
आत्मोत्कर्ष के लिए ईश्वर आस्था
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ईश्वर निष्ठा को पंचशीलों में प्रमुख माना गया है। उसका प्रत्यक्ष रूप तो पूजा अर्चना है। पर दार्शनिक रूप यह है कि ईश्वर की सत्ता पर परिपूर्ण विश्वास किया जाय। उसकी नियम व्यवस्था को अटूट एवं अकाट्य माना जाय। उसका सर्वव्यापी और न्याय निष्ठ होना यदि हमारी भावनाओं की गहराई तक पहुंच सके तो उसका परिणाम यह होगा कि कोई स्वेच्छाचार अनाचार न बरत सकेगा। उसे यह विश्वास बना रहेगा कि सत्कर्मों का सुखद परिणाम और दुष्कर्मों का दुखद प्रतिफल मिलकर रहेगा।
किसान और माली जानते हैं कि जो बोया जाता है सो काटा जाता है। करनी अपना प्रतिफल देकर रहती है। लोगों की आस्था प्रायः इसलिए डगमगा जाती है कि किये हुए का तत्काल प्रतिफल नहीं मिलता। उसमें विलम्ब हो जाता है। और व्यक्ति समझने लगता है कि यही ‘‘वे बूझ राजा की अन्धेर नगरी’’ है। कर्मफल से विश्वास उठ जाने का ही यह कारण है कि लोग अनाचार में प्रवृत्त होते कुकर्म करते पाये जाते हैं। यदि यह विश्वास दृढ़तर हो कि नियन्ता की सृष्टि सुव्यवस्था में क्रिया की प्रतिक्रिया होने का विधान सुनिश्चित है तो लोग पाप कर्म करते हुए डरें। पुण्य के सत्परिणामों को समझें। सन्मार्ग पर चलें और पुण्य परमार्थ की दिशा अपनाएं।
क्रिया की प्रतिक्रिया उत्पन्न होने में कुछ देर लगती है। खाये अन्न का रक्त बनने में कुछ समय लगता है। किसान की बोई फसल कटने में कई महीने लगते हैं। आज का जमाया दूध कल दही बनता है। बरगद के अंकुर को समर्थ वृक्ष बनने में लम्बा समय लग जाता है। इतने पर भी कोई अविश्वास नहीं करता कि जो किया है, उसका प्रतिफल न मिलेगा। यदि ऐसा होता तो कोई किसान कृषि न करता। कोई माली बगीचा न लगाता। कोई विद्यार्थी कॉलेज की पढ़ाई तक पढ़ने में लगा न रहता। क्योंकि इन कृत्यों को तत्काल फल तो मिलता नहीं। उनकी परिणति उत्पन्न होने में देर लग जाती है।
इस अधीरता जन्य अविश्वास को दूर करने के लिए ईश्वर की न्याय शीलता पर गहरा विश्वास होना आवश्यक है। जीवन मरने के साथ ही समाप्त नहीं हो जाता है। वह बाद में भी विद्यमान रहता है। कर्मफल परलोक में भी भुगते जा सकते हैं और पुनर्जन्म में भी। इसलिए ईश्वर की सर्व व्यापकता, न्याय निष्ठा, कर्मफल प्रक्रिया तीनों ही ऐसी हैं जिन्हें हर आस्तिक को मानना चाहिए। मानना ही नहीं उन पर विश्वास करना चाहिए। इतने भर से व्यक्ति के निजी जीवन में तथा समाज की सद् परम्पराओं में नीति और न्याय का प्रचलन बना रहता है। इसके फलस्वरूप यह हो सकता है कि लोग कुकर्मों से डरें और सन्मार्ग पर चलने में ही अपना हित अनुभव करें।
एक अनर्थ मूलक—मान्यता ईश्वर के सम्बंध में यह बन चली है कि जो उसका स्तवन करता है, पूजा पाठ के साथ-साथ भोग प्रसाद अर्पण करता है उससे ईश्वर प्रसन्न होता है और उसकी मनोकामनाएं पूर्ण करता है। यह एक प्रकार से ईश्वर को बदनाम करना है उसे प्रशंसा की मनुहार और भेंट पूजा के उपहारों से, अहंकारियों, रिश्वत खोरों की तरह प्रसन्न किया जा सकता है। प्रलोभनों और दबावों के आधार पर उसे कठपुतली की तरह नचाया जा सकता है। ऐसी मान्यता अनेकों की है। इन दिनों ऐसे ही प्रशंसा के भूखे और उपहारों के प्यासे भगवानों का बोल बाला है। इस मान्यता से तो लोग और भी अधिक ढीठ बनते व सोचते हैं कि मात्र देव-दर्शन करने भर से भोगों से निवृत्ति मिल सकती है। और छुट पुट कर्म काण्डों के बलबूते स्वर्ग में रहने के लिए स्थान निश्चित किया जा सकता है। पर वस्तुतः ईश्वर ऐसा तुच्छ नहीं है कि कोई भी क्रिया कुशल व्यक्ति उसे अपनी उंगलियों पर नचा सके।
गुप्त रूप से किये गये कर्म, चिन्तन क्षेत्रों में विचरण करते संकल्प भी परमेश्वर से छिपे नहीं रहते। घट घटवासी सब जानता है बाहर के लोगों को तो किसी चतुरता के सहारे धोखे में रखा जा सकता है। वस्तुस्थिति उनसे छिपाई जा सकती है। सरकार की समाज की दण्ड व्यवस्था से तो बचा भी जा सकता है किन्तु जो घट घट का वासी है, सर्वत्र समाया हुआ है उसकी जानकारी में सब कुछ है। ऐसी दशा में यह कैसे संभव हो सकेगा कि गुप्त कुकर्मों या अविज्ञात विचारों की हीनता उसकी दृष्टि से बची रहे और उस प्रमाद के घपले में अपने पाप कर्मों को गया आया कर सकने का दांव चूक जाय।
ईश्वर मान्यता से व्यक्तिगत चरित्र की पवित्रता, प्रामाणिकता और समाज में सुव्यवस्था बनी रह सकती है। चरित्र निष्ठा और समाज निष्ठा के उभय पक्षीय सत्यपरिणाम व्यापक रूप से मिलते रह सकते हैं। उसका इतना लाभ मिल सकता है, जिसे देखते हुए शासकीय दण्ड व्यवस्था भी हल्की दिखाई पड़ती है। सरकार तो सबूत मिलने पर ही किसी को अपराधी ठहराती है और दण्ड की व्यवस्था करती है। पर ईश्वर की नजर तो सर्वत्र हैं। उससे किसी के कर्म और विचार छिपे नहीं रहते। साथ ही उसकी परिणाम व्यवस्था में भी किसी के साथ राग द्वेष करते जाने की गुंजाइश नहीं है। इसी रूप में यदि ईश्वर पर विश्वास किया जा सके तो व्यक्ति और समाज को सुसंस्कृत, सुव्यवस्थित रखे जाने के समस्त अवरोध दूर हो सकते हैं।
स्वर्ग और नरक को—मरणोत्तर जीवन में कर्मों का प्रतिफल मिलने की—पुनर्जन्म वर्त्तमान के कृत्यों के अनुरूप मिलने की आस्था को जितना सुनिश्चित और जितना गंभीर बनाया जा सके तथा उसी सीमा तक सर्व साधारण को नीतिवान, चरित्रवान बनाया जा सके तो सर्वत्र ईश्वर निष्ठा में स्थिरता दृष्टिगोचर हो सकती है। यह सर्वसाधारण के लिए इतना अधिक महत्वपूर्ण है कि इस आधार पर विश्व शांति के लिए सर्वजनीन सुख—शांति और प्रगति के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है। भूतकाल में जिस प्रकार आस्तिकता ने भारत भूमि को ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ बनाया था, उसकी पुनरावृत्ति फिर हो सकती है। यदि ईश्वर का वास्तविक स्वरूप और उसका अनुशासन सर्व साधारण के अन्तराल में गहराई तक जमाया जा सके, तब ही यह संभव है।
ईश्वर ने मनुष्य जीवन अपने कोष के सर्वोपरि उपहार के रूप में प्रदान किया है। इस अनुग्रह के साथ-साथ उसने यह भी आशा की है इस अनुदान का उपयोग मात्र सत्प्रयोजनों में किया जायगा। सत्प्रयोजनों में मुख्यतः दो गिनाये गये हैं। एक आत्मोत्कर्ष, दूसरा लोकमंगल। आत्मोत्कर्ष का प्रमुख साधन है संयम। संयमों में इन्द्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम, और विचार संयम इन चार की गणना होती है। लोक मंगल में संसार को समुन्नत और सुसंस्कृत बनाने की प्रक्रिया आती है। इन्हीं दोनों को पुण्य परमार्थ भी कहा गया है। ईश्वर भक्ति इसी ढांचे में अपने को ढालने से बन पड़ती है। इसी पर उसकी प्रसन्नता एवं अनुकम्पा अवलम्बित है। मनुष्य पद से ऊंचा उठकर महामानव, देवात्मा अवतार स्तर तक मनुष्य अपने स्तर के अनुरूप प्रगति इसी राजमार्ग पर चलकर पाता है।
उपासना का उद्देश्य परमात्मा और आत्मा की पारस्परिक एकता और आदान प्रदान की व्यवस्था का स्मरण करना है। स्मरण का प्रयोजन तथ्य को निरन्तर हृदयंगम करते रहना और जीवन के सभी पक्षों को उच्चतर बनाते चलना सभी गतिविधियों को उत्कृष्टतम बनाकर रहना।
जीवन को अवांछनीयताओं से बचाये रहना और औचित्य की अधिकाधिक अवधारणा करना, यही है ईश्वर की उपलब्धि एवं समीपता का सुनिश्चित सोपान। माता बच्चे को तभी गोदी में उठाती है जब उसे मूत्र में सना होने पर नहला-धुलाकर स्वच्छ कर लेती है। मलीनता से सने होने पर तब तक दूर ही रहती है, जब तक उसकी स्वच्छता ठीक प्रकार संभव नहीं हो जाती। पवित्रता और प्रामाणिकता ही वे आधार हैं जिन्हें अपनाकर ईश्वर तक पहुंचा जा सकता है। जीव की तुच्छता ब्रह्म की महानता के साथ समन्वित होकर तद्नुरूप बन जाती है। इसी को ब्राह्मी स्थिति कहते हैं।
एक-एक दिन को आदर्श बनाकर सम्पूर्ण जीवन को आदर्शमय बनाया जा सकता है। एक-एक कदम बढ़ाने पर ही लम्बी मंजिल पूरी होती है। प्रातः सोकर उठते ही यह भावना करनी चाहिए कि आज एक दिन का नया जन्म मिला इसका श्रेष्ठतम सदुपयोग करना है। रात्रि को उस एक दिन के जीवन का लेखा जोखा लिया जाय कि उसमें क्या अच्छा बन पड़ा और क्या कमी रही। इस समीक्षा के आधार पर दूसरे दिन का और भी अधिक सतर्क कार्यक्रम बनाया जाय। उपासना का यह सर्व सुलभ मार्ग है इसके अतिरिक्त भगवान के साथ आत्म संबंध को प्रगाढ़ बनाने के लिए नित्य प्रभु स्मरण भी करना चाहिए प्रभु स्मरण के लिए अपने-अपने अनेक ढंग के अनेक विधि विधान एवं क्रिया कलाप है। जिनमें से किन्हीं को भी अपनाया जा सकता है।
किसान और माली जानते हैं कि जो बोया जाता है सो काटा जाता है। करनी अपना प्रतिफल देकर रहती है। लोगों की आस्था प्रायः इसलिए डगमगा जाती है कि किये हुए का तत्काल प्रतिफल नहीं मिलता। उसमें विलम्ब हो जाता है। और व्यक्ति समझने लगता है कि यही ‘‘वे बूझ राजा की अन्धेर नगरी’’ है। कर्मफल से विश्वास उठ जाने का ही यह कारण है कि लोग अनाचार में प्रवृत्त होते कुकर्म करते पाये जाते हैं। यदि यह विश्वास दृढ़तर हो कि नियन्ता की सृष्टि सुव्यवस्था में क्रिया की प्रतिक्रिया होने का विधान सुनिश्चित है तो लोग पाप कर्म करते हुए डरें। पुण्य के सत्परिणामों को समझें। सन्मार्ग पर चलें और पुण्य परमार्थ की दिशा अपनाएं।
क्रिया की प्रतिक्रिया उत्पन्न होने में कुछ देर लगती है। खाये अन्न का रक्त बनने में कुछ समय लगता है। किसान की बोई फसल कटने में कई महीने लगते हैं। आज का जमाया दूध कल दही बनता है। बरगद के अंकुर को समर्थ वृक्ष बनने में लम्बा समय लग जाता है। इतने पर भी कोई अविश्वास नहीं करता कि जो किया है, उसका प्रतिफल न मिलेगा। यदि ऐसा होता तो कोई किसान कृषि न करता। कोई माली बगीचा न लगाता। कोई विद्यार्थी कॉलेज की पढ़ाई तक पढ़ने में लगा न रहता। क्योंकि इन कृत्यों को तत्काल फल तो मिलता नहीं। उनकी परिणति उत्पन्न होने में देर लग जाती है।
इस अधीरता जन्य अविश्वास को दूर करने के लिए ईश्वर की न्याय शीलता पर गहरा विश्वास होना आवश्यक है। जीवन मरने के साथ ही समाप्त नहीं हो जाता है। वह बाद में भी विद्यमान रहता है। कर्मफल परलोक में भी भुगते जा सकते हैं और पुनर्जन्म में भी। इसलिए ईश्वर की सर्व व्यापकता, न्याय निष्ठा, कर्मफल प्रक्रिया तीनों ही ऐसी हैं जिन्हें हर आस्तिक को मानना चाहिए। मानना ही नहीं उन पर विश्वास करना चाहिए। इतने भर से व्यक्ति के निजी जीवन में तथा समाज की सद् परम्पराओं में नीति और न्याय का प्रचलन बना रहता है। इसके फलस्वरूप यह हो सकता है कि लोग कुकर्मों से डरें और सन्मार्ग पर चलने में ही अपना हित अनुभव करें।
एक अनर्थ मूलक—मान्यता ईश्वर के सम्बंध में यह बन चली है कि जो उसका स्तवन करता है, पूजा पाठ के साथ-साथ भोग प्रसाद अर्पण करता है उससे ईश्वर प्रसन्न होता है और उसकी मनोकामनाएं पूर्ण करता है। यह एक प्रकार से ईश्वर को बदनाम करना है उसे प्रशंसा की मनुहार और भेंट पूजा के उपहारों से, अहंकारियों, रिश्वत खोरों की तरह प्रसन्न किया जा सकता है। प्रलोभनों और दबावों के आधार पर उसे कठपुतली की तरह नचाया जा सकता है। ऐसी मान्यता अनेकों की है। इन दिनों ऐसे ही प्रशंसा के भूखे और उपहारों के प्यासे भगवानों का बोल बाला है। इस मान्यता से तो लोग और भी अधिक ढीठ बनते व सोचते हैं कि मात्र देव-दर्शन करने भर से भोगों से निवृत्ति मिल सकती है। और छुट पुट कर्म काण्डों के बलबूते स्वर्ग में रहने के लिए स्थान निश्चित किया जा सकता है। पर वस्तुतः ईश्वर ऐसा तुच्छ नहीं है कि कोई भी क्रिया कुशल व्यक्ति उसे अपनी उंगलियों पर नचा सके।
गुप्त रूप से किये गये कर्म, चिन्तन क्षेत्रों में विचरण करते संकल्प भी परमेश्वर से छिपे नहीं रहते। घट घटवासी सब जानता है बाहर के लोगों को तो किसी चतुरता के सहारे धोखे में रखा जा सकता है। वस्तुस्थिति उनसे छिपाई जा सकती है। सरकार की समाज की दण्ड व्यवस्था से तो बचा भी जा सकता है किन्तु जो घट घट का वासी है, सर्वत्र समाया हुआ है उसकी जानकारी में सब कुछ है। ऐसी दशा में यह कैसे संभव हो सकेगा कि गुप्त कुकर्मों या अविज्ञात विचारों की हीनता उसकी दृष्टि से बची रहे और उस प्रमाद के घपले में अपने पाप कर्मों को गया आया कर सकने का दांव चूक जाय।
ईश्वर मान्यता से व्यक्तिगत चरित्र की पवित्रता, प्रामाणिकता और समाज में सुव्यवस्था बनी रह सकती है। चरित्र निष्ठा और समाज निष्ठा के उभय पक्षीय सत्यपरिणाम व्यापक रूप से मिलते रह सकते हैं। उसका इतना लाभ मिल सकता है, जिसे देखते हुए शासकीय दण्ड व्यवस्था भी हल्की दिखाई पड़ती है। सरकार तो सबूत मिलने पर ही किसी को अपराधी ठहराती है और दण्ड की व्यवस्था करती है। पर ईश्वर की नजर तो सर्वत्र हैं। उससे किसी के कर्म और विचार छिपे नहीं रहते। साथ ही उसकी परिणाम व्यवस्था में भी किसी के साथ राग द्वेष करते जाने की गुंजाइश नहीं है। इसी रूप में यदि ईश्वर पर विश्वास किया जा सके तो व्यक्ति और समाज को सुसंस्कृत, सुव्यवस्थित रखे जाने के समस्त अवरोध दूर हो सकते हैं।
स्वर्ग और नरक को—मरणोत्तर जीवन में कर्मों का प्रतिफल मिलने की—पुनर्जन्म वर्त्तमान के कृत्यों के अनुरूप मिलने की आस्था को जितना सुनिश्चित और जितना गंभीर बनाया जा सके तथा उसी सीमा तक सर्व साधारण को नीतिवान, चरित्रवान बनाया जा सके तो सर्वत्र ईश्वर निष्ठा में स्थिरता दृष्टिगोचर हो सकती है। यह सर्वसाधारण के लिए इतना अधिक महत्वपूर्ण है कि इस आधार पर विश्व शांति के लिए सर्वजनीन सुख—शांति और प्रगति के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है। भूतकाल में जिस प्रकार आस्तिकता ने भारत भूमि को ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ बनाया था, उसकी पुनरावृत्ति फिर हो सकती है। यदि ईश्वर का वास्तविक स्वरूप और उसका अनुशासन सर्व साधारण के अन्तराल में गहराई तक जमाया जा सके, तब ही यह संभव है।
ईश्वर ने मनुष्य जीवन अपने कोष के सर्वोपरि उपहार के रूप में प्रदान किया है। इस अनुग्रह के साथ-साथ उसने यह भी आशा की है इस अनुदान का उपयोग मात्र सत्प्रयोजनों में किया जायगा। सत्प्रयोजनों में मुख्यतः दो गिनाये गये हैं। एक आत्मोत्कर्ष, दूसरा लोकमंगल। आत्मोत्कर्ष का प्रमुख साधन है संयम। संयमों में इन्द्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम, और विचार संयम इन चार की गणना होती है। लोक मंगल में संसार को समुन्नत और सुसंस्कृत बनाने की प्रक्रिया आती है। इन्हीं दोनों को पुण्य परमार्थ भी कहा गया है। ईश्वर भक्ति इसी ढांचे में अपने को ढालने से बन पड़ती है। इसी पर उसकी प्रसन्नता एवं अनुकम्पा अवलम्बित है। मनुष्य पद से ऊंचा उठकर महामानव, देवात्मा अवतार स्तर तक मनुष्य अपने स्तर के अनुरूप प्रगति इसी राजमार्ग पर चलकर पाता है।
उपासना का उद्देश्य परमात्मा और आत्मा की पारस्परिक एकता और आदान प्रदान की व्यवस्था का स्मरण करना है। स्मरण का प्रयोजन तथ्य को निरन्तर हृदयंगम करते रहना और जीवन के सभी पक्षों को उच्चतर बनाते चलना सभी गतिविधियों को उत्कृष्टतम बनाकर रहना।
जीवन को अवांछनीयताओं से बचाये रहना और औचित्य की अधिकाधिक अवधारणा करना, यही है ईश्वर की उपलब्धि एवं समीपता का सुनिश्चित सोपान। माता बच्चे को तभी गोदी में उठाती है जब उसे मूत्र में सना होने पर नहला-धुलाकर स्वच्छ कर लेती है। मलीनता से सने होने पर तब तक दूर ही रहती है, जब तक उसकी स्वच्छता ठीक प्रकार संभव नहीं हो जाती। पवित्रता और प्रामाणिकता ही वे आधार हैं जिन्हें अपनाकर ईश्वर तक पहुंचा जा सकता है। जीव की तुच्छता ब्रह्म की महानता के साथ समन्वित होकर तद्नुरूप बन जाती है। इसी को ब्राह्मी स्थिति कहते हैं।
एक-एक दिन को आदर्श बनाकर सम्पूर्ण जीवन को आदर्शमय बनाया जा सकता है। एक-एक कदम बढ़ाने पर ही लम्बी मंजिल पूरी होती है। प्रातः सोकर उठते ही यह भावना करनी चाहिए कि आज एक दिन का नया जन्म मिला इसका श्रेष्ठतम सदुपयोग करना है। रात्रि को उस एक दिन के जीवन का लेखा जोखा लिया जाय कि उसमें क्या अच्छा बन पड़ा और क्या कमी रही। इस समीक्षा के आधार पर दूसरे दिन का और भी अधिक सतर्क कार्यक्रम बनाया जाय। उपासना का यह सर्व सुलभ मार्ग है इसके अतिरिक्त भगवान के साथ आत्म संबंध को प्रगाढ़ बनाने के लिए नित्य प्रभु स्मरण भी करना चाहिए प्रभु स्मरण के लिए अपने-अपने अनेक ढंग के अनेक विधि विधान एवं क्रिया कलाप है। जिनमें से किन्हीं को भी अपनाया जा सकता है।