
ऋषिकल्प जीवन के अभिलाषियों के लिए साधना संकाय
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साधना संकाय के पाठ्यक्रमों में देव संस्कृति के प्रणेता ऋषियों के जीवन का प्रकाश है। इनमें उन प्रयोगों, प्रक्रियाओं, सिद्धान्तों एवं व्यावहारिक सूत्रों का समन्वय-सामञ्जस्य है, जो उनकी उपलब्धियों का आधार बने। साधना की विधियाँ प्राचीन भारत के महर्षियों का सर्वोत्कृष्ट अनुसन्धान है। उन्होंने साधना-विज्ञान के द्वारा ही मनुष्य की प्रकृति का परिष्कार एवं विकृति का निवारण-निराकरण करके संस्कृति को जन्म दिया। संस्कृति के सूत्रों को, साधना के सत्य को जानकर ही जाना और सीखा जा सकता है। मनुष्य में देवता के अवतरण की प्रयोगात्मक विधि यही है। मनुष्य मात्र के लिए इसकी वैज्ञानिक उपयोगिता को सिद्ध करने के लिए ही देव संस्कृति विश्वविद्यालय में साधना संकाय की स्थापना की गयी है।
देश की धरती में ध्रुव, नचिकेता आज भी जन्म लेते हैं। जिनमें साधना की लगन एवं प्यास होती है। जो अध्यात्म विद्या को पढ़ना और सीखना चाहते हैं। आध्यात्मिक प्रयोगों में लीन होने के लिए जिनके मन में विकलता जगती है। आज भी भारत जननी की कोख में तप, त्याग और साधना के अंकुर पलते हैं, पर जीवन पाने के पहले ही इनका मरण हो जाता है। समुचित मार्गदर्शन के अभाव में साधना और साधक दोनों ही मुरझा जाते हैं। मानव जीवन की उच्चतर अभीप्साएँ या तो असमय ही कुम्हला जाती हैं, या फिर भौतिकता की भूल-भुलैया में भटक जाती है। मनुष्य में देवत्व के अंकुर तो फूटते हैं, पर उसके विकास के लिए सही खाद-पानी नहीं मिल पाता। दिव्य जीवन जीने की प्यास तो जगती है, पर उसे प्यासे ही दम तोड़ने के लिए विवश होना पड़ता है।
साधना संकाय के पाठ्यक्रम विवशता के इसी चक्रव्यूह को ध्वस्त करने के लिए है। देव संस्कृति विश्वविद्यालय में साधना संकाय की स्थापना इस संकल्प का उद्घोष है- कि अब अध्यात्म विद्या के जिज्ञासुओं को प्रभावकारी मार्गदर्शन का अभाव न रहेगा। कठोर साधना के अभिलाषियों के लिए आध्यात्मिक साधनाएँ फिर से प्रकाशित की जाएँगी। तप के गुह्य व गहन प्रयोगों में तत्पर होने वालों की अभीप्सा को अब निराश न होना पड़ेगा। साधना संकाय के पाठ्यक्रमों का निर्माण एवं संचालन ऐसे ही संकल्पित अध्यात्म अभिलाषियों के लिए है। इसका उद्देश्य देश व धरती के वातावरण को तप की ऊर्जा से ऊर्जावान बनाना है। हिमालय की गहन कन्दराओं में जो वैभव खोया हुआ है, उसे फिर से प्रकट व प्रकाशित करना है। हिमालय के ऋषियों के सन्देश से धरा को ध्वनित करना है। विश्व भर के विविध धर्मों के मूल तत्त्वों व सत्यों को उजागर करना है। उनमें समभाव, सद्भाव एवं एकता की खोज करनी है। यह बताना है कि सभी धर्मों के संस्थापकों के संदेश का मूल स्वर- संवेदना है। इसी दैवी एवं दिव्य संवेदना से मानव जीवन को आप्लावित करना है।
साधना संकाय के पाठ्यक्रमों की संरचना व सरंजाम के उद्देश्यों को कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं में परिभाषित किया जा सकता है- 1. भारत देश के ऋषियों, सन्तों एवं महापुरुषों द्वारा प्रवर्तित एवं अनुभूत साधना-सिद्धान्तों का ज्ञान, 2. विश्व वसुधा के विभिन्न धर्मों व उनके संस्थापकों, व विश्व भर के अध्यात्मवेत्ताओं के द्वारा बताए गए धार्मिक तत्त्वों व साधना-विधियों का समुचित ज्ञान, 3. प्रायः समस्त साधना विधियों का आधुनिक वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में अध्ययन-अनुसन्धान, 4.कतिपय साधनात्मक प्रयोगों का व्यावहारिक शिक्षण। ये चार बिन्दु मूलतः सैद्धान्तिक है। इनसे पाठ्यक्रमों की थ्योरी भर पता चल पाती है। जिसके कुछ अंश अन्य विश्वविद्यालयों में भी देखने को मिल जाते हैं।
जो सत्य केवल यहाँ और यहीं देखने को मिलेगा, उसकी अभिव्यक्ति करने वाले बिन्दु भिन्न है- 1. साधना संकाय के विद्यार्थियों के संकल्प बल का असाधारण विकास, 2. जीवन की अवाँछनीय आदतों, कुसंस्कारों, कुप्रवृत्तियों की जटिलताओं से छुटकारा, 3. मानव चेतना में समायी सम्भावनाओं का ज्ञान, 4. अतीन्द्रिय सत्य एवं शक्ति का व्यावहारिक प्रशिक्षण। ये चारों बिन्दु महत्त्वपूर्ण हैं। इन्हीं से साधना के अर्थ एवं महत्त्व को समझने की शुरुआत होती है। इसी से वह नींव मजबूत होती है, जिसके ऊपर अध्यात्म विद्या का भव्य मन्दिर गढ़ा जा सकता है, ऋषि प्रणीत उद्देश्य साकार किए जा सकते हैं।
इन सभी उद्देश्यों को चरितार्थ करने वाले पाठ्यक्रमों के स्वरूप व स्तर विद्यार्थियों की आयु व योग्यता के अनुसार भिन्न-भिन्न होंगे। इन्हें सर्टीफिकेट डिप्लोमा, डिग्री, पोस्ट ग्रेजुएट स्तर का अलग-अलग बनाया जाएगा। इन पाठ्यक्रमों के स्तर के अनुरूप ही इनमें विभिन्न धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन, उनमें पारस्परिक समन्वय व एकता स्थापित करने वाले सूत्रों का अन्वेषण, सर्वधर्म समभाव की समरसता स्थापित करने वाले बिन्दुओं का शिक्षण किया जाएगा। साथ ही अध्यात्म विज्ञान के दार्शनिक सत्यों- हठयोग, लययोग, राजयोग, स्वरयोग, प्राणयोग, मंत्र विज्ञान, गायत्री महाविद्या के विभिन्न पहलुओं के अध्ययन एवं शिक्षण की व्यवस्था की जाएगी। इन पाठ्यक्रमों के द्वारा विद्यार्थियों के व्यक्तित्व को नए सिरे से गढ़ने-ढालने की प्रक्रिया पूरी की जा सकेगी।
साधना संकाय के किसी भी पाठ्यक्रम की सीमा कतिपय सिद्धान्तों को रटने और रटाने से कहीं बहुत अधिक है। साधना संकाय में पढ़ने वाले और पढ़ाने वाले दोनों का ही साधक होना अनिवार्य है। इस संकाय में उन्हीं का स्थान सुनिश्चित होगा जो अध्यात्म विद्या के अनुरागी हैं। जो मानव धर्म व विश्व धर्म की स्थापना करने, सब धर्मों के अनिवार्य तत्त्वों में समायी एकता को समझने के लिए समर्पित हैं। जिनमें तपस्वी जीवन जीने का संकल्प है। जो साधना के कठोर प्रयोगों को अपनाने में सक्षम हैं। ऐसे संकल्पवान, तप-परायण जीवन जीने के अभ्यासी व्यक्तियों के लिए ही आध्यात्मिक अनुशासनों की विधि व्यवस्था में स्वयं को खपा पाना सम्भव है। इस सत्य से परिचित जन ही साधना संकाय के सदस्य हो सकेंगे।
इस संकाय के पाठ्यक्रमों के लिए और भी कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दु अनिवार्य है- 1. धार्मिक सद्भाव व समभाव साधना के लिए उपयुक्त वातावरण, 2. साधना विज्ञान के वैज्ञानिक प्रयोगों की समुचित विधि व्यवस्था, 3. अध्यात्म साधना के अनुरागी आचार्य एवं 4. संकल्पवान एवं आध्यात्मिक अनुशासनों के लिए समर्पित विद्यार्थी। उपर्युक्त चार में से तीन अनिवार्यताओं को जुटाने की विधि व्यवस्था विश्वविद्यालय के संचालकों ने पूरी कर ली है। चौथे क्रम के अनुरूप विद्यार्थियों की बड़ी आतुर प्रतीक्षा है।
इन पंक्तियों के पाठकों को यह बात गहराई से जान लेना चाहिए कि इस संकाय में विद्यार्थी प्रवेश तो सामान्य एवं साधारण जन की ही तरह करेंगे। पर उनकी परिणति सामान्य और साधारण नहीं होगी। यहाँ के पाठ्यक्रमों के साँचे उन्हें कुछ विशेष ही रूप और गुण प्रदान कर देंगे। उनकी आकृति तो वही रहेगी, किन्तु प्रकृति पूरी तरह बदल जाएगी। वे धार्मिक सद्भाव व समभाव को जन्म देंगे। सामान्य मनुष्य के भीतर असामान्य शक्तियाँ किस तरह से अंकुरित एवं पल्लवित होती है, इसके विज्ञान को वे जानेंगे, अनुभव करेंगे। यहाँ पर इन पाठ्यक्रमों का अध्ययन उन्हें ऋषित्व के वरदान देगा। जो विद्यार्थी ऋषिकल्प जीवन के अभिलाषी हों, उन्हें देव संस्कृति विश्वविद्यालय के साधना संकाय से संपर्क करना चाहिए।
ऋषियों का देश भारत ऋषित्व से विहीन क्यों है? इसी कसक, दर्द एवं पीड़ा से विकल होकर साधना संकाय की स्थापना की गई है। यह पीड़ा ही इसमें पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रमों के निर्माण की प्रेरणा बनी है। देश की धरती में, विश्व वसुधा में फिर से ब्रह्मर्षि विश्वामित्र, महातेजस्वी महर्षि अगस्त्य के नवीन संस्करण अपनी तप शक्ति से, साधना सामर्थ्य से मानव हृदयों को आलोकित करे, यही इन पाठ्यक्रमों को पढ़ाने का मकसद है। इन पाठ्यक्रमों को पढ़ने वाले श्री रामकृष्ण परमहंस द्वारा बताए गए ‘जतो मत-ताते पथ’ का अर्थ समझ सकेंगे। वे जान सकेंगे कि सब धर्मों का सार एक है। सभी धर्म साधनाओं एवं आध्यात्मिक प्रक्रियाओं का गन्तव्य एक है। युग ऋषि परम पूज्य गुरुदेव की अपरिमित तप ऊर्जा, उनके द्वारा अर्जित की गई विद्याएँ साधना संकाय के पाठ्यक्रमों के माध्यम से ही अभिव्यक्त होंगी। इनसे उपजी प्राण ऊर्जा से स्वास्थ्य संकाय के पाठ्यक्रम जन्म लेंगे। और रुग्ण होते जा रहे मानव समाज को समग्र स्वास्थ्य का बोध कराएँगे।