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Magazine - Year 2002 - Version 2

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ऋषि दृष्टि से होगी यह क्रान्ति

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शिक्षा जगत् में एक नयी क्रान्ति ऋषि दृष्टि से ही सम्भव है। ऋषि दृष्टि की अपनी अनूठी विशेषता है। ऋषि उतना ही नहीं देखते, जो हम सबको दिखाई दे रहा है। वे उसे भी देखते हैं, जिसे हमारी आँखें नहीं देख पातीं। वे जीवन की सतही सीमाओं के साथ उसकी गहराइयों में छुपी असीम सम्भावनाएँ भी देखते हैं। अपनी उज्ज्वल दृष्टि से मनुष्य के वर्तमान के अलावा उसके भविष्य को भी निहारते हैं। इसे गढ़ने, संवारने की प्रक्रियाएँ और प्रयोग करते हैं। देव संस्कृति विश्वविद्यालय, युग ऋषि परम पूज्य गुरुदेव की दिव्य दृष्टि की ऐसी ही विशेषता का साकार रूप है। यह वह क्रान्ति भूमि है, जिसमें शिक्षा जगत् में एक नयी क्रान्ति के अनेकों क्रान्तिकारी आयाम जन्म ले रहे हैं।

शिक्षा का वर्तमान जग जाहिर है। इसके बारे में रोज बहुत कुछ कहा जाता है, लिखा जाता है और छापा जाता है। कभी मैकाले ने जो बीज बोए थे, आज उसकी कटीली फसल से समूचा देश लहूलुहान हो रहा है। पर मैकाले से मुकाबला कौन करे? यह सवाल आज के दौर में कुछ उसी तरह से है, जिस तरह से कभी चूहों के झुण्ड में यह सवाल उठा था कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बाँधे? नुकसान से सभी परिचित हैं, पर समाधान का साहस कौन करे? महत्त्वाकाँक्षी, किन्तु श्रम, साहस और संकल्प से विहीन बेरोजगारों की बढ़ती भीड़ आज की शिक्षा का वर्तमान है। यह भीड़ मनुष्य जीवन की सभी उज्ज्वल सम्भावनाओं को भुला बैठी है। उसके पास तो बस कुण्ठा, निराशा और हताशा की पर्याय बनी कुछ डिग्रियों, उपाधियों के छोटे-बड़े ढेर बचे हैं।

स्थिति का समाधान क्रान्ति की नयी रोशनी में है। इसी के उजाले में नए जीवन मूल्य दिखाई देंगे। मनुष्य की दशा सुधरेगी और उसे सही दिशा मिलेगी। इस क्रान्ति से ही शिक्षा के परिदृश्य में छाया हुआ कुहासा मिटेगा और उसका विद्या वाला स्वरूप निखरकर सामने आएगा। तभी पता चलेगा कि शिक्षा जीवन की सभी दृश्य एवं अदृश्य शक्तियों का विकास है। तभी जाना जा सकेगा कि विचार और संस्कार से ही व्यक्तित्व गढ़े जाते हैं। इसके बिना पुस्तकीय ज्ञान गर्दन तोड़, कमर तोड़ बोझ के सिवा और कुछ नहीं। शिक्षा जगत् में एक नयी क्रान्ति होने से सूझ-बूझ, सोच-समझ के नए आदर्श प्रकट होंगे। और तभी साहस, संकल्प एवं श्रम की सामर्थ्य से भरे-पूरे प्रचण्ड आत्मबल के धनी मनुष्य का जन्म होगा। रोने-गिड़गिड़ाने वाले, दीन-हीन, सम्मान और स्वाभिमान से विहीन, परमुखापेक्षी मनुष्य कहे जाने वाले प्राणियों की भीड़ छँटेगी।

देव संस्कृति विश्वविद्यालय का जन्म इसी क्रान्ति को प्रकट करने के लिए हुआ है। युग ऋषि की यह संकल्प सृष्टि, उन्हीं की दृष्टि के अनुरूप शिक्षा को जीवन जीने की कला के रूप में विकसित करने के लिए हुई है। ध्यान रहे जीवन मिलता नहीं, निर्मित करना होता है। इसीलिए मनुष्य को शिक्षा की जरूरत है। शिक्षा का एक ही अर्थ है कि हम जीवन की कला सीख सकें। इस बारे में एक बड़ी मीठी कथा है-

एक घर में बहुत दिनों से एक वीणा रखी थी। उस घर के लोग उस वीणा का उपयोग भूल गए थे। पीढ़ियों पहले कभी उस घर के पूर्वज उस वीणा को बजाते रहे थे। बाद में किसी बाहर वाले के प्रभाव से उस घर के लोगों ने वीणा बजाना बन्द कर दिया। उसी की चाकरी करने लगे। बाहर वाले ने उन्हें वीणा बजाना छुड़ाकर चाकरी करना सिखा दिया था। उसके चले जाने के बाद भी घर के लोगों की आदत नहीं बदली। घर की वीणा कोने में पड़ी, धूल खाती रही। अब तो कभी कोई भूल से बच्चा छलाँग लगाकर उस वीणा को गिरा देता, तो आधी रात में उसके तार झनझना जाते, घर के लोगों की नींद टूट जाती। वह वीणा एक उपद्रव का कारण हो गयी। अन्ततः उस घर के लोगों ने एक दिन तय किया कि वीणा को फेंक दें- जगह घरेती है, कचरा इकट्ठा करती है और शान्ति में बाधा डालती है। उन सबने मिलकर वीणा को घर के बाहर कूड़ेदान में फेंक दिया।

वे लौट नहीं पाए थे कि एक साधु उधर से गुजरा। उसने वह वीणा उठा ली और उसके तारों को छेड़ दिया। फिर तो जैसे उस घर में क्रान्ति हो गयी। सबके सब उस साधु को घेर कर खड़े हो गये, उस रास्ते से और भी जो निकला, ठिठककर खड़ा हो गया। वहाँ भीड़ लग गयी। वह साधु मंत्रमुग्ध होकर वीणा बजा रहा था। जब उन्हें वीणा का स्वर संगीत मालुम पड़ा और जैसे ही उस साधु ने वीणा वादन बन्द किया, कि सब झपट पड़े, बोले, यह वीणा हमारी है, इसे हमें लौटा दो। साधु हंसा, पहले बजाना तो सीख लो, अन्यथा फिर उपद्रव खड़े होंगे। बजाना न आता तो वीणा घर की शान्ति भंग करने लगती है। यदि बजाना आता है तो वीणा घर को शान्तिपूर्ण और संगीतमय बना सकती है।

कथा का सार इतना ही है कि जीवन भी एक वीणा है। जीवन हम सबको मिल जाता है, लेकिन उस जीवन की वीणा को बजाना बहुत कम लोग सीख पाते हैं, प्रायः नहीं ही सीख पाते हैं। इसीलिए इतनी उदासी है, इतना दुःख है, इतनी पीड़ा है। इसीलिए देश और संसार में इतना अंधेरा है, इतनी हिंसा है, इतनी घृणा है। इसीलिए जगत् में इतना युद्ध है, इतना वैमनस्य है, इतनी शत्रुता है। जो संगीत बन सकता था जीवन, वह विसंगीत बन गया है, क्योंकि हम उसे बजाना नहीं जानते हैं।

शिक्षा जगत् में एक नयी क्रान्ति का इतना ही अर्थ है कि समूचा देश, सारा मानवीय जीवन अपनी जीवन वीणा को बजाना सीख ले। आज की शिक्षा, जिसमें अभी भी गुलामी के भद्दे दाग हैं- वह जीवन संगीत की उपेक्षा करना सिखाती है। विद्यार्थियों में प्रथम कक्षा से ही पनपती है, एक दूसरे को गला काटने वाली विचारहीन प्रतियोगिता। इससे जन्मती है अहंकार से भरी आकाँक्षाएँ। जिसकी ये आकाँक्षाएँ पूरी हो जाती है, वह और भी अधिक अहंकार से भर जाता है। जिसकी नहीं पूरी हो पाती, वह और भी अधिक निराशा एवं कुण्ठा के अंधेरों में जा गिरता है। जबकि सबके जीवन में अपनी मौलिकता है, सभी के जीवन पुष्प की अपनी सुगन्ध है। भगवान् ने धरती पर किसी को किसी से तनिक भी न्यून नहीं बनाया है। बस उसे उसके अपने मौलिक विकास के अवसर मिलने चाहिए। फिर तो सभी के जीवन-पुष्प समान रूप से अपनी-अपनी अनूठी सुगन्ध बिखेरने लगेंगे।

देव संस्कृति विश्वविद्यालय में शिक्षा की यही नयी क्रान्ति होने जा रही है। यहाँ आध्यात्मिक दृष्टि से विद्यार्थी की मौलिकत्व को परखकर उसका भरपूर विकास किया जाएगा। मनुष्य जीवन के हर तल पर अपरिमित ऊर्जा समायी है। देह, प्राण, मन, बुद्धि के छोटे-छोटे हिस्से में सम्भावनाओं के महासागर भरे पड़े हैं। बस इनकी सही और सटीक अभिव्यक्ति की कला खोजनी है। नए मनुष्य को गढ़ने वाले जीवन मूल्यों को अर्थ देना है। देव संस्कृति विश्वविद्यालय में यही होने जा रहा है। सम्भव है ऐसी या इससे मिलती, जुलती बातें पहले भी कही गयी हो। पर यहाँ की बात कुछ और ही है। यहाँ कहा नहीं किया जा रहा है। यहाँ केवल शिक्षा जगत् में सार्थक क्रान्ति की तस्वीरें नहीं प्रदर्शित की जा रही हैं। यहाँ तो महाक्रान्ति की ज्वालाएँ जाग उठी हैं, जिसमें व्यर्थ का कूड़ा-कचरा जल रहा है और नयी सार्थकता की चमक पैदा हो रही है।

इस क्रान्ति का मौलिक सूत्र है कि ‘शिक्षा आन्तरिक अंकुरण है, बाहरी आरोपण नहीं।’ यहाँ आने वाले विद्यार्थी पुस्तकीय ज्ञान के बोझ से लदने के बजाय अपने आन्तरिक ज्ञान का विकास करेंगे। उन्हें मानव जीवन की दिव्य शक्तियों का ज्ञान कराया जाएगा। यह ज्ञान होने से उन्हें यह बोध होगा कि जीवन का अर्थ परमुखापेक्षी और परावलम्बी होना नहीं, बल्कि अपने साहस, संकल्प, श्रम एवं मनोयोग के बलबूते सब कुछ कर गुजरने में समर्थ होना है। यह कथ्य-तथ्य है और सत्य भी। जिन्हें इसकी अनुभूति पानी हो वे देव संस्कृति विश्वविद्यालय के परिसर में पधारें और देखें, कैसे यहाँ मैकाले के भूत को भगाया जा रहा है? किस तरह शिक्षा जगत् की एक नयी क्रान्ति साकार रूप ले रही है। इस क्रान्ति के सत्य ने ही विश्वविद्यालय की विश्वदृष्टि को जन्म दिया है। जिसके प्रभाव से यहाँ राष्ट्र और विश्व की अगणित समस्याओं के समाधान खोजे और पाए जा रहे हैं।

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