
राष्ट्रधर्म की दीक्षा देना प्रथम कर्तव्य
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विश्वविद्यालय का राष्ट्रधर्म युवापीढ़ी में राष्ट्रीय संवेदनाओं का जागरण है। उनमें राष्ट्र प्रेम, राष्ट्र सेवा, राष्ट्र जागरण व राष्ट्र भक्ति की भावनाओं का उफान पैदा करना है। उनके हृदयों में वह संवेदनशीलता जगानी है, जो राष्ट्र की पीड़ा, वेदना, कसक और टीस की गहरी अनुभूति कर सके। युवा रक्त को यह बोध कराना है कि सन्तानों का अपनी राष्ट्र माता के प्रति क्या कर्त्तव्य है। अपनी माता से बिछुड़ चले युवाओं को यह याद दिलाना है कि देखो तो सही, माँ तुम्हें कितना प्यार करती है। भारत जननी की गोद की महिमा उसके लाडलों को समझानी है। युवा पीढ़ी को देश की मिट्टी की सोंधी सुगन्ध का गाढ़ा परिचय कराना है। उन्हें राष्ट्र धर्म की दीक्षा देनी है।
यह देव संस्कृति की सनातन परम्परा है। देवभूमि भारत के ऋषिगण सदा से अपने विद्या केन्द्रों में इस राष्ट्र तत्त्व का बोध कराते रहे हैं। अपने छात्र-छात्राओं को राष्ट्र धर्म की दीक्षा देते रहे हैं। ऋषि चिन्तन के स्वरों में हमेशा इस सत्य की गूँज रही है कि देश के जिस बालक, किशोर, युवा अथवा प्रौढ़ के दिलों में राष्ट्रीय-भावनाएँ नहीं धड़कती, वह एक अनाथ है, सिर्फ एक अनाथ। अपनी माँ के स्वरूप से, उसके गौरव से, उसकी उपलब्धियों और विभूतियों से, सबसे बढ़कर माँ के प्रेम से अपरिचित, अनजान व्यक्ति को भला और क्या कहेंगे। माँ से अपरिचित होने का, माँ से बिछुड़ने का दर्द केवल एक मातृहीन ही समझ सकता है। इसी तरह अपनी माता के लिए जान की बाजी लगा देने वाले रणबाँकुरों के दिलों में उफनने वाले गर्व और गौरव की अनुभूति भी कोई मातृभक्त ही कर सकता है।
यह तत्त्व साधारण नहीं है। वैदिक ऋषियों ने अपनी समाधि चेतना में इसे अनुभव किया और सारे देशवासियों से कहा-
भद्रं इच्छन्त ऋषयः सवर्विदः
तपो दीक्षाँ उपसेदुः अग्ने।
ततो राष्ट्र बलं ओजश्च जातम्
तदस्मै देवा उपसं नमन्तु॥ (अथर्व. 19/41/1)
‘आत्मज्ञानी ऋषियों ने जगत् का कल्याण करने की इच्छा से सृष्टि के प्रारम्भ में जो दीक्षा लेकर तप किया, उससे राष्ट्र निर्माण हुआ, राष्ट्रीय बल और ओज भी प्रकट हुआ। इसलिए सब विबुध इस राष्ट्र के सामने नम्र होकर इसकी सेवा करें।’
ऋषियों की महान् तप साधना से प्रकट हुई भारत माता ने ऋग्वेद के ऋषि को उसकी गहन समाधि में अपने दिव्य स्वरूप का परिचय देते हुए कहा, वत्स जान लो,
अहं राष्ट्री संगमनी वसूनाँ चिकीतुषी प्रथम यज्ञियानाम्।
ताँ मा देवा व्यदधुः पुरुन्नाभूरिस्थान्नाँ भूर्यावेशयमन्तीम्॥
(ऋग्वेद 10/10/125)
मैं राष्ट्र की अधीश्वरी, समृद्धियों का संगम, परब्रह्म से अभिन्न तथा सभी देवताओं में प्रधान हूँ। पूरे राष्ट्रीय परिवेश में मैं ही स्थित हूँ। अलग-अलग स्थानों में रहने वाले देवता जो भी करते हैं, वह मुझे जानकर ही करते हैं।
यही है हमारी भारत माता, जिसकी अनन्त शक्तियों से अनजान उसके सुपुत्र और सुपुत्रियों ने उससे मुँह मोड़ लिया है। हर साल अनेकों प्रतिभाशाली छात्र-छात्राएँ थोड़े से पैसों के लालच में पराए देश भाग जाते हैं। जो किसी कारण नहीं जा पाते, वे अगले साल चले जाने का सपना देखते हैं। आखिर यह सब क्यों? जिस देश की धरती में जन्म लिया, जिसकी मिट्टी में खेलकर बड़े हुए, जिसके अन्न-जल से शरीर का एक-एक कोश बना, उसमें रक्त की बूँदें इकट्ठी हुई, प्राण पले, उससे यूँ ही मुँह मोड़ा जाना कहाँ तक उचित है? और जो यहाँ हैं, उन्हीं को कौन सी परवाह है। वे भी तो धन, पद की दौड़ में भाग रहे हैं। सभी को आगे निकलने की जल्दी है, भले ही इसके लिए कोई भी भ्रष्ट नीति क्यों न अपनानी पड़े।
अपनी सन्तानों की यह दुर्दशा देखकर भारत माता व्याकुल हैं। उनकी विकल कराह संवेदनशील प्राणों में सुनी जा सकती है। बाहर के घुसपैठिये आकर माँ की छाती में रोज नए घाव देते हैं। जो अपने हैं, वे उसके आँचल की सुखद छाँव की अनुभूति करने के बजाय उसे चीर-फाड़कर तार-तार करने के लिए उतारू हैं। आज सब तरफ होड़ मची है- माता की सेवा के लिए नहीं, माँ पर शासन करने के लिए। सभी को गद्दी चाहिए- रौब जमाने के लिए, हुक्म चलाने के लिए, फिर चाहे भारत जननी बिलखती रहे, आँसू बहाती रहे, छटपटाती रहे, तो क्या हुआ? इस हालत का जिम्मेदार कौन है? तो इसका जवाब एक ही है- देश के विचारशील जन, जिन्होंने राष्ट्र के नागरिकों को राष्ट्र धर्म नहीं सिखाया।
युवा पीढ़ी को राष्ट्र धर्म की दीक्षा देने की यह जिम्मेदारी देव संस्कृति विश्वविद्यालय ने ली है। यह उद्घोष है इस सत्य का कि राष्ट्र माता से बिना किसी भौतिक या लौकिक लाभ की इच्छा को मन में जन्म दिए बगैर उसकी सेवा की उमंग में जीने वाले अभी भी हैं। यह महत्संकल्प है देश के लिए जीने और देश के लिए मरने वाली पीढ़ी के निर्माण का। यह साहस है उस संवेदना के विकास का जो साम्प्रदायिक टकरावों में नहीं, जाति या क्षेत्र के बंटवारों में नहीं, राष्ट्र धर्म के राष्ट्र प्रेम के मेल-मिलाप में यकीन रखती है। ये बातें कोरी कल्पना नहीं है। यह वह हकीकत है, जिसके अंकुर इस विश्वविद्यालय की धरती पर फूट चुके हैं। जिसमें अब-नयी-नयी कोपलें निकलने वाली है। जहाँ अनेकों नए कोमल किसलय पनपने वाले हैं। राष्ट्र भक्ति के ढेरों-ढेर सुरभित पुष्प मुस्कराने वाले हैं।
राष्ट्र धर्म देव संस्कृति विश्वविद्यालय की सभी गतिविधियों का केन्द्रीय स्वर है। यहाँ के समस्त क्रियाकलापों में इसकी मधुर सरगम सुनी जा सकेगी। विश्वविद्यालय की समस्त कक्षाओं के सभी विद्यार्थियों को उनकी कक्षा व आयु के अनुरूप, राष्ट्रीय गौरव, राष्ट्रीय मूल्य एवं राष्ट्रीय अस्मिता का ज्ञान कराया जाएगा। यह ज्ञान संवेदना ऐसी होगी कि यहाँ पढ़ने वाले छात्र-छात्राएँ अपने धर्म-मजहब की उच्च शिक्षा से तो अनुप्राणित होंगे, पर उनमें संकीर्णता लेश मात्र भी न होगी। वे सभी राष्ट्र धर्म को मानने वाले राष्ट्र भक्त नागरिक बनेंगे। भारत माता की आराधना उनके जीवन का आदर्श होगी।
इन मूल भावनाओं को व्यावहारिक रूप देने के लिए यहाँ प्रधानतया दो बिन्दु वाली कार्ययोजना अपनायी जाएगी। इसका पहला बिन्दु है- पाठ्यक्रम में राष्ट्र के सार्वभौम स्वरूप व इसके महत्त्वपूर्ण तत्त्वों, सत्यों एवं सूत्रों का समावेश। यह कार्य ऐसा होगा कि सभी जातियों, क्षेत्रों एवं धर्मों से आए विद्यार्थीगण पारस्परिक सौहार्द्र के साथ राष्ट्र का सार्थक परिचय पा सकें। उनमें सच्चे राष्ट्र प्रेम का विकास हो। उनके उज्ज्वल राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण हो। अपने देश व धरती के प्रति उनमें भाव-संवेदना विकसित हो सके। वे जान सकें कि देश पहाड़ों, नदियों, महासागरों से भरे जमीन का टुकड़ा भर नहीं है, यह अपनी माता का विराट् शरीर है। जिसके दूध की लाज निभाना उनके जीवन का अनिवार्य कर्त्तव्य है।
इस क्रम में दूसरे महत्त्वपूर्ण बिन्दु के रूप में कुछ व्यावहारिक परियोजनाओं को विकसित किया जाएगा। इनका स्वरूप राष्ट्रीय सेवा योजनाओं के प्रचलित रूप से कहीं अधिक व्यापक होगा। यह राष्ट्र प्रेम की व्यावहारिक अनुभूति कराने का प्रयास है। इसके माध्यम से विद्यार्थी यह जान सकेंगे कि बिना किसी संकीर्ण भेद-बुद्धि के राष्ट्रीय कर्त्तव्यों का पालन क्या होता है। ये सभी व्यावहारिक परियोजनाएँ छात्र-छात्राओं को यह अनुभूति कराएगी-
उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्ष तद्भारतं भारती यत्र सन्तति॥
पृथ्वी का भू-भाग जो समुद्र के उत्तर व हिमालय के दक्षिण में स्थित है, भारत वर्ष कहलाता है तथा उसकी सन्तानों को भारतीय कहते हैं।
यही वह देश है जिसके लिए कहा गया है-
गायन्तिदेवाः किलगीतकानि धन्यास्तु ये भारतभूमि भागे।
स्वर्गायवर्गास्पद हेतुभूते भवन्ति भूयः पुरुषा सुरत्वात्॥
‘देवता भी इस पवित्र भूमि भारत के गीत गाते हैं। और देवताओं में भी उन्हें धन्य कहा जाता है, जो स्वर्ग और अपवर्ग के लिए साधनभूत भारतभूमि में उत्पन्न हुए हैं।’ राष्ट्रीय भावनाओं की यह अनुभूति विश्वविद्यालय के मुख्य परिसर के साथ भविष्य में विकसित होने वाले सभी सम्बद्ध केन्द्रों में भी की जा सकेगी।