
घट-घट में बसै गुरु की चेतना
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करीब २२- २३ साल पहले की बात है। तब मैं कॉलेज में पढ़ा करती थी।
फरवरी का महीना था। मैं अपनी माँ के साथ ग्राम हर्री,जिला अनूपपुर में
अन्नप्राशन संस्कार कराने गई थी। कार्यक्रम शाम का था। लौटने में थोड़ी देर
हो गई। शहडोल की आखिरी बस छः बजे थी। हम जल्दी- जल्दी बस स्टैण्ड पहुँचे।
लेकिन पता चला कि बस अभी ५ मिनट पहले ही जा चुकी है। यह सुनकर हम माँ बेटी
दोनों के प्राण सूख गए। इसके बाद कोई दूसरी बस नहीं थी। माँ को वापस घर
जैतहरी जाना था और मुझे शहडोल जाना था, क्योंकि मैं पढ़ाई कर रही थी। दूसरे
दिन प्रैक्टिकल था। इसलिए जाना जरूरी था। माँ की बस आधा घंटे बाद थी, लेकिन
वह हमें न अकेले छोड़ सकती थी न वापस साथ ले जा सकती थी। बस छूटने के थोड़ी
देर बाद एक कार आई। उसे रुकने के लिए हाथ दिया। क्योंकि कार में बैठे
व्यक्ति बैंक मैनेजर थे जिनसे जान पहचान थी। लेकिन वे रुके नहीं, आगे बढ़
गए। अब कोई साधन नहीं था। थोड़ी ही देर में घर के तरफ की बस आनेवाली थी।
चिंता थी कि उसे भी न छोड़ना पड़ जाए। इसलिए हम और परेशान हो रहे थे। कोई
उपाय न देखकर हम दोनों मिलकर गुरु देव से प्रार्थना करने लगे कि गुरु देव
हमें कोई रास्ता बताइए। इस स्थिति में अब क्या करें? आप ही कोई उपाय कीजिए।
जाड़े का समय था। धीरे- धीरे अँधेरा बढ़ता जा रहा था। हम लोगों की परेशानी
भी बढ़ती जा रही थी।
तभी अचानक दूसरी ओर से एक कार हमारे सामने आकर रुकी। हमने देखा ये तो मैनेजर साहब हैं। वे बोले- बेटा क्या बात है? कहाँ जाना है? मुझे लगा तुम लोगों को मेरे सहयोग की जरूरत थी। मैंने ध्यान नहीं दिया। मैं करीब दो किलोमीटर आगे चला गया था। लेकिन मुझे आभास हुआ कि तुम्हें सहयोग की जरूरत हैं इसलिए वापस चला आया। गुरु जी के असीम स्नेह को अनुभव कर हम धन्य हो गए। उसी दिन मैं यह जान पाई कि बच्चों की कितनी चिन्ता रहती है उन्हें। इस सज्जन में हमारे प्रति विशेष सद्भावना जगाकर 2 कि०मी० मी० से वापस बुला लाए।
मैनेजर साहब ने कहा- बेटी कहाँ तक जाओगी? मैंने कहा- चाचाजी मुझे शहडोल जाना है। मेरी बस छूट गई है। आप कहाँ जा रहे हैं? उन्होंने कहा- वैसे तो बुढ़ार तक जाना है, बैठो मैं छोड़ देता हूँ। आगे देखता हूँ। मेरी माँ मुझे कार में बैठाकर निश्चिन्त होकर दूसरी बस से घर के लिए रवाना हो गई। मैं जैसे ही बुढ़ार बस स्टैण्ड के पास पहुँची तो वहीं पर छूटी हुई बस भी खड़ी थी। बस का कण्डक्टर जोर- जोर से चिल्ला रहा था। शहडोल की आखिरी बस है। शहडोल की सवारी बस में आ जाएँ। मैं कार से उतर कर बस में बैठकर सकुशल अपने गंतव्य स्थान तक पहुँच गई। उस दिन की घटना से मेरा रोम- रोम गुरु देव के प्रति कृतज्ञ हो उठा। ऐसा था उनका साथ, संरक्षण, सहयोग जिसे हम शब्दों में नहीं व्यक्त कर सकते।
प्रस्तुतिः श्यामा राठौर, शांतिकुंज (उत्तराखण्ड)
तभी अचानक दूसरी ओर से एक कार हमारे सामने आकर रुकी। हमने देखा ये तो मैनेजर साहब हैं। वे बोले- बेटा क्या बात है? कहाँ जाना है? मुझे लगा तुम लोगों को मेरे सहयोग की जरूरत थी। मैंने ध्यान नहीं दिया। मैं करीब दो किलोमीटर आगे चला गया था। लेकिन मुझे आभास हुआ कि तुम्हें सहयोग की जरूरत हैं इसलिए वापस चला आया। गुरु जी के असीम स्नेह को अनुभव कर हम धन्य हो गए। उसी दिन मैं यह जान पाई कि बच्चों की कितनी चिन्ता रहती है उन्हें। इस सज्जन में हमारे प्रति विशेष सद्भावना जगाकर 2 कि०मी० मी० से वापस बुला लाए।
मैनेजर साहब ने कहा- बेटी कहाँ तक जाओगी? मैंने कहा- चाचाजी मुझे शहडोल जाना है। मेरी बस छूट गई है। आप कहाँ जा रहे हैं? उन्होंने कहा- वैसे तो बुढ़ार तक जाना है, बैठो मैं छोड़ देता हूँ। आगे देखता हूँ। मेरी माँ मुझे कार में बैठाकर निश्चिन्त होकर दूसरी बस से घर के लिए रवाना हो गई। मैं जैसे ही बुढ़ार बस स्टैण्ड के पास पहुँची तो वहीं पर छूटी हुई बस भी खड़ी थी। बस का कण्डक्टर जोर- जोर से चिल्ला रहा था। शहडोल की आखिरी बस है। शहडोल की सवारी बस में आ जाएँ। मैं कार से उतर कर बस में बैठकर सकुशल अपने गंतव्य स्थान तक पहुँच गई। उस दिन की घटना से मेरा रोम- रोम गुरु देव के प्रति कृतज्ञ हो उठा। ऐसा था उनका साथ, संरक्षण, सहयोग जिसे हम शब्दों में नहीं व्यक्त कर सकते।
प्रस्तुतिः श्यामा राठौर, शांतिकुंज (उत्तराखण्ड)