
विवेक का अनुशासन मानें
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बच्चों की आदत तत्काल के आकर्षण पर मचलने की होती है। उनमें दूरगामी परिणामों की कल्पना कर सकने जैसी क्षमता नहीं होती। यही कारण है कि उनकी रोकथाम और डांट-डपट करनी पड़ती है। छोटे बच्चे सांप, बिच्छु, आग जैसी चमकदार वस्तुओं को पकड़ने की चेष्टा कर सकते हैं। कारण कि उनके लिए सुहावनी या अजीब लगने वाली वस्तु ही सब कुछ होती है, वे उसकी लाभ-हानि समझे बिना उसे ही पकड़ने की कोशिश करते हैं। कई बार तो अखाद्य वस्तुओं को भी मुंह में रख लेते हैं।
यह बचपना शरीर के बड़े हो जाने पर भी मानसिक क्षेत्र में यथावत् बना रहता है और व्यक्ति तात्कालिक लाभ को ही सबकुछ समझता रहता है। यह अनुमान उससे लग नहीं पाता कि सुहावने लगने वाले कार्य आगे चलकर कितने अनिष्टकर सिद्ध हो सकते हैं। स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ आने पर प्रायः आवश्यकता से अधिक मात्रा में खा लिया जाता है। फलतः कुछ ही समय में उदर शूल, अपच, उल्टी दस्त आदि की प्रतिक्रिया आरम्भ हो जाती है। खाते समय स्वाद की अधिकाधिक पूर्ति ही ध्यान में रहती है और यह अनुमान गले नहीं उतरता कि उसका प्रतिफल क्या हो सकता है। कामुकता का अति उत्साह भी ऐसे ही अनर्थ करता है। शरीर खोखला हो जाता है, जीवनी शक्ति घट जाती है, मानसिक कुशाग्रता विदा हो जाती है। साथ ही पत्नी का स्वास्थ्य और बच्चों का भविष्य अन्धकारमय बनता है। यदि इस अनुमान को सही रीति से जाना जा सकना संभव हो सके तो उसके परिणाम स्वरूप व्यक्ति अपनी समर्थता और प्रखरता का भण्डार भरे रह सकता है। ओजस और तेजस को अक्षुण्ण बनाये रह सकता है।
आलस्य और प्रमाद में श्रम की कठिनाई से बचाव होता है। दीर्घसूत्रता इसलिए अच्छी लगती है कि उसमें नियमितता अपनाने का बन्धन नहीं बंधता। यह आदतें अभ्यास में आते रहने पर परिपक्व भी हो जाती है और फिर छुड़ाये नहीं छूटती। बहुमूल्य समय ऐसे ही आवारागर्दी में निकल जाता है। यदि समझदारी से काम लिया गया होता और समय का तत्परता पूर्वक सदुपयोग किया गया होता, तो उतने ही समय में उतनी प्रगति हो सकती थी कि योग्यता भी बढ़ती और सम्पन्नता की भी कमी न रहती। समय का सदुपयोग समझने और करने वाले उतने ही समय में महामानवों जैसे कृत्य कर गुजरते हैं, जितने में आलसी लोग जीवन की गाड़ी को जिसतिस प्रकार खींच पाते हैं। कोल्हू के बैल की तरह चलते हुए निरर्थक जीवन बिताते हैं।
कुमार्ग पर चलने, कुकर्म करने की आदत भी उन्हीं को पड़ जाती है, जो उनके परिणामों की भावी संभावना को आंखें खोलकर देख नहीं पाते। जिनमें समझदारी का उदय हो जाता है, वे भविष्य का अनुमान सही स्तर पर लगाते हैं और जो कुकर्म करने से पहले ही सावधान हो जाते हैं, जिनका शुभारम्भ सत्परिणामों की सम्भावनाओं को ध्यान में रखते हुए होता है उन्हें आरम्भ में थोड़ा कष्ट भले ही उठाना पड़े, पर वे अन्त में आनन्द भरा जीवन जीते और निरन्तर प्रगति पथ पर अग्रसर होते हैं।
किसान को खेत में कड़ा परिश्रम करना पड़ता है। घर में रखा हुआ बीज खेत में बिखेरना पड़ता है। इसके बाद भी खाद-पानी लगाने का सिलसिला चलता रहता है। इस आरम्भिक श्रम साधना को देखते हुए कोई अदूरदर्शी इस प्रयास को निरर्थक भी कह सकता है। पर वह समय आता है जब फसल पकती है और अनाज से घर की बड़ी-बड़ी कोठी भरती हैं। विद्यार्थी को भी यही मार्ग अपनाना पड़ता है। वे स्नातक बनने के लिए चौदह वर्ष का अध्ययन तप करते हैं। पुस्तकों को खरीदने, फीस चुकाने जैसे प्रयास में प्राण-प्रण से लगे रहते हैं। पढ़ाई के दिनों का यह श्रम उन दिनों बेकार लग सकता है, किन्तु समय आता है जब वह कालेज की पढ़ाई पूरी करके निकलता और बड़ा अफसर बनता है। आरम्भिक दिनों में जो समय लगाना, श्रम करना और धन खर्च करना पड़ता था। वह समय पर फल देता है और समझा जाता है कि आरम्भिक दिनों में तत्परतापूर्वक पढ़ने का जो निर्णय किया गया था वह निरर्थक नहीं गया। दूरदर्शिता निष्फल नहीं गयी। व्यायामशाला में प्रवेश करके जो वर्षों कड़ी कसरत की गई थी वह उस समय तो तात्कालिक प्रतिफल नहीं देती थी। उल्टे पौष्टिक खुराक, तेल मालिश, ब्रह्मचर्य पालन जैसी आवश्यकताओं को पूरा करने की मांग करती थी। बाद में जब वह व्यक्ति पहलवान बनकर कुश्ती पछाड़ता यशस्वी बनता और विजेता को मिलने वाले पुरस्कार जीतता है, तो प्रतीत होता है कि आरम्भिक दिनों का परिश्रम निरर्थक नहीं गया।
बीज गलता है और वृक्ष बनता है। यह सिद्धान्त अकाट्य है, पर इसके साथ इतना और जुड़ा हुआ है कि बोने के दिन से फल लगने के बीच लम्बा फासला होता है। जो उतना धैर्य रख पाते हैं, वे माला-माल बनते हैं। व्यापारी कारखाने में पूंजी लगाते हैं। आरम्भ में तो घर की सारी पूंजी खप जाती है वरन् आवश्यकता पड़ने पर बैंक आदि से उधार लेकर उस आवश्यकता की पूर्ति करनी पड़ती है। उस समय घाटा ही घाटा दीखता है पर यह आरम्भिक पूंजी निवेश कुछ ही समय तक का दबाव रहता है, इसके बाद न केवल वह मूलधन वरन् ब्याज समेत लाभ अर्जित होने लगता है।
भविष्य की सही सम्भावनाओं का पता तो केवल भगवान को रहता है। पर उसका 80 प्रतिशत अनुमान उदाहरणों के सहारे लगाया जा सकता है। यदि ऐसा न होता तो कृषि, पशुपालन, व्यवसाय, अध्ययन आदि के कार्यों में आरम्भिक घाटा देखते हुए उन्हें करने के लिए कोई भी तैयार न होता। भविष्य का अनुमान हर व्यक्ति अपने विवेक द्वारा लगा सकता है। इसी को तीसरा नेत्र या ज्ञान चक्षु कहा गया है। इसको यदि सही संतुलित आदर्शों का पक्षधर बना लिया जाय तो वह देवदूत का काम करता है और ऐसे मार्ग पर चलाता है, जिसमें धैर्य और सुख-शांति का भण्डार बढ़ता रहे।
सुमार्ग के सत्परिणामों की तरह कुमार्ग के दुष्परिणामों का पूर्वाभास भी विवेक के आधार पर हो सकता है। नशेबाजी अपनाने पर आरम्भिक दिनों में तो फुर्ती और मस्ती का हलका-सा अनुभव होता है। पर जब वह बुरी आदत नागपाश की तरह गले में बंध जाती है, तो फिर से उसे छुड़ाना कठिन पड़ता है। शरीर दिन-दिन क्षीण होता जाता है, मस्तिष्क पर विक्षिप्तता चढ़ दौड़ती है। आर्थिक दृष्टि से दिवालिया बनने की नौबत आती है। परिवार हर दृष्टि से टूट जाता है। बदनामी होने पर कोई विश्वास नहीं करता। तिरष्कृत-बहिष्कृत की तरह अकेलेपन से घिरा हुआ जीवन बिताना पड़ता है।
यदि तात्कालिक क्षणिक लाभ पर अंकुश रखा जा सके और दूरगामी परिणामों पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जा सके, तो हर व्यक्ति दुष्प्रवृत्तियों के दुष्परिणामों से बच सकता है। सत्प्रवृत्तियों के सत्परिणामों का भरपूर लाभ उठा सकता है। मनुष्य को अपने भाग्य का स्वयं निर्माता कहा जा सकता है। यह तथ्य इस बात पर निर्भर है कि विवेक के निर्धारण को अपनाया गया या नहीं। उसे जो न करने के लिए कहा था, उस पर न चलने का निश्चय किया गया या नहीं। विवेक का तिरस्कार करना अपने उज्ज्वल भविष्य की संभावनाओं का बहिष्कार करना है।
‘‘विवेक’’—नीर-क्षीर को विवेक कहते हैं, उचित या अनुचित के अन्तर को। यह विशिष्टता आत्मिक प्रौढ़ता के साथ जुड़ी हुई है। जब तक मनुष्य बचपने जैसी बचकानी बुद्धि अपनाये रहता है तब तक उसे तात्कालिक लाभ ही सब कुछ दीखता रहता है। इस स्थिति में रहने वाले आमतौर से जोखिम ही उठाते हैं।
क्रोध में मनुष्य अन्धा हो जाता है। न कहने योग्य कहने और न करने योग्य करने लगता है। लोभ के वशीभूत होकर चोरी, छल, प्रपंच, हत्या, विश्वासघात आदि कुछ भी करने लगता है। तात्कालिक लाभ के लिये कुछ भी दुष्कर्म करने पर उतारू हो जाता है। इस आधार पर जो मिला है वह तो टिकता नहीं, मात्र भर्त्सना, प्रताड़ना भुगतते रहना ही पल्ले बंधता है। अविवेकी ही अपना परलोक बिगाड़ते हैं। निरर्थक प्रपंचों में अपनी शक्ति गंवाते रहते हैं। ओछी वाहवाही के लिए अनेक आडम्बर खड़े करते रहते हैं। यह सब इसलिए बन पड़ता है कि मन पर चंचलता ही हावी रहती है। बुद्धि उसका समर्थन करती रहती है। यदि विवेक जागृत हो तो उसका प्रतिबन्ध एक भी अनर्थ नहीं करने देता और भविष्य हर प्रकार उज्ज्वल बना रहता है।
यह बचपना शरीर के बड़े हो जाने पर भी मानसिक क्षेत्र में यथावत् बना रहता है और व्यक्ति तात्कालिक लाभ को ही सबकुछ समझता रहता है। यह अनुमान उससे लग नहीं पाता कि सुहावने लगने वाले कार्य आगे चलकर कितने अनिष्टकर सिद्ध हो सकते हैं। स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ आने पर प्रायः आवश्यकता से अधिक मात्रा में खा लिया जाता है। फलतः कुछ ही समय में उदर शूल, अपच, उल्टी दस्त आदि की प्रतिक्रिया आरम्भ हो जाती है। खाते समय स्वाद की अधिकाधिक पूर्ति ही ध्यान में रहती है और यह अनुमान गले नहीं उतरता कि उसका प्रतिफल क्या हो सकता है। कामुकता का अति उत्साह भी ऐसे ही अनर्थ करता है। शरीर खोखला हो जाता है, जीवनी शक्ति घट जाती है, मानसिक कुशाग्रता विदा हो जाती है। साथ ही पत्नी का स्वास्थ्य और बच्चों का भविष्य अन्धकारमय बनता है। यदि इस अनुमान को सही रीति से जाना जा सकना संभव हो सके तो उसके परिणाम स्वरूप व्यक्ति अपनी समर्थता और प्रखरता का भण्डार भरे रह सकता है। ओजस और तेजस को अक्षुण्ण बनाये रह सकता है।
आलस्य और प्रमाद में श्रम की कठिनाई से बचाव होता है। दीर्घसूत्रता इसलिए अच्छी लगती है कि उसमें नियमितता अपनाने का बन्धन नहीं बंधता। यह आदतें अभ्यास में आते रहने पर परिपक्व भी हो जाती है और फिर छुड़ाये नहीं छूटती। बहुमूल्य समय ऐसे ही आवारागर्दी में निकल जाता है। यदि समझदारी से काम लिया गया होता और समय का तत्परता पूर्वक सदुपयोग किया गया होता, तो उतने ही समय में उतनी प्रगति हो सकती थी कि योग्यता भी बढ़ती और सम्पन्नता की भी कमी न रहती। समय का सदुपयोग समझने और करने वाले उतने ही समय में महामानवों जैसे कृत्य कर गुजरते हैं, जितने में आलसी लोग जीवन की गाड़ी को जिसतिस प्रकार खींच पाते हैं। कोल्हू के बैल की तरह चलते हुए निरर्थक जीवन बिताते हैं।
कुमार्ग पर चलने, कुकर्म करने की आदत भी उन्हीं को पड़ जाती है, जो उनके परिणामों की भावी संभावना को आंखें खोलकर देख नहीं पाते। जिनमें समझदारी का उदय हो जाता है, वे भविष्य का अनुमान सही स्तर पर लगाते हैं और जो कुकर्म करने से पहले ही सावधान हो जाते हैं, जिनका शुभारम्भ सत्परिणामों की सम्भावनाओं को ध्यान में रखते हुए होता है उन्हें आरम्भ में थोड़ा कष्ट भले ही उठाना पड़े, पर वे अन्त में आनन्द भरा जीवन जीते और निरन्तर प्रगति पथ पर अग्रसर होते हैं।
किसान को खेत में कड़ा परिश्रम करना पड़ता है। घर में रखा हुआ बीज खेत में बिखेरना पड़ता है। इसके बाद भी खाद-पानी लगाने का सिलसिला चलता रहता है। इस आरम्भिक श्रम साधना को देखते हुए कोई अदूरदर्शी इस प्रयास को निरर्थक भी कह सकता है। पर वह समय आता है जब फसल पकती है और अनाज से घर की बड़ी-बड़ी कोठी भरती हैं। विद्यार्थी को भी यही मार्ग अपनाना पड़ता है। वे स्नातक बनने के लिए चौदह वर्ष का अध्ययन तप करते हैं। पुस्तकों को खरीदने, फीस चुकाने जैसे प्रयास में प्राण-प्रण से लगे रहते हैं। पढ़ाई के दिनों का यह श्रम उन दिनों बेकार लग सकता है, किन्तु समय आता है जब वह कालेज की पढ़ाई पूरी करके निकलता और बड़ा अफसर बनता है। आरम्भिक दिनों में जो समय लगाना, श्रम करना और धन खर्च करना पड़ता था। वह समय पर फल देता है और समझा जाता है कि आरम्भिक दिनों में तत्परतापूर्वक पढ़ने का जो निर्णय किया गया था वह निरर्थक नहीं गया। दूरदर्शिता निष्फल नहीं गयी। व्यायामशाला में प्रवेश करके जो वर्षों कड़ी कसरत की गई थी वह उस समय तो तात्कालिक प्रतिफल नहीं देती थी। उल्टे पौष्टिक खुराक, तेल मालिश, ब्रह्मचर्य पालन जैसी आवश्यकताओं को पूरा करने की मांग करती थी। बाद में जब वह व्यक्ति पहलवान बनकर कुश्ती पछाड़ता यशस्वी बनता और विजेता को मिलने वाले पुरस्कार जीतता है, तो प्रतीत होता है कि आरम्भिक दिनों का परिश्रम निरर्थक नहीं गया।
बीज गलता है और वृक्ष बनता है। यह सिद्धान्त अकाट्य है, पर इसके साथ इतना और जुड़ा हुआ है कि बोने के दिन से फल लगने के बीच लम्बा फासला होता है। जो उतना धैर्य रख पाते हैं, वे माला-माल बनते हैं। व्यापारी कारखाने में पूंजी लगाते हैं। आरम्भ में तो घर की सारी पूंजी खप जाती है वरन् आवश्यकता पड़ने पर बैंक आदि से उधार लेकर उस आवश्यकता की पूर्ति करनी पड़ती है। उस समय घाटा ही घाटा दीखता है पर यह आरम्भिक पूंजी निवेश कुछ ही समय तक का दबाव रहता है, इसके बाद न केवल वह मूलधन वरन् ब्याज समेत लाभ अर्जित होने लगता है।
भविष्य की सही सम्भावनाओं का पता तो केवल भगवान को रहता है। पर उसका 80 प्रतिशत अनुमान उदाहरणों के सहारे लगाया जा सकता है। यदि ऐसा न होता तो कृषि, पशुपालन, व्यवसाय, अध्ययन आदि के कार्यों में आरम्भिक घाटा देखते हुए उन्हें करने के लिए कोई भी तैयार न होता। भविष्य का अनुमान हर व्यक्ति अपने विवेक द्वारा लगा सकता है। इसी को तीसरा नेत्र या ज्ञान चक्षु कहा गया है। इसको यदि सही संतुलित आदर्शों का पक्षधर बना लिया जाय तो वह देवदूत का काम करता है और ऐसे मार्ग पर चलाता है, जिसमें धैर्य और सुख-शांति का भण्डार बढ़ता रहे।
सुमार्ग के सत्परिणामों की तरह कुमार्ग के दुष्परिणामों का पूर्वाभास भी विवेक के आधार पर हो सकता है। नशेबाजी अपनाने पर आरम्भिक दिनों में तो फुर्ती और मस्ती का हलका-सा अनुभव होता है। पर जब वह बुरी आदत नागपाश की तरह गले में बंध जाती है, तो फिर से उसे छुड़ाना कठिन पड़ता है। शरीर दिन-दिन क्षीण होता जाता है, मस्तिष्क पर विक्षिप्तता चढ़ दौड़ती है। आर्थिक दृष्टि से दिवालिया बनने की नौबत आती है। परिवार हर दृष्टि से टूट जाता है। बदनामी होने पर कोई विश्वास नहीं करता। तिरष्कृत-बहिष्कृत की तरह अकेलेपन से घिरा हुआ जीवन बिताना पड़ता है।
यदि तात्कालिक क्षणिक लाभ पर अंकुश रखा जा सके और दूरगामी परिणामों पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जा सके, तो हर व्यक्ति दुष्प्रवृत्तियों के दुष्परिणामों से बच सकता है। सत्प्रवृत्तियों के सत्परिणामों का भरपूर लाभ उठा सकता है। मनुष्य को अपने भाग्य का स्वयं निर्माता कहा जा सकता है। यह तथ्य इस बात पर निर्भर है कि विवेक के निर्धारण को अपनाया गया या नहीं। उसे जो न करने के लिए कहा था, उस पर न चलने का निश्चय किया गया या नहीं। विवेक का तिरस्कार करना अपने उज्ज्वल भविष्य की संभावनाओं का बहिष्कार करना है।
‘‘विवेक’’—नीर-क्षीर को विवेक कहते हैं, उचित या अनुचित के अन्तर को। यह विशिष्टता आत्मिक प्रौढ़ता के साथ जुड़ी हुई है। जब तक मनुष्य बचपने जैसी बचकानी बुद्धि अपनाये रहता है तब तक उसे तात्कालिक लाभ ही सब कुछ दीखता रहता है। इस स्थिति में रहने वाले आमतौर से जोखिम ही उठाते हैं।
क्रोध में मनुष्य अन्धा हो जाता है। न कहने योग्य कहने और न करने योग्य करने लगता है। लोभ के वशीभूत होकर चोरी, छल, प्रपंच, हत्या, विश्वासघात आदि कुछ भी करने लगता है। तात्कालिक लाभ के लिये कुछ भी दुष्कर्म करने पर उतारू हो जाता है। इस आधार पर जो मिला है वह तो टिकता नहीं, मात्र भर्त्सना, प्रताड़ना भुगतते रहना ही पल्ले बंधता है। अविवेकी ही अपना परलोक बिगाड़ते हैं। निरर्थक प्रपंचों में अपनी शक्ति गंवाते रहते हैं। ओछी वाहवाही के लिए अनेक आडम्बर खड़े करते रहते हैं। यह सब इसलिए बन पड़ता है कि मन पर चंचलता ही हावी रहती है। बुद्धि उसका समर्थन करती रहती है। यदि विवेक जागृत हो तो उसका प्रतिबन्ध एक भी अनर्थ नहीं करने देता और भविष्य हर प्रकार उज्ज्वल बना रहता है।