
याद करते ही आ पहुँचे शान्तिकुंज के देवदूत
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सन् २००१ ई. की बात है। मुझे कुछ ऐसी बीमारी हो गई कि मैं अन्दर ही अन्दर कमजोर होती जा रही थी। कुछ ही दिनों में चलना- फिरना कठिन हो गया। कई जगहों पर इलाज करवाया, मगर बीमारी ठीक होने का नाम नहीं ले रही थी। स्थिति जब असहाय- सी हो गई, तो दिल्ली के अपोलो अस्पताल में दिखाया गया। वहाँ काफी दिनों तक इलाज चला मगर वहाँ भी अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाया। उतने महँगे इलाज से भी जब स्वस्थ न हो सकी, तो घर के लोग काफी निराश हो गए। तभी किसी ने उड़ीसा से आए हुए एक डाक्टर के बारे में बताया। काफी नाम था उनका। उन्हीं के पास इलाज शुरू हुआ। वहाँ भी एक साल बीत गया,
सभी डाक्टर अंतिम रूप में जवाब दे चुके थे। सभी डॉक्टर यही कह रहे थे कितना भी इलाज कर लिया जाए, चलना- फिरना सम्भव न हो सकेगा। इलाज से केवल इतना ही किया जा सकता है कि आगे तकलीफ न बढ़े। उनका कहना था कि स्पाइनल कॉर्ड और मस्तिष्क के बीच का सम्बन्ध ठीक से स्थापित नहीं हो पा रहा है, जिससे हाथ पैर की पेशियों को मस्तिष्क से आदेश प्राप्त नहीं हो रहा। इसी वजह से उनमें गति नियंत्रण नहीं हो पा रहा है। सारे कामकाज, सारी सामाजिक गतिविधियाँ स्थगित पड़ी थीं। घर में पड़े- पड़े दिन भर समय काटना मुझे बोझ- सा लगने लगा। कोई इष्ट मित्र मिलने आते तो लगता उन्हें जाने न दूँ, पकड़ कर अपने पास बैठाए रखूँ। अब तो मिलने के लिए भी कोई कभी कभी ही आते थे।
अक्सर मन में यह प्रश्र उठता रहता कि क्या इसी तरह पूरी जिन्दगी कटेगी। निराशा की इसी स्थिति में एक दिन पूजा स्थल पर गुरुदेव के चित्र के सामने बैठकर फूट- फूट कर रोने लगी। रोते- रोते दुःख और हताशा के आवेग में मैं फट पड़ी। पिता होकर बेटी का यह दुःख साल भर से देख रहे हैं। आपको दया नहीं आती, क्या मैं इसी तरह अकेली पड़ी रहूँगी? इतने दिन हो गए मैं बीमार पड़ी हूँ और शान्तिकुञ्ज से कोई देखने तक नहीं आया। रोते- रोते मैं यहाँ तक कह गई कि मैं आपकी बेटी हूँ। इस तरह निकम्मी बनकर पड़ी नहीं रह सकती। या तो उठा ही लीजिए, नहीं तो पूरी तरह से ठीक कर दीजिये। अगर मैं ठीक हो गई, तो दूने उत्साह से आपका काम करूँगी।
इसी तरह रोते- रोते मन का गुबार निकालती हुई कब शांत होकर सो गई, मुझे पता ही नहीं चला। शाम को समाचार मिला कि शांतिकुंज से दो प्रतिनिधि आए हुए हैं। कुछ ही देर में वे शक्तिपीठ से लड्डा जी और दो अन्य प्रतिनिधियों को साथ लेकर मेरे आवास पर आए। वे आते ही मुझ पर बुरी तरह बरस पड़े कि पिछले तीन माह से कोई हिसाब नहीं मिला है। न ही कोई प्रगति रिपोर्ट मिली। मैंने अपनी स्थिति बताई और कहा कि ये सारी सूचनाएँ और हिसाब- किताब श्रीमती पूर्णिमा के पास है, क्योंकि मेरी अनुपस्थिति में सब काम- काज वही देख रही हैं। लड्डा जी ने जोर देकर कहा कि इसी वक्त चलिये पूर्णिमा जी के पास। मैंने अपनी असमर्थता जताई- मैं चल नहीं सकती। उन्होंने अनसुना करते हुए कहा- चलो उठो तैयार हो जाओ, जल्दी।
मैं स्लीपिंग गाउन पहने लेटी थी। उनके आने पर बिस्तर पर बैठकर बातें कर रही थी। मैंने कहा- कपड़े बदल लेती हूँ। लड्डा जी ने कहा कपड़े बदलने की कोई जरूरत नहीं। इसी तरह चलो, मुझे ये सारी जानकारियाँ अभी, इसी वक्त चाहिए। शायद उन्हें लग रहा था कि मैं बहाना बना रही हूँ। मुझे अपनी स्थिति पर रोना आ गया। मुझे तो बिस्तर से उठने में, घर के अन्दर चलने- फिरने में भी तकलीफ होती है। कैसे समझाऊँ इन्हें? किसी तरह संयत स्वर में मैंने कहा- थोड़ी देर बैठिए, मैं चलती हूँ आपके साथ।
लड्डा जी क्रोध से तमतमा उठे। उन्होंने एक- एक शब्द पर जोर देते हुए कहा- चलना तो तुमको अभी पड़ेगा। सहसा मुझे ऐसा लगा जैसे उनके भीतर सूक्ष्म रूप से पूज्य गुरुदेव ही प्रविष्ट हो गए हैं। मैं अचम्भे से उनके चेहरे की ओर देखने लगी। ऐसा आभास हुआ, जैसे सामने लड्डा जी नहीं स्वयं गुरुदेव ही खड़े हैं। उन्होंने मुझे बाँह पकड़ कर उठाया और बिस्तर से उठाकर लगभग घसीटते हुए पूजा घर में ले गए। उन्होंने मेरे माथे पर तिलक लगाकर शान्तिपाठ के साथ अभिसिंचन किया।
मेरे पूरे शरीर में जैसे बिजली की एक लहर दौड़ गई। उन्होंने कहा- अब चलो। मैंने जल्दी में शरीर पर एक शाल डाला और उनके साथ चल पड़ी। मैं आगे- आगे जा रही थी, मेरे ठीक पीछे लड्डा जी थे। और पीछे वे सारे परिजन, जो साथ आए थे। हम सभी पूर्णिमा के घर पहुँचे। उसने सारी रिपोर्ट लाकर दी। फिर बात- चीत के क्रम में उन्होंने मुझसे पूछा- तुम इतने दिनों से शक्तिपीठ क्यों नहीं आती हो? मैंने बताया- साल भर से मैं बीमार थी। चलना- फिरना मुश्किल हो गया है।
इतना कहते ही मुझे ध्यान आया कि अभी पूर्णिमा के घर तक तो बड़े आराम से चलकर आ गई हूँ और प्राण ऊर्जा से भरी हुई हूँ। अपने- आपको काफी स्वस्थ महसूस कर रही हूँ। इस आकस्मिक परिवर्तन को लक्ष्य करते हुए मैंने कहा- कल मैं जरूर आऊँगी।
अगले दिन सुबह पाँच बजे शक्तिपीठ जाकर मैंने हवन किया और उसी समय मेरी लम्बी बीमारी की इतिश्री हो गई। आदरणीय लड्डा जी को माध्यम बनाकर मुझे पल भर में नया जीवन देने वाली गुरुसत्ता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं हैं।
प्रस्तुतिः श्रीमती रेखा थम्मन
सोनारी, जमशेदपुर (झारखण्ड)
सभी डाक्टर अंतिम रूप में जवाब दे चुके थे। सभी डॉक्टर यही कह रहे थे कितना भी इलाज कर लिया जाए, चलना- फिरना सम्भव न हो सकेगा। इलाज से केवल इतना ही किया जा सकता है कि आगे तकलीफ न बढ़े। उनका कहना था कि स्पाइनल कॉर्ड और मस्तिष्क के बीच का सम्बन्ध ठीक से स्थापित नहीं हो पा रहा है, जिससे हाथ पैर की पेशियों को मस्तिष्क से आदेश प्राप्त नहीं हो रहा। इसी वजह से उनमें गति नियंत्रण नहीं हो पा रहा है। सारे कामकाज, सारी सामाजिक गतिविधियाँ स्थगित पड़ी थीं। घर में पड़े- पड़े दिन भर समय काटना मुझे बोझ- सा लगने लगा। कोई इष्ट मित्र मिलने आते तो लगता उन्हें जाने न दूँ, पकड़ कर अपने पास बैठाए रखूँ। अब तो मिलने के लिए भी कोई कभी कभी ही आते थे।
अक्सर मन में यह प्रश्र उठता रहता कि क्या इसी तरह पूरी जिन्दगी कटेगी। निराशा की इसी स्थिति में एक दिन पूजा स्थल पर गुरुदेव के चित्र के सामने बैठकर फूट- फूट कर रोने लगी। रोते- रोते दुःख और हताशा के आवेग में मैं फट पड़ी। पिता होकर बेटी का यह दुःख साल भर से देख रहे हैं। आपको दया नहीं आती, क्या मैं इसी तरह अकेली पड़ी रहूँगी? इतने दिन हो गए मैं बीमार पड़ी हूँ और शान्तिकुञ्ज से कोई देखने तक नहीं आया। रोते- रोते मैं यहाँ तक कह गई कि मैं आपकी बेटी हूँ। इस तरह निकम्मी बनकर पड़ी नहीं रह सकती। या तो उठा ही लीजिए, नहीं तो पूरी तरह से ठीक कर दीजिये। अगर मैं ठीक हो गई, तो दूने उत्साह से आपका काम करूँगी।
इसी तरह रोते- रोते मन का गुबार निकालती हुई कब शांत होकर सो गई, मुझे पता ही नहीं चला। शाम को समाचार मिला कि शांतिकुंज से दो प्रतिनिधि आए हुए हैं। कुछ ही देर में वे शक्तिपीठ से लड्डा जी और दो अन्य प्रतिनिधियों को साथ लेकर मेरे आवास पर आए। वे आते ही मुझ पर बुरी तरह बरस पड़े कि पिछले तीन माह से कोई हिसाब नहीं मिला है। न ही कोई प्रगति रिपोर्ट मिली। मैंने अपनी स्थिति बताई और कहा कि ये सारी सूचनाएँ और हिसाब- किताब श्रीमती पूर्णिमा के पास है, क्योंकि मेरी अनुपस्थिति में सब काम- काज वही देख रही हैं। लड्डा जी ने जोर देकर कहा कि इसी वक्त चलिये पूर्णिमा जी के पास। मैंने अपनी असमर्थता जताई- मैं चल नहीं सकती। उन्होंने अनसुना करते हुए कहा- चलो उठो तैयार हो जाओ, जल्दी।
मैं स्लीपिंग गाउन पहने लेटी थी। उनके आने पर बिस्तर पर बैठकर बातें कर रही थी। मैंने कहा- कपड़े बदल लेती हूँ। लड्डा जी ने कहा कपड़े बदलने की कोई जरूरत नहीं। इसी तरह चलो, मुझे ये सारी जानकारियाँ अभी, इसी वक्त चाहिए। शायद उन्हें लग रहा था कि मैं बहाना बना रही हूँ। मुझे अपनी स्थिति पर रोना आ गया। मुझे तो बिस्तर से उठने में, घर के अन्दर चलने- फिरने में भी तकलीफ होती है। कैसे समझाऊँ इन्हें? किसी तरह संयत स्वर में मैंने कहा- थोड़ी देर बैठिए, मैं चलती हूँ आपके साथ।
लड्डा जी क्रोध से तमतमा उठे। उन्होंने एक- एक शब्द पर जोर देते हुए कहा- चलना तो तुमको अभी पड़ेगा। सहसा मुझे ऐसा लगा जैसे उनके भीतर सूक्ष्म रूप से पूज्य गुरुदेव ही प्रविष्ट हो गए हैं। मैं अचम्भे से उनके चेहरे की ओर देखने लगी। ऐसा आभास हुआ, जैसे सामने लड्डा जी नहीं स्वयं गुरुदेव ही खड़े हैं। उन्होंने मुझे बाँह पकड़ कर उठाया और बिस्तर से उठाकर लगभग घसीटते हुए पूजा घर में ले गए। उन्होंने मेरे माथे पर तिलक लगाकर शान्तिपाठ के साथ अभिसिंचन किया।
मेरे पूरे शरीर में जैसे बिजली की एक लहर दौड़ गई। उन्होंने कहा- अब चलो। मैंने जल्दी में शरीर पर एक शाल डाला और उनके साथ चल पड़ी। मैं आगे- आगे जा रही थी, मेरे ठीक पीछे लड्डा जी थे। और पीछे वे सारे परिजन, जो साथ आए थे। हम सभी पूर्णिमा के घर पहुँचे। उसने सारी रिपोर्ट लाकर दी। फिर बात- चीत के क्रम में उन्होंने मुझसे पूछा- तुम इतने दिनों से शक्तिपीठ क्यों नहीं आती हो? मैंने बताया- साल भर से मैं बीमार थी। चलना- फिरना मुश्किल हो गया है।
इतना कहते ही मुझे ध्यान आया कि अभी पूर्णिमा के घर तक तो बड़े आराम से चलकर आ गई हूँ और प्राण ऊर्जा से भरी हुई हूँ। अपने- आपको काफी स्वस्थ महसूस कर रही हूँ। इस आकस्मिक परिवर्तन को लक्ष्य करते हुए मैंने कहा- कल मैं जरूर आऊँगी।
अगले दिन सुबह पाँच बजे शक्तिपीठ जाकर मैंने हवन किया और उसी समय मेरी लम्बी बीमारी की इतिश्री हो गई। आदरणीय लड्डा जी को माध्यम बनाकर मुझे पल भर में नया जीवन देने वाली गुरुसत्ता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं हैं।
प्रस्तुतिः श्रीमती रेखा थम्मन
सोनारी, जमशेदपुर (झारखण्ड)