
जहर की पुड़िया रखी रह गई
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मेरे दादा जी की गिनती इलाके के खानदानी अमीरों में होती थी। वे सोने-चाँदी की एक बड़ी दुकान के मालिक थे। एक बार किसी लेन-देन को लेकर दादाजी और पिताजी में ऐसा विवाद हुआ कि हमारे पिताजी हम चार भाई बहनों को छोड़कर घर से निकल गए। उनका आज सन् २०११ तक कुछ पता नहीं है। पिताजी के चले जाने के बाद माँ की घर में बहुत उपेक्षा होने लगी। एक समय स्थिति ऐसी आई कि हमारे नाना जी हम बच्चों के साथ माँ को विदिशा लेकर चले गए। उनका अपना भी परिवार था, अतः हम सबके भरण-पोषण में काफी दिक्कत होने लगी। अन्त में माँ को हम बच्चों की परवरिश के लिए दूसरों के घर बर्तन धोना व झाडू-पोछा का काम करना पड़ा।
सन् १९८९ई. में हमारी बुआ रामकली सोनी कलेक्ट्रेट में काम करती थीं। उनके माध्यम से गायत्री परिजन श्री रमेश अभिलाषी व रागिनी आन्टी के घर झाडू़-पोछा का काम माँ को मिला। रागिनी आन्टी देवकन्या के रूप में शान्तिकुंज में रह चुकी थीं। उनसे प्रभावित होकर हम लोग भी गायत्री मन्दिर के यज्ञों में भाग लेने लगे। तब मैं पाँचवीं कक्षा में था। मैं यज्ञ में स्वाहा शब्द का जोर से उच्चारण करता। भाई श्री रमेश जी उस उच्चारण से मेरी ओर आकर्षित हुए। उन्होंने मुझे रोज मंदिर आने की प्रेरणा दी। मैंने नियमित रूप से मंदिर जाना शुरू कर दिया। बाद में तो मैं मंदिर में ही रहने लगा। वहाँ का जो काम मुझे बताया जाता, उसे मन लगाकर पूरा करता।
समय बीतता गया। मैं पढ़ाई और मंदिर में काम के साथ पेपर बाँटने का काम करने लगा। कुछ और बड़ा होकर मजदूरी की, बाइंडिंग का काम किया, किराना दुकान, कपड़े की दुकान में काम किया और अपने घर की जिम्मेदारी यथासाध्य पूरी करने की कोशिश करता रहा।
बहनें बड़ी हुईं। सबसे बड़ी बहन की शादी राजस्थान के श्री मुरली मनोहर सोनी जी के साथ तय हुई। सगाई सम्पन्न हुई। सुसंस्कृत परिवार था इसलिए उन्होंने कुछ माँगा नहीं, पर शादी तो शादी होती है। कई तरह के छोटे-बड़े खर्च करने ही होते हैं। मेहनत मजदूरी करके घर के खर्चे ही बड़ी मुश्किल से पूरे हो पाते थे। बहन की शादी के लिए कभी कुछ जोड़ ही नहीं सका। अब कैसे क्या व्यवस्था होगी, इन्हीं चिन्ताओं को लेकर शादी के कार्ड छपवाये।
सभी रिश्तेदार चाचा, ताऊ, फूफा पिताजी के घनिष्ठ मित्रों के यहाँ कार्ड दिया और सहायता माँगी। सभी ने आश्वासन दिए। उनके भरोसे मैं आगे बढ़ता रहा। दिन बीतते गए, पर कहीं से कोई सहायता नहीं मिली। नाना जी हमेशा से ही हमारे दुःख-सुःख के साथी थे। उन्होंने आंशिक सहयोग किया, किन्तु वह शादी हेतु अपर्याप्त था।
जब शादी के एक दिन पहले एक-एक करके सभी ने सहायता हेतु हाथ खड़े कर दिए तो मेरे हाथ पैर ठण्डे होने लगे। समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या होगा। अगले दिन बारात आने वाली थी और अभी तक उनके ठहरने, खाने का कोई इन्तजाम नहीं हो सका। यहाँ तक कि बहिन के लिए एक जोड़ी साड़ी तक नहीं खरीदी जा सकी। ऐसे में तो निश्चित ही दरवाजे से बारात वापस लौट जाएगी। यही सब सोचते हुए मैं पूज्य गुरुदेव के चित्र के सामने बैठकर खूब रोया।
मैं लड़का ही था अप्रैल सन् २००० में। एक कागज पर लिखा-मैं मेरी माँ व बहन तीनों आत्महत्या कर रहे हंै। हमने उसे गुरुदेव की पूजा चौकी पर पीछे की ओर रख दिया और बाजार से जहर ले आया। तय कर चुका था कि रात को सबके खाने में मिला दूँगा। रात के आठ बजे मैंने माँ से कहा- भूख लग रही है माँ! खाना निकालो। आज हम सब साथ बैठकर खाएँगे।
माँ खाना निकालने ही जा रही थी कि एक ही साथ पूरा गायत्री परिवार घर पर आ गया। मैंने सबको बाहर बिछी हुई दरी पर बिठाया। रमेश भाई साहब ने मुझसे पूछा-पैसे की क्या व्यवस्था है? मैं उदास-उदास आँखों से उनकी ओर देखता रहा। मुझसे कुछ भी बोलते नहीं बन रहा था। मेरी हालत देखकर वे बोले- इस तरह टकककी लगाकर क्या देख रहा है, कुछ बोलता क्यों नहीं?
उनका इतना कहना था कि मैं उनसे चिपक कर जोर-जोर से रोने लगा। उन्होंने बड़ी मुश्किल से मुझे चुप कराते हुए कहा-हमें यहाँ गुरुजी ने भेजा है। हम सबके मन में अचानक ऐसी प्रेरणा हुई कि लड़का परेशान है तुरंत जाकर देखो। सही-सही बताओ, सारा इन्तजाम करने में बताओ तुम्हें कितना पैसा चाहिए?
मैंने अटकते हुए कहा-मेरे पास तो कुछ भी नहीं है। रिश्तेदारों के भरोसे शादी तय कर दी लेकिन कल सभी ने हाथ खड़े कर दिए। बाजार से जहर लेकर आया था कि खाकर चैन से सो जाऊँगा।
इतना सुनते ही वे आग-बबूला हो उठे। देर तक मुझे लताड़ते रहे। फिर शान्त होकर कहा-फिर कभी भूलकर भी ऐसा नहीं सोचना, हम सब हंै किस दिन के लिए। ज्योति केवल तुम्हारी बहन ही नहीं, हमारी बेटी भी है। कितने लाख रुपये चाहिए अभी बोलो? मैंने कहा-सिर्फ इतना ही, जिससे बारात का स्वागत-सत्कार हो जाए और मैं अपनी बहिन को सम्मानजनक ढंग से विदा कर सकूँ।
उसी पल सभी परिजनों ने कुर्ते की जेब में हाथ डालकर रुपये निकालने शुरू किए और कुछ ही क्षणों में मेरे सामने नोटों का ढेर लग गया। जान-पहचान की दुकान खुलवाई गई और रातों-रात सारा इन्तजाम हो गया। ज्योति की विदाई शानदार ढंग से हुई।
मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि गुरुदेव अपने शिष्यों का कष्ट इस प्रकार भाँप लेते हैं और तत्काल निवारण के उपाय भी कर देते है।
प्रस्तुतिः मनोज सोनी
राँची (झारखण्ड)
सन् १९८९ई. में हमारी बुआ रामकली सोनी कलेक्ट्रेट में काम करती थीं। उनके माध्यम से गायत्री परिजन श्री रमेश अभिलाषी व रागिनी आन्टी के घर झाडू़-पोछा का काम माँ को मिला। रागिनी आन्टी देवकन्या के रूप में शान्तिकुंज में रह चुकी थीं। उनसे प्रभावित होकर हम लोग भी गायत्री मन्दिर के यज्ञों में भाग लेने लगे। तब मैं पाँचवीं कक्षा में था। मैं यज्ञ में स्वाहा शब्द का जोर से उच्चारण करता। भाई श्री रमेश जी उस उच्चारण से मेरी ओर आकर्षित हुए। उन्होंने मुझे रोज मंदिर आने की प्रेरणा दी। मैंने नियमित रूप से मंदिर जाना शुरू कर दिया। बाद में तो मैं मंदिर में ही रहने लगा। वहाँ का जो काम मुझे बताया जाता, उसे मन लगाकर पूरा करता।
समय बीतता गया। मैं पढ़ाई और मंदिर में काम के साथ पेपर बाँटने का काम करने लगा। कुछ और बड़ा होकर मजदूरी की, बाइंडिंग का काम किया, किराना दुकान, कपड़े की दुकान में काम किया और अपने घर की जिम्मेदारी यथासाध्य पूरी करने की कोशिश करता रहा।
बहनें बड़ी हुईं। सबसे बड़ी बहन की शादी राजस्थान के श्री मुरली मनोहर सोनी जी के साथ तय हुई। सगाई सम्पन्न हुई। सुसंस्कृत परिवार था इसलिए उन्होंने कुछ माँगा नहीं, पर शादी तो शादी होती है। कई तरह के छोटे-बड़े खर्च करने ही होते हैं। मेहनत मजदूरी करके घर के खर्चे ही बड़ी मुश्किल से पूरे हो पाते थे। बहन की शादी के लिए कभी कुछ जोड़ ही नहीं सका। अब कैसे क्या व्यवस्था होगी, इन्हीं चिन्ताओं को लेकर शादी के कार्ड छपवाये।
सभी रिश्तेदार चाचा, ताऊ, फूफा पिताजी के घनिष्ठ मित्रों के यहाँ कार्ड दिया और सहायता माँगी। सभी ने आश्वासन दिए। उनके भरोसे मैं आगे बढ़ता रहा। दिन बीतते गए, पर कहीं से कोई सहायता नहीं मिली। नाना जी हमेशा से ही हमारे दुःख-सुःख के साथी थे। उन्होंने आंशिक सहयोग किया, किन्तु वह शादी हेतु अपर्याप्त था।
जब शादी के एक दिन पहले एक-एक करके सभी ने सहायता हेतु हाथ खड़े कर दिए तो मेरे हाथ पैर ठण्डे होने लगे। समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या होगा। अगले दिन बारात आने वाली थी और अभी तक उनके ठहरने, खाने का कोई इन्तजाम नहीं हो सका। यहाँ तक कि बहिन के लिए एक जोड़ी साड़ी तक नहीं खरीदी जा सकी। ऐसे में तो निश्चित ही दरवाजे से बारात वापस लौट जाएगी। यही सब सोचते हुए मैं पूज्य गुरुदेव के चित्र के सामने बैठकर खूब रोया।
मैं लड़का ही था अप्रैल सन् २००० में। एक कागज पर लिखा-मैं मेरी माँ व बहन तीनों आत्महत्या कर रहे हंै। हमने उसे गुरुदेव की पूजा चौकी पर पीछे की ओर रख दिया और बाजार से जहर ले आया। तय कर चुका था कि रात को सबके खाने में मिला दूँगा। रात के आठ बजे मैंने माँ से कहा- भूख लग रही है माँ! खाना निकालो। आज हम सब साथ बैठकर खाएँगे।
माँ खाना निकालने ही जा रही थी कि एक ही साथ पूरा गायत्री परिवार घर पर आ गया। मैंने सबको बाहर बिछी हुई दरी पर बिठाया। रमेश भाई साहब ने मुझसे पूछा-पैसे की क्या व्यवस्था है? मैं उदास-उदास आँखों से उनकी ओर देखता रहा। मुझसे कुछ भी बोलते नहीं बन रहा था। मेरी हालत देखकर वे बोले- इस तरह टकककी लगाकर क्या देख रहा है, कुछ बोलता क्यों नहीं?
उनका इतना कहना था कि मैं उनसे चिपक कर जोर-जोर से रोने लगा। उन्होंने बड़ी मुश्किल से मुझे चुप कराते हुए कहा-हमें यहाँ गुरुजी ने भेजा है। हम सबके मन में अचानक ऐसी प्रेरणा हुई कि लड़का परेशान है तुरंत जाकर देखो। सही-सही बताओ, सारा इन्तजाम करने में बताओ तुम्हें कितना पैसा चाहिए?
मैंने अटकते हुए कहा-मेरे पास तो कुछ भी नहीं है। रिश्तेदारों के भरोसे शादी तय कर दी लेकिन कल सभी ने हाथ खड़े कर दिए। बाजार से जहर लेकर आया था कि खाकर चैन से सो जाऊँगा।
इतना सुनते ही वे आग-बबूला हो उठे। देर तक मुझे लताड़ते रहे। फिर शान्त होकर कहा-फिर कभी भूलकर भी ऐसा नहीं सोचना, हम सब हंै किस दिन के लिए। ज्योति केवल तुम्हारी बहन ही नहीं, हमारी बेटी भी है। कितने लाख रुपये चाहिए अभी बोलो? मैंने कहा-सिर्फ इतना ही, जिससे बारात का स्वागत-सत्कार हो जाए और मैं अपनी बहिन को सम्मानजनक ढंग से विदा कर सकूँ।
उसी पल सभी परिजनों ने कुर्ते की जेब में हाथ डालकर रुपये निकालने शुरू किए और कुछ ही क्षणों में मेरे सामने नोटों का ढेर लग गया। जान-पहचान की दुकान खुलवाई गई और रातों-रात सारा इन्तजाम हो गया। ज्योति की विदाई शानदार ढंग से हुई।
मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि गुरुदेव अपने शिष्यों का कष्ट इस प्रकार भाँप लेते हैं और तत्काल निवारण के उपाय भी कर देते है।
प्रस्तुतिः मनोज सोनी
राँची (झारखण्ड)