
दो माह में दूर हुआ अल्सरेटिव कोलाइटिस
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
एक बार मुझे बड़ी अजीब सी बीमारी ने घेर लिया। सन् २००१ ई. की बात है। पहले तो पेट में दर्द हुआ और इसकी दवा लेते ही दस्त शुरू हो गए।दस्त की दवा ली, तो रोग ने और भी गंभीर रूप ले लिया। यहाँ तक कि मल के रास्ते से खून के थक्के निकलने लगे। शरीर के सभी जोड़ों में असहनीय दर्द होने लगा। कमजोरी इतनी बढ़ गई थी कि चलने-फिरने तो क्या, साँस तक लेने में दिक्कत होने लगी थी।
जब देखा कि इधर-उधर की दवाओं से रोग ठीक होने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है, तो गम्भीरता से इलाज कराने की बात सोची गई।
शहर के एक बड़े नर्सिंग होम में इलाज शुरू हुआ। कई तरह की जाँच के बाद डॉक्टर ने बताया कि अल्सरेटिव कोलाइटिस होगया है।
यह एक अमेरिकन बीमारी है, जो करोड़ों में किसी एक आदमी को होती है। इस रोग के लिये कोई कारगर दवा नहीं निकल पाई है। रोग का कारण क्या है, यह भी आज तक मालूम नहीं किया जा सका है।
लक्षणों के आधार पर जो भी दवाएँ इसमें प्रयुक्त होती हैं, उनके साइड इफेक्ट बहुत ही खतरनाक हैं। इन दवाओं के प्रयोग से हड्डियाँ कमजोर होने लगती हैं और धीरे धीरे जीवनी शक्ति कम हो जाती है।
लेकिन मरता क्या न करता? जब ऐसी बीमारी हो गई, तो इलाज तो कराना ही पड़ेगा। डॉक्टर के परामर्श से उन्हीं दवाओं का सेवन शुरू किया। जब तक दवा लेती रहती तभी तक रोग कुछ हद तक नियंत्रण में रहता और दवा छोड़ते ही फिर से बढ़ना शुरू हो जाता।इसी तरह आठ वर्षों तक दवा चलती रही। इतने वर्षों तक काफी महँगे इलाज के बाद भी स्वस्थ होना तो दूर रहा, उल्टे शरीर की नस-नस कमजोर होती गई। हड्डियाँ तो इतनी कमजोर हो गई थीं कि हल्के से दबाव से भी असहनीय दर्द होने लगता।
जीवन भार-सा लगने लगा। मेरी बीमारी ठीक हो जाए, इस कामना से मेरे पिता जी टाटानगर में महामृत्युंजय मंत्र का जप-अनुष्ठान आदि भी करते-कराते रहे। इन प्रयासों से मैं जीवित तो रही, पर हमेशा यही सोचती रहती कि ऐसा जीना भी किस काम का।
एक दिन पेट में इतना असहनीय दर्द होने लगा कि मैं बुरी तरह छटपटाने और चीखने-चिल्लाने लगी। सभी ऐसा सोचने लगे कि अब अंतिम समय आ गया है। घर में रोना-धोना शुरू हो गया।
माता-पिता पूज्य गुरुदेव से प्रार्थना करने लगे, रो-रोकर उनसे मेरे जीवन की भीख माँगने लगे। पर मुझे लगता था कि ऐसी मौत से बदतर जिन्दगी के लिए क्या रोना। यह जितनी जल्दी समाप्त हो जाए, उतना अच्छा है। लेकिन आश्चर्य की बात है कि गुरुदेव से की गई दिन भर की प्रार्थना के बाद उस रात मुझे बहुत अच्छी नींद आई।
अगले ही दिन हमारे एक पारिवारिक मित्र घर आये। वे गायत्री परिवार के परिजन हैं, जो हाल में ही शान्तिकुञ्ज से वापस आए थे। उन्हें मेरी बीमारी के बारे में जानकारी थी।
शान्तिकुञ्ज में उन्होंने मेरे स्वास्थ्य लाभ के लिए सामूहिक जप करवाया, और कुछ जड़ी-बूटियाँ भी ले आए। उन्होंने कहा कि माँ गायत्री का नाम लेकर जड़ी-बूटियों की यह दवा खा लीजिए। परम पूज्य गुरुदेव जरूर आपकी रक्षा करेंगे।
सचमुच ही उस दवा के सेवन से मुझे काफी राहत मिली। पहली बार ऐसा महसूस हुआ कि मैं पूर्ण स्वस्थ भी हो सकती हूँ। कुछ आशान्वित होकर माता पिता के साथ मैं नवम्बर 2010 में शान्तिकुञ्ज गई।
शांतिकुंज में आदरणीय डॉक्टर साहब से मिली। रोग के बारे में सुनकर उन्होंने भी कहा कि इसका सही इलाज एलोपैथी में है ही नहीं। पर निराश होने की जरूरत नहीं है। इसका आध्यात्मिक उपचार संभव है। उन्होंने मुझे देव संस्कृति विश्वविद्यालय में जाकर डॉ. वन्दना से मिलने की सलाह दी।
डॉ. वन्दना ने कहा कि एकमात्र यज्ञोपैथी से ही इसका इलाज सम्भव है। उन्होंने विशेष रूप से तैयार की गई हवन सामग्री से नित्य हवन करने के लिये कहा और निर्गुण्डी तथा गिलोय सेवन करने के लिये दिया।
नित्य हवन तथा इन दवाओं के सेवन से एक महीने में ही इतनी राहत मिली कि मैं दंग रह गई। पेट का दर्द बिल्कुल ठीक हो गया। शारीरिक कमजोरी काफी हद तक कम हो गई। फिर से जीने की इच्छा जाग उठी। ऐसा अनुभव होने लगा कि नया जीवन मिला हो।
अंग्रेजी दवा लेना छोड़ चुकी थी। एक पखवाड़े के अन्दर ही न केवल शारीरिक कमजोरी दूर हो गई, अपितु मानसिक स्तर पर भी मैं अपने-आपको काफी मजबूत महसूस करने लगी।
मानसिक अवसाद का नामो-निशान नहीं रह गया था। इस प्रकार आध्यात्मिक शक्तियों के अनुदान से तीन महीने बीतते-बीतते मैं पूरी तरह से स्वस्थ हो गई।
परम पूज्य गुरुदेव ने मुझ अकिंचन पर असीम कृपा करके यह जो नई जिन्दगी दी है, अब इसे उन्हीं के काम में लगाने का संकल्प ले चुकी हूँ।
प्रस्तुतिः डॉ. अनीता शरण
चैम्बूर, मुम्बई (महाराष्ट्र)
जब देखा कि इधर-उधर की दवाओं से रोग ठीक होने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है, तो गम्भीरता से इलाज कराने की बात सोची गई।
शहर के एक बड़े नर्सिंग होम में इलाज शुरू हुआ। कई तरह की जाँच के बाद डॉक्टर ने बताया कि अल्सरेटिव कोलाइटिस होगया है।
यह एक अमेरिकन बीमारी है, जो करोड़ों में किसी एक आदमी को होती है। इस रोग के लिये कोई कारगर दवा नहीं निकल पाई है। रोग का कारण क्या है, यह भी आज तक मालूम नहीं किया जा सका है।
लक्षणों के आधार पर जो भी दवाएँ इसमें प्रयुक्त होती हैं, उनके साइड इफेक्ट बहुत ही खतरनाक हैं। इन दवाओं के प्रयोग से हड्डियाँ कमजोर होने लगती हैं और धीरे धीरे जीवनी शक्ति कम हो जाती है।
लेकिन मरता क्या न करता? जब ऐसी बीमारी हो गई, तो इलाज तो कराना ही पड़ेगा। डॉक्टर के परामर्श से उन्हीं दवाओं का सेवन शुरू किया। जब तक दवा लेती रहती तभी तक रोग कुछ हद तक नियंत्रण में रहता और दवा छोड़ते ही फिर से बढ़ना शुरू हो जाता।इसी तरह आठ वर्षों तक दवा चलती रही। इतने वर्षों तक काफी महँगे इलाज के बाद भी स्वस्थ होना तो दूर रहा, उल्टे शरीर की नस-नस कमजोर होती गई। हड्डियाँ तो इतनी कमजोर हो गई थीं कि हल्के से दबाव से भी असहनीय दर्द होने लगता।
जीवन भार-सा लगने लगा। मेरी बीमारी ठीक हो जाए, इस कामना से मेरे पिता जी टाटानगर में महामृत्युंजय मंत्र का जप-अनुष्ठान आदि भी करते-कराते रहे। इन प्रयासों से मैं जीवित तो रही, पर हमेशा यही सोचती रहती कि ऐसा जीना भी किस काम का।
एक दिन पेट में इतना असहनीय दर्द होने लगा कि मैं बुरी तरह छटपटाने और चीखने-चिल्लाने लगी। सभी ऐसा सोचने लगे कि अब अंतिम समय आ गया है। घर में रोना-धोना शुरू हो गया।
माता-पिता पूज्य गुरुदेव से प्रार्थना करने लगे, रो-रोकर उनसे मेरे जीवन की भीख माँगने लगे। पर मुझे लगता था कि ऐसी मौत से बदतर जिन्दगी के लिए क्या रोना। यह जितनी जल्दी समाप्त हो जाए, उतना अच्छा है। लेकिन आश्चर्य की बात है कि गुरुदेव से की गई दिन भर की प्रार्थना के बाद उस रात मुझे बहुत अच्छी नींद आई।
अगले ही दिन हमारे एक पारिवारिक मित्र घर आये। वे गायत्री परिवार के परिजन हैं, जो हाल में ही शान्तिकुञ्ज से वापस आए थे। उन्हें मेरी बीमारी के बारे में जानकारी थी।
शान्तिकुञ्ज में उन्होंने मेरे स्वास्थ्य लाभ के लिए सामूहिक जप करवाया, और कुछ जड़ी-बूटियाँ भी ले आए। उन्होंने कहा कि माँ गायत्री का नाम लेकर जड़ी-बूटियों की यह दवा खा लीजिए। परम पूज्य गुरुदेव जरूर आपकी रक्षा करेंगे।
सचमुच ही उस दवा के सेवन से मुझे काफी राहत मिली। पहली बार ऐसा महसूस हुआ कि मैं पूर्ण स्वस्थ भी हो सकती हूँ। कुछ आशान्वित होकर माता पिता के साथ मैं नवम्बर 2010 में शान्तिकुञ्ज गई।
शांतिकुंज में आदरणीय डॉक्टर साहब से मिली। रोग के बारे में सुनकर उन्होंने भी कहा कि इसका सही इलाज एलोपैथी में है ही नहीं। पर निराश होने की जरूरत नहीं है। इसका आध्यात्मिक उपचार संभव है। उन्होंने मुझे देव संस्कृति विश्वविद्यालय में जाकर डॉ. वन्दना से मिलने की सलाह दी।
डॉ. वन्दना ने कहा कि एकमात्र यज्ञोपैथी से ही इसका इलाज सम्भव है। उन्होंने विशेष रूप से तैयार की गई हवन सामग्री से नित्य हवन करने के लिये कहा और निर्गुण्डी तथा गिलोय सेवन करने के लिये दिया।
नित्य हवन तथा इन दवाओं के सेवन से एक महीने में ही इतनी राहत मिली कि मैं दंग रह गई। पेट का दर्द बिल्कुल ठीक हो गया। शारीरिक कमजोरी काफी हद तक कम हो गई। फिर से जीने की इच्छा जाग उठी। ऐसा अनुभव होने लगा कि नया जीवन मिला हो।
अंग्रेजी दवा लेना छोड़ चुकी थी। एक पखवाड़े के अन्दर ही न केवल शारीरिक कमजोरी दूर हो गई, अपितु मानसिक स्तर पर भी मैं अपने-आपको काफी मजबूत महसूस करने लगी।
मानसिक अवसाद का नामो-निशान नहीं रह गया था। इस प्रकार आध्यात्मिक शक्तियों के अनुदान से तीन महीने बीतते-बीतते मैं पूरी तरह से स्वस्थ हो गई।
परम पूज्य गुरुदेव ने मुझ अकिंचन पर असीम कृपा करके यह जो नई जिन्दगी दी है, अब इसे उन्हीं के काम में लगाने का संकल्प ले चुकी हूँ।
प्रस्तुतिः डॉ. अनीता शरण
चैम्बूर, मुम्बई (महाराष्ट्र)