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Books - धर्म के दस लक्षण और पंचशील

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


पराक्रम करें—पुरुषार्थ अपनायें

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संसार में प्रचुर परिमाण में वैभव भरा पड़ा है, पर उसे प्राप्त पराक्रम के सहारे ही किया जा सकता है। परिश्रम और मनोयोग का समन्वय ही पराक्रम कहलाता है। यह पराक्रम ही है, जिसके सहारे अभीष्ट उपलब्धियां प्रचुर परिमाण में उगाई और अर्जित की जाती हैं। किसान कृषि कर्म में परिश्रमपूर्वक संलग्न होते हैं और बदले में धनधान्य की भरी पूरी फसल से कोठे भरते हैं। माली अपने बगीचे में परिपूर्ण परिश्रम करता है और बदले में फल-फूलों से लदा हुआ उद्यान खड़ा देखकर गौरवान्वित होता है। हस्तगत हुए लाभ से अपने को सुसम्पन्न और सम्मानित अनुभव करता है।
इस संसार में बढ़ी-चढ़ी सम्पदायें और विभूतियां विद्यमान हैं, पर वे हर किसी को हस्तगत नहीं होतीं। मात्र पुरुषार्थी-पराक्रमी ही उन्हें उपलब्ध करते हैं। आहार से शक्तिदायी रक्त बनता है, पर यह अनायास ही नहीं हो जाता। समूचे शरीर को इसके लिए अपने-अपने स्तर के प्रयास करने पड़ते हैं। भूमि में उर्वरता विद्यमान है उसी के गर्भ से अनेकानेक खनिज, वृक्ष, पौधे खाद्य पदार्थ उत्पन्न होते हैं। इस उत्पादन का श्रेय धरती को ही है। किन्तु यह अनायास ही कहां हस्तगत होता है? उसके लिए उपार्जनकर्त्ता को समुचित प्रयास और परिश्रम करना पड़ता है। जो उससे बचते हैं, वे खाली हाथ रहते हैं। आलसी और कामचोर दरिद्र ही बने रहते हैं। अभाव और दुर्भाग्य का रोना ही रोते रहते हैं।
अवसर हर किसी के सामने है। समय सबको समान रूप से मिला हुआ है। यह अपनी इच्छा के ऊपर निर्भर है कि समय के साथ श्रम का सुनियोजन करें और उसके बदले विभिन्न प्रकार की  उपलब्धियां अर्जित करें। संसार में बहुत कुछ है। सब कुछ है, पर वह उन्हीं के लिए सुरक्षित है, जो पुरुषार्थ का महत्व समझते हैं। जीवन की सार्थकता प्रबल पुरुषार्थ के साथ जोड़ने पर विश्वास करते हैं।
समय को आलस्य प्रमाद में भी गंवाया जा सकता है। उसे आवारागर्दी, यारवासी और दुर्व्यसनों में भी गंवाया जा सकता है। अव्यवस्थित रीति-नीति अपनाकर अपनी शारीरिक और मानसिक क्षमताओं का अपव्यय भी किया जा सकता है। बहुत से लोग ऐसा करते भी हैं। उन्हें खाली हाथ रहना पड़ता है। निराश रहना और भाग्य को कोसना पड़ता है। वस्तुतः पुरुषार्थ का नाम ही सौभाग्य और आलस्य-प्रमाद ही दुर्भाग्य है।
यह हो सकता है कि परिस्थिति वश किए हुए प्रयास को इच्छित प्रतिफल न मिले। अवरोध मार्ग में अड़े और सफलता को दूर घसीट ले जायें। इससे आर्थिक लाभ में कमी हो सकती है। आशा में कटौती भी हो सकती है, किन्तु इतने पर भी वह लाभ तो निश्चित रूप से मिलता ही है जिसको व्यक्तित्व की प्रखरता के रूप में स्थायी रूप में पाया जा सकता है। असफलतायें मात्र यह बताती हैं कि उस कार्य के लिये जितने पुरुषार्थ की आवश्यकता थी उसमें कमी रही। इस कमी को नये सिरे से, नये उत्साह के साथ, नये प्रयत्न करके पूरा किया जाना चाहिए।
सूक्ति है कि प्रयत्नरत चींटी पर्वत को लांघ लेती है किन्तु निठल्ला बैठा रहने वाला द्रुतगामी गरुड़ एक कदम भी नहीं चल पाता। लक्ष्मी पुरुष सिंहों को वरण करती है। यहां सिंह से तात्पर्य पराक्रम से है। आक्रामकता से नहीं। संसार के सफल मनुष्यों के जीवन पर दृष्टिपात करने से एक ही सुनिश्चित निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है कि उनने अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए पुरुषार्थ में कमी नहीं रखी। इसी आधार पर सफलता उनके समीप खिंचती चली आई।
परिस्थितियां अनुकूल होने पर भी कई प्रमादी जहां के तहां पड़े रहते हैं। साधन सम्पन्नों की सुविधा उनकी प्रगति का कोई द्वार नहीं खोल पाती। किन्तु जिनमें लगन है, जीवट है, वे अपने साहस के बलबूते प्रतिकूलताओं को भी अनुकूल बनाते देखे गये हैं। अभावों की स्थिति में रहकर भी उनने अपने पराक्रम का परिचय दिया। धैर्य और साहस को अपनाये रखा। इस आधार पर उन्हें आगे बढ़ने के लिए मार्ग मिल गया और साधनों का सुयोग जुटता गया। साहसी को सहायता मिलती है। मनस्वी लोग बीहड़ों में अपनी राह बनाते हैं। कठिन दीखने वाले काम तभी तक कठिन रहते हैं जब तक कि उनका सामना नहीं किया गया। सामना करने पर कठिन से कठिन कार्य हल हो जाते हैं। प्रगति के पथ पर चलने वाले देर सवेर में अपना लक्ष्य प्राप्त करके ही रहते हैं।
यह सोचना उचित नहीं कि बैठे-ठाले रहने में सौभाग्य है। कम काम करना या आराम की जिन्दगी गुजारना सुयोग है। वस्तुतः इसे दुर्भाग्य ही समझना चाहिए कि पुरुषार्थ के करने की क्षमता होते हुए भी उस सामर्थ्य को बर्बाद करते रहा जाय। निर्वाह के लिए यदि पूर्व अर्जित सुविधा साधन हैं तो भी यह उचित नहीं कि उन्हीं को खर्च करते रहा जाय। उसमें अभिवृद्धि न की जाय। सम्पदा, विद्या, स्वास्थ्य, प्रतिभा, कला आदि की उपलब्धियों को निरन्तर बढ़ाया जाना चाहिए और उस अभिवृद्धि को गिरों को उठाने में, उठों को बढ़ाने में लगाया जाना चाहिए। परमार्थ में उन सभी साधनों को नियोजित करते रहना चाहिए जो अपने निर्वाह के अतिरिक्त बच जाते हैं। परमार्थ वह धन है जो जन्म-जन्मान्तरों तक साथ जाता है। सुसंस्कारों की जमा-पूंजी बढ़ाता है। यह पूंजी ऐसी है जिसके सहारे उज्ज्वल भविष्य का सरंजाम जुटता है।
पुरुषार्थ सर्वत्र सराहा जाता है। चींटियां, मधु-मक्खियां मात्र अपने गुजारे भर तक सीमित नहीं रहतीं। वरन् समय की सार्थकता व्यस्त रहने में अनुभव करती है। बया पक्षी कितना सुन्दर घोंसला बनाती है। इन तुच्छ प्राणियों से यह सीखा जा सकता है कि श्रमशीलता अपनाने पर कितना आनन्द मिलता है और कितना उत्साह बना रहता है। तत्परता, तन्मयता और स्फूर्ति अपने आप में उल्लास का स्रोत है। मनुष्य को तो उसे अपनाना ही चाहिए और हर क्षण को व्यस्तता के साथ जोड़कर उसे सार्थक बनाना चाहिए। आवश्यक नहीं कि अभावग्रस्त ही परिश्रम अपनायें। उत्साह और साहस की अभिवृद्धि के लिए भी किन्हीं रचनात्मक कार्यों में अपने को संलग्न रखा जा सकता है। इस आधार पर साधन बढ़ सकते हैं। सुसंस्कार विकसित हो सकते हैं। कौशल में अभिवृद्धि की जा सकती है और सम्पर्क क्षेत्र में ऐसी परम्परा चलाई जा सकती है जिससे प्रभावित होकर अन्य लोग भी अनुकरण करें। उपयोगी कार्यों में अपने आपको व्यस्त रखें। सामूहिक और राष्ट्रीय प्रगति इस बात पर निर्भर है कि उसके नागरिक कितने पुरुषार्थ परायण हैं। आवश्यक नहीं कि प्रयास निजी लाभ के लिए या परिवार को समृद्ध बनाने की सीमा तक ही सीमित रखे जायें। लोक मंगल के सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए—पुण्य-परमार्थ के लिए इतने काम करने को पड़े रहते हैं, जिनका ध्यान रखने वाले को यह नहीं कहना पड़ता कि हमारी आवश्यकता तो पूरी हो जाती है। फिर परिश्रम किस निमित्त करें?
सीमित धन से काम चल सकता है, पर ज्ञान का समुद्र अथाह है। उसमें से जितना अधिक सम्भव हो, अर्जित करने में निरत रहना चाहिए। भौतिक जीवन में अनेक प्रकार के कला-कौशल का महत्व है। आत्मिक जीवन को सुसम्पन्न बनाने के लिए साधनात्मक, तपश्चर्यापरक प्रयास करने पड़ते हैं। सद्गुणों को बढ़ाते हुए दूसरों को लाभान्वित कराने का मार्ग तो ऐसा है, जिसमें जन्म–जन्मान्तरों तक लगे रहा जा सकता है। पुरुषार्थ मानव जीवन की सफलता का प्रधान अंग है।
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