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Books - अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य -1

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Language: HINDI
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गुरु चिन्तन से मिली कारागार से मुक्ति

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        यह घटना तुलसीपुर पुरानी बाजार जिला बलरामपुर उ.प्र. की है। श्री घनश्याम वर्मा दो भाई थे। बड़े भाई सीताराम जी थे, जिनके बच्चे नहीं थे। घनश्याम वर्मा जी के चार बच्चे सन्तोष, अशोक, रवि टिंकू एवं एक बच्ची थी। सीताराम जी के बच्चे न होने के कारण सम्पत्ति को लेकर भारी विवाद था। परिवार के अलावा अन्य लोग भी उनकी सम्पत्ति को हड़पना चाहते थे। दोनों परिवार में बँटवारा था। अलग बनाते खाते थे। मेरा इस परिवार से परिचय कुछ ही दिन पूर्व हुआ था। वर्मा जी के यहाँ बच्चे का जन्म दिवस संस्कार था। यज्ञ के माध्यम से संस्कार सम्पन्न हुआ। संस्कार के माध्यम से मैंने गुरुदेव एवं मिशन की जानकारी दी। उस समय मथुरा से एक ग्रन्थ प्रकाशित हुआ था ‘‘ऋषि चिन्तन के सान्निध्य में’’। इस ग्रन्थ की स्थापना घर- घर में कराई जा रही थी। मैंने इस ग्रन्थ का एक पृष्ठ पढ़कर सुनाया, जिससे प्रभावित होकर उन्होंने भी अपने घर में ग्रन्थ को स्थापित किया। इसके बाद नियमित उपासना एवं ‘‘ऋषि चिन्तन के सान्निध्य में’’ ग्रन्थ का नियमित स्वाध्याय का क्रम चल पड़ा।

        घटना 2003- 04  की है। सीताराम जी किसी कार्यवश बाहर गए हुए थे। जाने का प्रयोजन किसी को मालूम नहीं था। वे कब जाते, कब आते इस विषय में भाई के परिवार में किसी को कुछ मालूम नहीं रहता था; क्योंकि दोनों परिवार के निकास द्वार अलग- अलग दिशा में थे। एक दिन पड़ोस के एक व्यक्ति ने घनश्याम जी से सीताराम जी के बारे में पूछा कि कहाँ है, तो घनश्याम जी ने अनभिज्ञता जताई। पड़ोस के व्यक्ति ने कहा कि कई दिन से दिखाई नहीं पड़ रहे हैं और घर में ताला भी नहीं लगा है। लोगों ने घर के आस- पास जाकर देखा घर से अजीब- सी दुर्गन्ध आ रही थी। उन्होंने घनश्याम वर्मा के घर में यह बात बताई। घनश्याम वर्मा जी का बड़ा लड़का अन्य कुछ व्यक्तियों को साथ लेकर घर में घुसा। घर में सभी जगह देखा- कुछ नहीं मिला, जिससे दुर्गन्ध का कारण मालूम हो सके। काफी देर बाद देखा कि बाथरूम के दरवाजे में ताला लगा था। ताला तोड़ कर देखा तो सीताराम जी की लाश पड़ी थी। कई दिनों से पड़े रहने के कारण लाश से दुर्गन्ध आ रही थी। तुरन्त पुलिस स्टेशन को सूचित किया। यह घटना हवा की तरह चारों तरफ फैल चुकी थी। काफी भीड़ इकट्ठी हो गयी थी। पुलिस आई। सभी लोगों के सामने लाश को बाहर निकाला गया। लाश को पुलिस ने पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया। पुलिस छानबीन करने लगी।

        घटना के दो तीन दिन बाद पुलिस आई और घनश्याम वर्मा जी के दो पुत्र सन्तोष और अशोक को पकड़ ले गई। उनके दोनों बच्चे एक एम.एससी. दूसरा बी.एससी कर रहा था। साथ ही वे सिविल परीक्षा की तैयारी भी कर रहे थे। काफी छान- बीन हुई। जाँच के परिणाम स्वरूप अदालत ने दोनों बच्चों को दोषी मानकर गोण्डा भेजा। उसके पश्चात् आदर्श कारागार लखनऊ भेज दिया गया। इतनी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद दोनों बच्चों की श्रद्धा कम नहीं हुई, बल्कि उस समय को वे स्वाध्याय एवं जप में लगाते। लेख भी लिखते और हमेशा प्रसन्न रहते। इस घटना को ईश्वरीय इच्छा और परीक्षा की घड़ी भर मानकर चलते रहे। कहते हैं कि जो सच्चा आध्यात्मिक होता है वह सुख दुःख से परे होता है। उसका दुःख तपस्या के समान होता है। ऐसा ही कुछ इन बच्चों के साथ हो रहा था।

        एक दिन जेलर राउण्ड लगा रहे थे। सभी जगह चेक करने के बाद वे सन्तोष के कमरे में पहुँचे तो देखा एक युवक बहुत शान्त भाव में बैठा कुछ अध्ययन कर रहा है। जेलर मन ही मन सोचने लगे कि जेल में कैदी हमेशा परेशान, उद्विग्न और चिंतित रहते हैं। कुछ तो ऐसे विकराल होते हैं कि उनका जीवन कभी सुधरता नहीं है। सामान्य कैदियों को भी वे अपने जैसा बना लेते हैं। उन्होंने अपने चिन्तन को विराम दिया और अनायास ही सन्तोष के पास पहुँच गए। जेलर ने पूछा- क्या हाल है? बच्चे ने सहज भाव से उत्तर दिया सब कुछ गुरुदेव की कृपा से ठीक है। उनकी कृपा से स्वाध्याय एवं ध्यान का अच्छा अवसर मिला है, वही कर रहा हूँ। बच्चे के विश्वास भरे शब्दों को सुनकर जेलर दंग रह गए। सोचा लोग अपनी परेशानी बताते हैं, मैं उनकी परेशानी दूर करता हूँ। इसे तो कोई परेशानी ही नहीं है। वे सोच में पड़ गए। उत्सुकता बढ़ी। उन्होंने पूछा कि कौन हैं तुम्हारे गुरुदेव? और यह स्वाध्याय और ध्यान कैसा? उस बच्चे ने ‘ऋषि चिन्तन के सान्निध्य में’ पुस्तक का हवाला दिया और पुस्तक का एक पृष्ठ पढ़कर सुनाया- किसी परिस्थिति में विचलित न हों (पृष्ठ सं. ६७)। सुनकर जेलर बहुत प्रभावित हुए और उस पुस्तक के लिए अनुरोध किया कि कुछ दिन के लिए मुझे दे दो। बच्चे ने कहा कि यह पुस्तक मेरे गुरुजी ने दी है, इसे नहीं दे सकता। परन्तु जब मेरे पिताजी मुझसे मिलने आएँगे तो दूसरी पुस्तक आपके लिए मँगवा दूँगा। इस घटना से जेलर को उन बच्चों से आत्मिक लगाव हो गया।

        जेलर प्रतिदिन दोनों बच्चों से मिलने आते। हाल−चाल पूछते और गुरुदेव के चिन्तन को सुनकर जाते, जो उस दिन का चिन्तन होता। अन्ततः परिणाम यह हुआ कि जेलर ने स्वयं सिफारिश कर बच्चों को जेल से रिहा करवा दिया। जेलर बच्चों के गुणों से परिचित हो चुके थे उन्हें विश्वास हो चुका था कि ये बच्चे निर्दोष हैं। बच्चों ने जेलर को गुरुदेव का वह अनुपम ग्रन्थ भेंट किया। जेलर ने भी गुरुदेव के साहित्य से प्रभावित होकर गुरुसत्ता से जुड़ने का सुयोग प्राप्त किया। इस प्रकार घनश्याम जी के दोनों बच्चे गुरुकृपा से अपने जीवन को संस्कारित करने के साथ औरों के लिए भी प्रेरणास्रोत बन गए। गुरुकृपा की शक्ति की पहचान बहुत ही सहज ढंग से उनने कई लोगों को करा दी।

        प्रस्तुति ::     चन्द्रमणि शुक्ला दे.सं.वि.वि., हरिद्वार (उत्तराखण्ड)
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