली के कुशल हाथों का सहयोग न मिले तो अच्छे से अच्छा बीज पत्थर पर पड़ा हुआ, अंधेरे में पानी बिना, सूरज की किरणों के बिना, माली के अभाव में मर जाएगा। उसमें अंकुर नहीं निकलेगा। जिस तरह से बीज के अंकुरण के लिए अनेकों तत्त्वों का समुचित सामञ्जस्य जरूरी है, ठीक उसी तरह से मनुष्य जीवन के रूपांतरण के लिए, उसे आनन्द से ओत-प्रोत करने के लिए ज्ञान और विज्ञान के अनेकों सूत्र आवश्यक हैं। देव संस्कृति इन सभी सूत्रों की सम्मिलित व्यवस्था है। इसके निहितार्थ का साधनात्मक प्रशिक्षण, इसके निष्कर्षों का विश्ववसुधा में वितरण परम पूज्य गुरुदेव का दिव्य स्वप्न था।

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