
प्रसाद में छिपा था पोलियो का इलाज
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मैं निजी कार्य से हजारीबाग गया था। रात्रि विश्राम के लिए किसी जगह की तलाश कर रहा था। इसी बीच एक भाई ने कहा कि यहाँ से थोड़ी ही दूर अन्नदा विद्यालय में गायत्री यज्ञ चल रहा है, वहीं पर आप चले जाइए। वहाँ पर आपके रहने, खाने- पीने की व्यवस्था भी हो जाएगी। मेरे पास और कोई चारा भी नहीं था। यह बात मुझे जँच गई। सोचा धार्मिक कार्यक्रम है, रहने खाने के साथ सत्संग का भी लाभ अनायास मिल जाएगा।
यही सोच कर मैं यज्ञ स्थल पर गया। मुझे वहाँ की व्यवस्था देखकर बड़ी हैरत हुई। मैं, सामान्य क्रम में जो आज तक होता रहा है, उसी हिसाब से सोच रहा था। किन्तु वहाँ का अनुशासित कार्यक्रम देखकर काफी प्रभावित हुआ। धर्म की गूढ़ बातें बड़े ही सहज ढंग से हमारे हृदय में उतरती चली गईं। सत्संग से लगा मेरी वर्षों की प्यास बुझ गई। गुरु का जीवन में क्या स्थान है, मुझे इसका ज्ञान नहीं था। इस सत्संग में मैंने गुरु के महत्त्व को जाना।
इसका प्रभाव यह हुआ कि दूसरे दिन ही दिनांक ११ मई १९८७ को मैंने दीक्षा ले ली। इस प्रकार धीरे- धीरे गायत्री मिशन से जुड़ता चला गया। मेरी श्रद्धा दिनोंदिन मिशन एवं गुरु जी के प्रति बढ़ती रही। मेरा छोटा पुत्र नरेश का ढाई वर्ष की उम्र से ही बायाँ पैर पोलियो ग्रस्त हो गया था। अपनी स्थिति के अनुरूप मैंने उसका बहुत इलाज कराया, किन्तु कोई लाभ नहीं मिला। मैंने राँची के डॉक्टर श्री टी० बी० प्रसाद को दिखाया तो उन्होंने मुझे समझाया कि मैं इसकी नस काट कर जोड़ सकता हूँ, परन्तु ठीक होगा कि नहीं यह गारण्टी नहीं है। आप आर्थिक दृष्टि से बहुत कमजोर दिखते हैं इसलिए इसे ईश्वर पर ही छोड़ दीजिए।
इस तरह धीरे- धीरे उसकी उम्र १३- १४ वर्ष की हो गई और उसका पैर बेकार होता चला गया। अब तो उसे बिना सहारा के चलना भी दूभर होने लगा। उसे मुझे खुद साइकिल से विद्यालय पहुँचाना तथा ले आना पड़ता था, जो बहुत मुश्किल काम था। इसी बीच करीब १९९० में गायत्री परिवार के एक परिजन मुझे मिले। उन्होंने मुझे सलाह दी कि चूँकि आप वंदनीया माताजी से दीक्षित हैं इसलिए अपने बच्चे को उन्हीं के पास ले जाएँ। उनके आशीर्वाद से सब कुछ ठीक हो जाएगा। उनकी यह बात मुझे बहुत अच्छी लगी।
इसके बाद मैंने शान्तिकुञ्ज पत्र लिखकर स्वीकृति मँगाकर जून १९९१ में एक माह का सत्र करने अपने परिवार तथा कुछ अन्य लोगों के साथ शान्तिकुञ्ज पहुँच गया। माताजी से मिलने के क्रम में मैं, परिवार के लोग तथा अन्य लोग भी थे। माताजी को इस बच्चे को दिखाया तथा प्रार्थना की कि माता जी इस बच्चे का जीवन कैसे बीतेगा? माताजी ने बच्चे को बड़ी गौर से देखा तथा प्रसाद के रूप में हलवा दिया और आश्वासन दिया कि जा तेरा बेटा ठीक हो जाएगा। इसके पश्चात् सत्र समाप्त हो गया। सभी लोग अपने- अपने घर चले गए। वापस आने के बाद एक दिन उमेश ने नरेश से कहा चलो नरेश तुम्हें साइकिल सिखाएँगे। दोनों भाई साइकिल सीखने गए। कुछ देर बाद हम सबने देखा कि नरेश खुद चलाकर आ रहा है। अचानक देखने पर विश्वास नहीं हुआ कि यह वही बच्चा है जो अभी कुछ दिन पहले तक बैठने को तरसता था, जो बड़ी मुश्किल से साइकिल पर बैठकर स्कूल जाता था आज स्वयं साइकिल चलाकर आ रहा है। हम लोग खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। सभी की आँखें खुशी से गीली हो गई थीं। यह घटना क्षेत्र में चर्चा का विषय बन गई।
माँ के इस दैवीय अनुदान को पाकर हम सपरिवार मिशन से पूर्ण रूप से जुड़ गए। इस तरह से हमने उमेश को सदा के लिए शांतिकुंज को समर्पित कर दिया। मैं गुरु देव को भगवान शिव एवं माताजी को आद्यशक्ति पार्वती मानता हूँ। घर में सिर्फ पूज्य गुरुदेव, माताजी एवं गायत्री की ही पूजा होती है।
प्रस्तुति :: हरि यादव, गिरीडीह (झारखण्ड)
यही सोच कर मैं यज्ञ स्थल पर गया। मुझे वहाँ की व्यवस्था देखकर बड़ी हैरत हुई। मैं, सामान्य क्रम में जो आज तक होता रहा है, उसी हिसाब से सोच रहा था। किन्तु वहाँ का अनुशासित कार्यक्रम देखकर काफी प्रभावित हुआ। धर्म की गूढ़ बातें बड़े ही सहज ढंग से हमारे हृदय में उतरती चली गईं। सत्संग से लगा मेरी वर्षों की प्यास बुझ गई। गुरु का जीवन में क्या स्थान है, मुझे इसका ज्ञान नहीं था। इस सत्संग में मैंने गुरु के महत्त्व को जाना।
इसका प्रभाव यह हुआ कि दूसरे दिन ही दिनांक ११ मई १९८७ को मैंने दीक्षा ले ली। इस प्रकार धीरे- धीरे गायत्री मिशन से जुड़ता चला गया। मेरी श्रद्धा दिनोंदिन मिशन एवं गुरु जी के प्रति बढ़ती रही। मेरा छोटा पुत्र नरेश का ढाई वर्ष की उम्र से ही बायाँ पैर पोलियो ग्रस्त हो गया था। अपनी स्थिति के अनुरूप मैंने उसका बहुत इलाज कराया, किन्तु कोई लाभ नहीं मिला। मैंने राँची के डॉक्टर श्री टी० बी० प्रसाद को दिखाया तो उन्होंने मुझे समझाया कि मैं इसकी नस काट कर जोड़ सकता हूँ, परन्तु ठीक होगा कि नहीं यह गारण्टी नहीं है। आप आर्थिक दृष्टि से बहुत कमजोर दिखते हैं इसलिए इसे ईश्वर पर ही छोड़ दीजिए।
इस तरह धीरे- धीरे उसकी उम्र १३- १४ वर्ष की हो गई और उसका पैर बेकार होता चला गया। अब तो उसे बिना सहारा के चलना भी दूभर होने लगा। उसे मुझे खुद साइकिल से विद्यालय पहुँचाना तथा ले आना पड़ता था, जो बहुत मुश्किल काम था। इसी बीच करीब १९९० में गायत्री परिवार के एक परिजन मुझे मिले। उन्होंने मुझे सलाह दी कि चूँकि आप वंदनीया माताजी से दीक्षित हैं इसलिए अपने बच्चे को उन्हीं के पास ले जाएँ। उनके आशीर्वाद से सब कुछ ठीक हो जाएगा। उनकी यह बात मुझे बहुत अच्छी लगी।
इसके बाद मैंने शान्तिकुञ्ज पत्र लिखकर स्वीकृति मँगाकर जून १९९१ में एक माह का सत्र करने अपने परिवार तथा कुछ अन्य लोगों के साथ शान्तिकुञ्ज पहुँच गया। माताजी से मिलने के क्रम में मैं, परिवार के लोग तथा अन्य लोग भी थे। माताजी को इस बच्चे को दिखाया तथा प्रार्थना की कि माता जी इस बच्चे का जीवन कैसे बीतेगा? माताजी ने बच्चे को बड़ी गौर से देखा तथा प्रसाद के रूप में हलवा दिया और आश्वासन दिया कि जा तेरा बेटा ठीक हो जाएगा। इसके पश्चात् सत्र समाप्त हो गया। सभी लोग अपने- अपने घर चले गए। वापस आने के बाद एक दिन उमेश ने नरेश से कहा चलो नरेश तुम्हें साइकिल सिखाएँगे। दोनों भाई साइकिल सीखने गए। कुछ देर बाद हम सबने देखा कि नरेश खुद चलाकर आ रहा है। अचानक देखने पर विश्वास नहीं हुआ कि यह वही बच्चा है जो अभी कुछ दिन पहले तक बैठने को तरसता था, जो बड़ी मुश्किल से साइकिल पर बैठकर स्कूल जाता था आज स्वयं साइकिल चलाकर आ रहा है। हम लोग खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। सभी की आँखें खुशी से गीली हो गई थीं। यह घटना क्षेत्र में चर्चा का विषय बन गई।
माँ के इस दैवीय अनुदान को पाकर हम सपरिवार मिशन से पूर्ण रूप से जुड़ गए। इस तरह से हमने उमेश को सदा के लिए शांतिकुंज को समर्पित कर दिया। मैं गुरु देव को भगवान शिव एवं माताजी को आद्यशक्ति पार्वती मानता हूँ। घर में सिर्फ पूज्य गुरुदेव, माताजी एवं गायत्री की ही पूजा होती है।
प्रस्तुति :: हरि यादव, गिरीडीह (झारखण्ड)