
अध्यात्म जगत के पंचशील
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पंचशीलों के कितने ही प्रकार हैं। उन्हें विभिन्न महापुरुषों ने विभिन्न प्रकार से व्यक्त किया है। वे सभी अपने-अपने कार्य क्षेत्र और समय के अनुरूप हैं। पर इनमें से सभी ऐसे नहीं हैं, जिन्हें हर वर्ग का व्यक्ति कार्यान्वित कर सकने की स्थिति में हो। ऐसी दशा में यह देखना होगा कि सर्वजनीन हित साधन की दृष्टि से उनमें से किनका ऐसा चयन किया जाना चाहिए, जो आज की परम्पराओं के अनुकूल हो।
भगवान बुद्ध के पंचशील उनके अनुचरों—बौद्ध भिक्षुओं को प्रधान लक्ष्य मानते हुए निर्धारित किए गये थे। वे हैं—(1) किसी का जीवन नष्ट न करो अर्थात पूर्ण अहिंसा बरतो (2) जो तुम्हें न दिया गया हो, उसे मत लो। अर्थात् चोरी से, छल से कुछ भी अर्जित न करो। (3) ब्रह्मचर्य पालो अर्थात् इन्द्रियों का संयम रखो। (4) कम बोलो, यथार्थ बोलो, धर्म के समर्थन को ध्यान में रखकर बोलो। (5) नशा मत करो। यह निर्धारण इसलिए किए गए थे कि धर्मोपदेशकों को, श्रद्धास्पद स्थान पर बैठने वाले लोगों को सामान्यजनों की तुलना में अपना स्थान ऊंचा रखना ही चाहिए अन्यथा सामान्य लोगों जैसा स्वभाव रखते हुए उच्च आदर्शों के सम्बन्ध में प्रवचन करते बन न पड़ेगा। जो करेगा उसका प्रभाव न पड़ेगा। पण्डित नेहरू और चीन के शासनाध्यक्षों ने मिलकर राजनैतिक पंचशीलों की घोषणा की थी। उनने इस माध्यम से राष्ट्रों के बीच उत्पन्न होने वाली समस्याओं का समाधान खोजा था। वे थे—(1) राष्ट्र एक-दूसरे की क्षेत्रीय अखण्डता का सम्मान करें तथा सार्वभौम हित का भी ध्यान रखें। (2) विवादों में आक्रमण की नीति न अपनायें पारस्परिक विचार विनिमय तथा पंच निर्णय के आधार पर उनका समाधान खोजा जाय। (3) एक-दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करें। (4) समानता और अपने सद्भाव का निर्वाह करें। (5) शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की बात सोचें। यह पांचों बातें ऐसी हैं, जिन्हें राष्ट्राध्यक्षों के आपसी सम्बन्धों को सही रखने की दृष्टि से निर्धारित किया गया था। सब जानते हैं कि इनका परिपालन न हो पाया, व युद्ध की स्थिति बन गई। अतः इन्हीं लोगों द्वारा अपनाया जा सकता है, जो निष्ठापूर्वक निबाहने हेतु उद्यत हों। जन साधारण इस संदर्भ में कुछ कर नहीं सकता। मात्र अपने शासकों से इसके लिए अनुरोध या आग्रह कर सकता है।
गांधी जी ने सत्याग्रह के दिनों में विशिष्ट पंचशीलों की घोषणा की थी। उस समय की आवश्यकताओं को देखते हुए देशभक्तों के लिए इन्हें अपनाना आवश्यक था। वे इस प्रकार हैं—(1) निर्भयता (2) शारीरिक श्रम (3) अस्वाद (4) सर्वधर्म समभाव (5) अस्पृश्यता निवारण। यह सभी वैसे हर समय में भी हर किसी के लिए कार्यरूप में अपनाये जाने योग्य हैं। पर सत्याग्रही स्वयं सेवकों के लिए तो उस समय की विशिष्ट आवश्यकताओं को देखते हुए उपयोगी थे ही। महर्षि पातंजलि ने पांच कर्त्तव्यों को पांच यमों का नाम दिया है—(1) अहिंसा (2) सत्य (3) अस्तेय (4) ब्रह्मचर्य (5) अपरिग्रह। यह पांचों उनके लिए आवश्यक हैं, जो आत्मिक प्रगति के मार्ग पर चलना चाहते हैं। योग साधनायें करने के साथ ही इन अनुबन्धों का पालन करना आवश्यक निर्धारित किया गया है।
यह पंचशील ऐसे हैं जिन्हें जनसाधारण के लिए उपयोगी माना जा सकता है। इन्हें जन साधारण द्वारा अपनाया और कार्यान्वित किया जा सकता है। हममें से प्रत्येक को इन्हीं सर्वोपयोगी पंचशीलों को धर्म चेतना का सार समझते हुए अपनाने में अपना विश्वास एवं उत्साह व्यक्त करना चाहिए।
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पंचशील—1
सम्पर्क क्षेत्र की देश भक्ति
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क्षेत्रीय प्रगति में आस्था का तात्पर्य यह नहीं है कि मात्र अपने समीपवर्ती लोगों तक ही सेवा-सद्भाव एवं सहयोग को केन्द्रित किया जाय सार्वभौम स्थिति का, दूरवर्ती लोगों की समस्याओं का ध्यान ही न रखा जाय।
मनुष्य का व्यावहारिक सम्पर्क एक सीमित क्षेत्र तक ही रहता है। दूरवर्ती क्षेत्रों में बार-बार आना-जाना नहीं हो सकता। वहां की कठिनाइयों, समस्याओं तथा बदलती परिस्थितियों का अनुमान लगाते रहना भी सरल नहीं है। भाषा सम्बन्धी कठिनाइयां भी आड़े आती हैं। प्रचलन और परम्पराओं में भी थोड़ी-थोड़ी दूरी पर अन्तर पड़ जाता है। इन कठिनाइयों के कारण विश्व-सेवा की उदात्त भावना भी व्यवहार रूप में सीमित लोगों तक ही समेटनी पड़ती है। उसी परिधि की समस्याओं का समाधान करते भी सरल पड़ता है। सेवाधर्म करते हुए घर-परिवार की, उपार्जन व्यवसाय की देखभाल हो सकती है। इसलिए सुविधा-सरलता इसी में है। इसी को विश्व सेवा की, अपने हिस्से की इकाई मानना चाहिए।
जिनके पीछे घर-परिवार के भारी उत्तरदायित्व नहीं, जो पारिवारिक बन्धनों से स्वतन्त्र हैं, जिन्हें गुजारे का प्रबन्ध करने में अधिक समय नहीं लगाना पड़ता, उनके लिए यह उचित है कि वे वानप्रस्थ स्तर का जीवन जियें, परिव्राजक बनकर परिभ्रमणपरक योजना अपनायें अथवा अपने लिए ऐसा कार्य चुनें, जो अधिक पिछड़ा हुआ हो, जहां पहुंचने की आवश्यकता अधिक दृष्टिगोचर होती हो, जहां डेरा डालकर रहा जा सकता हो। जिनकी क्षमता निरन्तर परिभ्रमण के उपयुक्त है और जो अनेक स्थानों पर जाकर बादलों की तरह बरसते रह सकते हैं, उनके लिए उसी प्रकार की कार्य विधि अपनानी चाहिए। किन्तु जिन्हें घर-परिवार की जिम्मेदारियों का निर्वाह करना पड़ता है ऐसे लोग ही अधिकतम होते हैं। उनके लिए यही उचित है कि अपने क्षेत्र में रहकर ही काम करें।
देश भक्ति किसी समय कोई बड़ी बात मानी जाती थी। पर जब वह अन्य देशों की उपेक्षा करने के स्तर तक जा पहुंची, तो उसे साम्प्रदायिक कट्टरता के स्तर की माना जाने लगा। इन दिनों उसकी परिभाषा मात्र अपने समुदाय की समुचित सेवा करना न रहकर दूसरे देशों पर आधिपत्य जमाना, साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद तक अपनाना बन गया है। अपने देश को लाभ पहुंचाने के लिए दूसरे क्षेत्रों के अधिकारों का अपहरण करना भी बन गया है। पिछले दिनों देश—देशों के बीच युद्ध छिड़ते रहे हैं। और दोनों ओर के लड़ाकू अपने-अपने देशों की आन-बान-शान की दुहाई देते रहे हैं। अपने लाभ के लिए दूसरों को हानि पहुंचाना जैसे व्यक्तिगत जीवन में अनैतिक आचरण है, उसी प्रकार अपने समुदाय के लिए दूसरे देशों के स्वत्वों हितों का अपहरण भी अनुचित है। किन्तु देश भक्ति के नाम पर यह प्रवृत्ति भी अपनाई जाने लगी है। इसलिए प्रान्तवाद, भाषावाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद की तरह ही देशवाद की कट्टरता भी अनुचित समझी जाने लगी है।
दुनिया अगले दिनों एक विशाल परिवार की तरह बनने जा रही है। इसके बिना वर्तमान विग्रहों से छुटकारे का और कोई मार्ग नहीं। देश भक्ति के स्थान पर अब विश्व भक्ति को महत्व देना होगा। अपने-अपने देशों की जय बोलने के स्थान पर विश्व भक्ति का नारा लगाना होगा। विश्व का कल्याण हो। धर्म की जय हो। यही आज की सार्वभौम भावना होनी चाहिए। सभी धर्मों, सभी वर्गों, सभी देशों को मिल जुलकर सार्वभौम सद्भावना का अभिवर्धन करना चाहिए।
देश भक्ति का अर्थ हमें ऐसा करना चाहिए, जिसमें अन्य देशों के उचित हितों के साथ किसी प्रकार का टकराव न होता हो न कोई अनीति करे न अनीति सहे यह माहौल भाई-चारे की भावना अपनाने से ही संभव है हम इस सीमा तक ही देश भक्त रहें कि अपने सीमावर्ती क्षेत्र की अधिक सुविधापूर्वक जितनी अधिक सेवा बन पड़े करें। उसके लिए सरलता को ध्यान में रखते हुए अधिकाधिक तत्परता बरतें। यह कार्य निजी कार्यों की व्यस्तता के साथ-साथ चल सकता है। अपने घर की तरह अपने पड़ौस के क्षेत्र की सफाई के लिए भी प्रयत्न हो सकता है। जिस प्रकार अपने परिवार को शिक्षित बनाने के लिए, सुसंस्कारी—सम्पन्न बनाने के लिए प्रयत्न किया जाता है उसी प्रकार जितने अधिक व्यापक क्षेत्र का ध्यान रखना, सेवारत होना संभव हो, उसमें भी कमी न रहने देनी चाहिए।
समीपवर्ती क्षेत्र में जैसा वातावरण होता है वैसा प्रभाव अपने निज के या परिवार के ऊपर भी पड़ता है। यदि चोर उचक्के, बेईमान, व्यभिचारी अपने इर्द-गिर्द रह रहे हैं, तो उनके अनाचारों से अपने घर वाले भी किसी न किसी प्रकार कभी न कभी प्रभावित हो सकते हैं। इसलिए अपने घर की तरह सम्पर्क क्षेत्र को भी सुधारने का प्रयत्न किया जाना चाहिए। अपनी बढ़ी-चढ़ी सम्पन्नता समीपवर्ती दरिद्र लोग सहन नहीं कर सकते। उनमें स्वभावतः ईर्ष्या भड़केगी और इस आक्रोश में वे ईर्ष्यावश किसी न किसी प्रकार की हानि पहुंचाये बिना न रहेंगे। इसलिए अपनी सम्पन्नता को सुरक्षित रखने के लिए, समीपवर्ती क्षेत्रों की समृद्धि बढ़ाने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। अपने बालक सुशिक्षित हों, किन्तु पड़ोसी अशिक्षित अनगढ़ रहें तो उस विषमता का प्रभाव पड़े बिना न रहेगा। इसीलिए समता, स्वस्थता, स्वच्छता, सुसंस्कारिता, सम्पन्नता का प्रयत्न अपने या अपने परिवार तक ही सीमित न रखकर उसे जितने अधिक क्षेत्र में बढ़ाया जा सकता हो, बढ़ाना चाहिए। अपनेपन की परिधि जितने बड़े क्षेत्र में बढ़ाई जा सकती हो, उतनी बढ़ाने का प्रयत्न करना चाहिए।
विश्व कल्याण का भाव तो मन में रखा जा सकता है, लोग मंगल की भावनाओं को तो संसार भर के लिए व्यापक बनाया जा सकता है, पर उसका व्यवहारिक स्वरूप नहीं बन सकता। जहां तक अपना पहुंचना नहीं हो सकता, जहां की भाषा नहीं समझी जाती, जो अपने से परिचित नहीं है, उनके साथ भी भावनात्मक सद्भाव तो रखा जा सकता है, पर व्यवहारिक यही है कि अपने कार्य क्षेत्र को सीमित बनायें और उसी में सेवा-सहायता के लिए तत्परतापूर्वक जुटें। देश भक्ति का व्यावहारिक स्वरूप यही हो सकता है।
निजी कार्यों पर जितना ध्यान दिया जाता है, अपने लाभ का जितना ध्यान रखा जाता है, उस परिधि को बढ़ाया जाना चाहिए और अधिक बड़े क्षेत्र में वहां के निवासियों में अपनी कार्य क्षमता का प्रयोग करना चाहिए। संकीर्ण और कृपण लोग ही निजी स्वार्थों की परिधि में सीमाबद्ध रहते हैं। जिनका हृदय उदार है, वे अपनी ही तरह दूसरों का भी ध्यान रखते हैं और उनके उत्कर्ष की बात सोचते हैं। इसका सत्परिणाम प्रकारान्तर से अपने को भी मिलता है। समीपवर्ती क्षेत्र में हरीतिमा उगी हुई हो तो उस हरियाली से नेत्रों को शीतलता और शुद्ध वायु का लाभ मिलता है। इसके विपरीत यदि चारों ओर गंदगी फैली हो, दुर्गन्ध उठती हो तो उसका प्रभाव अपने घर-परिवार तक पहुंचे बिना न रहेगा।
एक की देखा-देखी जिस प्रकार उदारता की प्रवृत्ति दूसरों में भी पनपती है, उसी प्रकार संकीर्ण स्वार्थ परता का भी अनुकरण होता है। यदि अपना व्यवहार रूखा, नीरस, और उपेक्षा पूर्ण हो, तो उसकी प्रतिक्रिया पड़ोसियों पर भी होगी। वे भी उसी रीति-नीति को अपनायेंगे। इस प्रकार ऐसा वातावरण बनेगा जिसमें, सभी अपने मतलब से मतलब रखें, कोई किसी के दुःख-दर्द में सहायता न करें, आड़े वक्त में काम न आये। इस प्रकार के माहौल बनने न पाये, इसके लिये पहले समझदारों को ही करनी चाहिए और उन्हें सम्पर्क क्षेत्र में सेवा-सद्भावना का वातावरण बनाना चाहिए। देश भक्ति इसी को कहते हैं।
भगवान बुद्ध के पंचशील उनके अनुचरों—बौद्ध भिक्षुओं को प्रधान लक्ष्य मानते हुए निर्धारित किए गये थे। वे हैं—(1) किसी का जीवन नष्ट न करो अर्थात पूर्ण अहिंसा बरतो (2) जो तुम्हें न दिया गया हो, उसे मत लो। अर्थात् चोरी से, छल से कुछ भी अर्जित न करो। (3) ब्रह्मचर्य पालो अर्थात् इन्द्रियों का संयम रखो। (4) कम बोलो, यथार्थ बोलो, धर्म के समर्थन को ध्यान में रखकर बोलो। (5) नशा मत करो। यह निर्धारण इसलिए किए गए थे कि धर्मोपदेशकों को, श्रद्धास्पद स्थान पर बैठने वाले लोगों को सामान्यजनों की तुलना में अपना स्थान ऊंचा रखना ही चाहिए अन्यथा सामान्य लोगों जैसा स्वभाव रखते हुए उच्च आदर्शों के सम्बन्ध में प्रवचन करते बन न पड़ेगा। जो करेगा उसका प्रभाव न पड़ेगा। पण्डित नेहरू और चीन के शासनाध्यक्षों ने मिलकर राजनैतिक पंचशीलों की घोषणा की थी। उनने इस माध्यम से राष्ट्रों के बीच उत्पन्न होने वाली समस्याओं का समाधान खोजा था। वे थे—(1) राष्ट्र एक-दूसरे की क्षेत्रीय अखण्डता का सम्मान करें तथा सार्वभौम हित का भी ध्यान रखें। (2) विवादों में आक्रमण की नीति न अपनायें पारस्परिक विचार विनिमय तथा पंच निर्णय के आधार पर उनका समाधान खोजा जाय। (3) एक-दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करें। (4) समानता और अपने सद्भाव का निर्वाह करें। (5) शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की बात सोचें। यह पांचों बातें ऐसी हैं, जिन्हें राष्ट्राध्यक्षों के आपसी सम्बन्धों को सही रखने की दृष्टि से निर्धारित किया गया था। सब जानते हैं कि इनका परिपालन न हो पाया, व युद्ध की स्थिति बन गई। अतः इन्हीं लोगों द्वारा अपनाया जा सकता है, जो निष्ठापूर्वक निबाहने हेतु उद्यत हों। जन साधारण इस संदर्भ में कुछ कर नहीं सकता। मात्र अपने शासकों से इसके लिए अनुरोध या आग्रह कर सकता है।
गांधी जी ने सत्याग्रह के दिनों में विशिष्ट पंचशीलों की घोषणा की थी। उस समय की आवश्यकताओं को देखते हुए देशभक्तों के लिए इन्हें अपनाना आवश्यक था। वे इस प्रकार हैं—(1) निर्भयता (2) शारीरिक श्रम (3) अस्वाद (4) सर्वधर्म समभाव (5) अस्पृश्यता निवारण। यह सभी वैसे हर समय में भी हर किसी के लिए कार्यरूप में अपनाये जाने योग्य हैं। पर सत्याग्रही स्वयं सेवकों के लिए तो उस समय की विशिष्ट आवश्यकताओं को देखते हुए उपयोगी थे ही। महर्षि पातंजलि ने पांच कर्त्तव्यों को पांच यमों का नाम दिया है—(1) अहिंसा (2) सत्य (3) अस्तेय (4) ब्रह्मचर्य (5) अपरिग्रह। यह पांचों उनके लिए आवश्यक हैं, जो आत्मिक प्रगति के मार्ग पर चलना चाहते हैं। योग साधनायें करने के साथ ही इन अनुबन्धों का पालन करना आवश्यक निर्धारित किया गया है।
यह पंचशील ऐसे हैं जिन्हें जनसाधारण के लिए उपयोगी माना जा सकता है। इन्हें जन साधारण द्वारा अपनाया और कार्यान्वित किया जा सकता है। हममें से प्रत्येक को इन्हीं सर्वोपयोगी पंचशीलों को धर्म चेतना का सार समझते हुए अपनाने में अपना विश्वास एवं उत्साह व्यक्त करना चाहिए।
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पंचशील—1
सम्पर्क क्षेत्र की देश भक्ति
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क्षेत्रीय प्रगति में आस्था का तात्पर्य यह नहीं है कि मात्र अपने समीपवर्ती लोगों तक ही सेवा-सद्भाव एवं सहयोग को केन्द्रित किया जाय सार्वभौम स्थिति का, दूरवर्ती लोगों की समस्याओं का ध्यान ही न रखा जाय।
मनुष्य का व्यावहारिक सम्पर्क एक सीमित क्षेत्र तक ही रहता है। दूरवर्ती क्षेत्रों में बार-बार आना-जाना नहीं हो सकता। वहां की कठिनाइयों, समस्याओं तथा बदलती परिस्थितियों का अनुमान लगाते रहना भी सरल नहीं है। भाषा सम्बन्धी कठिनाइयां भी आड़े आती हैं। प्रचलन और परम्पराओं में भी थोड़ी-थोड़ी दूरी पर अन्तर पड़ जाता है। इन कठिनाइयों के कारण विश्व-सेवा की उदात्त भावना भी व्यवहार रूप में सीमित लोगों तक ही समेटनी पड़ती है। उसी परिधि की समस्याओं का समाधान करते भी सरल पड़ता है। सेवाधर्म करते हुए घर-परिवार की, उपार्जन व्यवसाय की देखभाल हो सकती है। इसलिए सुविधा-सरलता इसी में है। इसी को विश्व सेवा की, अपने हिस्से की इकाई मानना चाहिए।
जिनके पीछे घर-परिवार के भारी उत्तरदायित्व नहीं, जो पारिवारिक बन्धनों से स्वतन्त्र हैं, जिन्हें गुजारे का प्रबन्ध करने में अधिक समय नहीं लगाना पड़ता, उनके लिए यह उचित है कि वे वानप्रस्थ स्तर का जीवन जियें, परिव्राजक बनकर परिभ्रमणपरक योजना अपनायें अथवा अपने लिए ऐसा कार्य चुनें, जो अधिक पिछड़ा हुआ हो, जहां पहुंचने की आवश्यकता अधिक दृष्टिगोचर होती हो, जहां डेरा डालकर रहा जा सकता हो। जिनकी क्षमता निरन्तर परिभ्रमण के उपयुक्त है और जो अनेक स्थानों पर जाकर बादलों की तरह बरसते रह सकते हैं, उनके लिए उसी प्रकार की कार्य विधि अपनानी चाहिए। किन्तु जिन्हें घर-परिवार की जिम्मेदारियों का निर्वाह करना पड़ता है ऐसे लोग ही अधिकतम होते हैं। उनके लिए यही उचित है कि अपने क्षेत्र में रहकर ही काम करें।
देश भक्ति किसी समय कोई बड़ी बात मानी जाती थी। पर जब वह अन्य देशों की उपेक्षा करने के स्तर तक जा पहुंची, तो उसे साम्प्रदायिक कट्टरता के स्तर की माना जाने लगा। इन दिनों उसकी परिभाषा मात्र अपने समुदाय की समुचित सेवा करना न रहकर दूसरे देशों पर आधिपत्य जमाना, साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद तक अपनाना बन गया है। अपने देश को लाभ पहुंचाने के लिए दूसरे क्षेत्रों के अधिकारों का अपहरण करना भी बन गया है। पिछले दिनों देश—देशों के बीच युद्ध छिड़ते रहे हैं। और दोनों ओर के लड़ाकू अपने-अपने देशों की आन-बान-शान की दुहाई देते रहे हैं। अपने लाभ के लिए दूसरों को हानि पहुंचाना जैसे व्यक्तिगत जीवन में अनैतिक आचरण है, उसी प्रकार अपने समुदाय के लिए दूसरे देशों के स्वत्वों हितों का अपहरण भी अनुचित है। किन्तु देश भक्ति के नाम पर यह प्रवृत्ति भी अपनाई जाने लगी है। इसलिए प्रान्तवाद, भाषावाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद की तरह ही देशवाद की कट्टरता भी अनुचित समझी जाने लगी है।
दुनिया अगले दिनों एक विशाल परिवार की तरह बनने जा रही है। इसके बिना वर्तमान विग्रहों से छुटकारे का और कोई मार्ग नहीं। देश भक्ति के स्थान पर अब विश्व भक्ति को महत्व देना होगा। अपने-अपने देशों की जय बोलने के स्थान पर विश्व भक्ति का नारा लगाना होगा। विश्व का कल्याण हो। धर्म की जय हो। यही आज की सार्वभौम भावना होनी चाहिए। सभी धर्मों, सभी वर्गों, सभी देशों को मिल जुलकर सार्वभौम सद्भावना का अभिवर्धन करना चाहिए।
देश भक्ति का अर्थ हमें ऐसा करना चाहिए, जिसमें अन्य देशों के उचित हितों के साथ किसी प्रकार का टकराव न होता हो न कोई अनीति करे न अनीति सहे यह माहौल भाई-चारे की भावना अपनाने से ही संभव है हम इस सीमा तक ही देश भक्त रहें कि अपने सीमावर्ती क्षेत्र की अधिक सुविधापूर्वक जितनी अधिक सेवा बन पड़े करें। उसके लिए सरलता को ध्यान में रखते हुए अधिकाधिक तत्परता बरतें। यह कार्य निजी कार्यों की व्यस्तता के साथ-साथ चल सकता है। अपने घर की तरह अपने पड़ौस के क्षेत्र की सफाई के लिए भी प्रयत्न हो सकता है। जिस प्रकार अपने परिवार को शिक्षित बनाने के लिए, सुसंस्कारी—सम्पन्न बनाने के लिए प्रयत्न किया जाता है उसी प्रकार जितने अधिक व्यापक क्षेत्र का ध्यान रखना, सेवारत होना संभव हो, उसमें भी कमी न रहने देनी चाहिए।
समीपवर्ती क्षेत्र में जैसा वातावरण होता है वैसा प्रभाव अपने निज के या परिवार के ऊपर भी पड़ता है। यदि चोर उचक्के, बेईमान, व्यभिचारी अपने इर्द-गिर्द रह रहे हैं, तो उनके अनाचारों से अपने घर वाले भी किसी न किसी प्रकार कभी न कभी प्रभावित हो सकते हैं। इसलिए अपने घर की तरह सम्पर्क क्षेत्र को भी सुधारने का प्रयत्न किया जाना चाहिए। अपनी बढ़ी-चढ़ी सम्पन्नता समीपवर्ती दरिद्र लोग सहन नहीं कर सकते। उनमें स्वभावतः ईर्ष्या भड़केगी और इस आक्रोश में वे ईर्ष्यावश किसी न किसी प्रकार की हानि पहुंचाये बिना न रहेंगे। इसलिए अपनी सम्पन्नता को सुरक्षित रखने के लिए, समीपवर्ती क्षेत्रों की समृद्धि बढ़ाने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। अपने बालक सुशिक्षित हों, किन्तु पड़ोसी अशिक्षित अनगढ़ रहें तो उस विषमता का प्रभाव पड़े बिना न रहेगा। इसीलिए समता, स्वस्थता, स्वच्छता, सुसंस्कारिता, सम्पन्नता का प्रयत्न अपने या अपने परिवार तक ही सीमित न रखकर उसे जितने अधिक क्षेत्र में बढ़ाया जा सकता हो, बढ़ाना चाहिए। अपनेपन की परिधि जितने बड़े क्षेत्र में बढ़ाई जा सकती हो, उतनी बढ़ाने का प्रयत्न करना चाहिए।
विश्व कल्याण का भाव तो मन में रखा जा सकता है, लोग मंगल की भावनाओं को तो संसार भर के लिए व्यापक बनाया जा सकता है, पर उसका व्यवहारिक स्वरूप नहीं बन सकता। जहां तक अपना पहुंचना नहीं हो सकता, जहां की भाषा नहीं समझी जाती, जो अपने से परिचित नहीं है, उनके साथ भी भावनात्मक सद्भाव तो रखा जा सकता है, पर व्यवहारिक यही है कि अपने कार्य क्षेत्र को सीमित बनायें और उसी में सेवा-सहायता के लिए तत्परतापूर्वक जुटें। देश भक्ति का व्यावहारिक स्वरूप यही हो सकता है।
निजी कार्यों पर जितना ध्यान दिया जाता है, अपने लाभ का जितना ध्यान रखा जाता है, उस परिधि को बढ़ाया जाना चाहिए और अधिक बड़े क्षेत्र में वहां के निवासियों में अपनी कार्य क्षमता का प्रयोग करना चाहिए। संकीर्ण और कृपण लोग ही निजी स्वार्थों की परिधि में सीमाबद्ध रहते हैं। जिनका हृदय उदार है, वे अपनी ही तरह दूसरों का भी ध्यान रखते हैं और उनके उत्कर्ष की बात सोचते हैं। इसका सत्परिणाम प्रकारान्तर से अपने को भी मिलता है। समीपवर्ती क्षेत्र में हरीतिमा उगी हुई हो तो उस हरियाली से नेत्रों को शीतलता और शुद्ध वायु का लाभ मिलता है। इसके विपरीत यदि चारों ओर गंदगी फैली हो, दुर्गन्ध उठती हो तो उसका प्रभाव अपने घर-परिवार तक पहुंचे बिना न रहेगा।
एक की देखा-देखी जिस प्रकार उदारता की प्रवृत्ति दूसरों में भी पनपती है, उसी प्रकार संकीर्ण स्वार्थ परता का भी अनुकरण होता है। यदि अपना व्यवहार रूखा, नीरस, और उपेक्षा पूर्ण हो, तो उसकी प्रतिक्रिया पड़ोसियों पर भी होगी। वे भी उसी रीति-नीति को अपनायेंगे। इस प्रकार ऐसा वातावरण बनेगा जिसमें, सभी अपने मतलब से मतलब रखें, कोई किसी के दुःख-दर्द में सहायता न करें, आड़े वक्त में काम न आये। इस प्रकार के माहौल बनने न पाये, इसके लिये पहले समझदारों को ही करनी चाहिए और उन्हें सम्पर्क क्षेत्र में सेवा-सद्भावना का वातावरण बनाना चाहिए। देश भक्ति इसी को कहते हैं।