
न्यायनिष्ठा को क्षति न पहुंचे
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आदान प्रदान में जब तक एक दूसरे के हितों का ध्यान रखा जाता है—अधिकार जताने के साथ-साथ कर्त्तव्य का पालन किया जाता है तब तक औचित्य निभता रहता है और सहयोग का क्रम बिना टकराव के अपने ढंग से चलता रहा है। किन्तु जब इस मर्यादा का उल्लंघन होता है और कोई पक्ष अपने लिए विशेष सुविधा साधनों के लिए आग्रह करता है तो दूसरे को उसका खामियाजा उठाना पड़ता है। नीयत अपनी स्थिति स्वयं प्रकट करती है। ऐसी दशा में हानि उठाने वाला पक्ष अन्यमनस्क होता है अरुचि दिखाता और उपेक्षा बरतने लगता है। वह उत्साह ठंडा हो जाता है जो दोनों पक्षों के अपने-अपने स्थान पर नीति निष्ठा बने रहने पर पनपता है। एक बैल अपने हिस्से का भार न खींचे तो दूसरे को अधिक बहन करना पड़ेगा अथवा समूचा व्यवस्था तन्त्र गड़बड़ाने लगेगा और लाभ के स्थान पर घाटे का क्रम चल पड़ेगा।
सहयोग आवश्यक है, किन्तु उसे द्विपक्षीय होना चाहिए, न्यायोचित रहना चाहिए। एक की भलमनसाहत या दुर्बलता की स्थिति का अनुचित लाभ उसे नहीं उठाना चाहिए, जो चतुर या समर्थ है। दबाव देकर या फुसलाकर इस प्रकार उठाया गया लाभ तत्काल तो लाभदायक प्रतीत होता है किन्तु अन्त में धीरे-धीरे सम्बन्ध बिगड़ते जाते हैं और स्थिति अलगाव की आ जाती हैं। चाहे वह अन्यमनस्कता के रूप में हो अथवा अपना आधा कारोबार अलग कर लेने के रूप में। यह स्थिति उत्पन्न होना दुर्भाग्य की बात है। इससे जहां तक बन पड़े, बचना चाहिए।
छोटी इकाइयों के रूप में अलग-अलग निर्वाह करना घाटे का सौदा है। संयुक्त परिवार के लाभ अब समझदार वर्ग में भली प्रकार समझे जाने लगे हैं। छोटा परिवार रखकर काम चलाने की प्रथा नये स्वेच्छाचार और संकीर्णतावाद ने पनपाई थी। पर अनुभव ने बताया है कि सुविधा और प्रगति की दृष्टि से एकाकीपन असुविधाजनक भी है और घाटे का सौदा भी। समाज विज्ञान के कर्णधार अब छोटा परिवार बसाकर असुविधा में जीने की अपेक्षा संयुक्त परिवार प्रणाली को समर्थन देने लगे हैं। उसी का सुधरा हुआ रूप ‘‘कम्यून’’ कहलाता है।
परिवार संचालन हो अथवा उद्योग व्यवसाय-घर के सभी लोग मिल-जुलकर करते हैं तो काम भी अधिक होता है और व्यवस्था भी अधिक रहती है पर यह सहकारिता का लाभ मिलता तभी है जब पारस्परिक व्यवहार में न्यायनिष्ठा का समुचित समावेश रहे। सभी को उनका हक उचित रीति से मिलता रहे। इसके लिए मांग करने और लड़ने झगड़ने का अवसर न आने पावे इसका ध्यान आरंभ से ही रखा जाना चाहिए। अनीति का प्रवेश समुदाय के बीच किसी भी प्रकार नहीं होना चाहिए। अन्याय करने की, सहने की स्थिति आने ही नहीं देनी चाहिए।
यह विवशता है कि काम मिल-जुलकर ही करना पड़ता है। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। अकेली सींक बुहारी का काम नहीं कर सकती। एक तिनके से घोंसला नहीं बन सकता। कोई व्यक्ति अकेले अपने बलबूते कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं कर सकता यहां तक कि सुविधा पूर्वक दैनिक क्रिया-कलाप भी नहीं चला सकता। इसलिए सभी यह प्रयत्न करते हैं कि उद्योग व्यवसाय में अनेक लोग मिलकर काम करें और उस संयुक्त शक्ति के बल पर अधिक लाभ उठावें।
पर यह संभव तभी है जबकि सभी सहकर्मी यह अनुभव करे कि उन्हें सहयोग के बदले न्याय भी मिल रहा है। जहां अन्याय चलेगा वहां असंतोष से बढ़कर विरोध का वातावरण बनेगा। विग्रह खड़ा होने, पृथक होने से पूर्व मनोमालिन्य बढ़ेगा, असंतोष उभरेगा और काम के प्रति समुचित दिलचस्पी लेने के संदर्भ में निरुत्तर कमी होती चली जायेगी। फलतः कारोबार की साख और प्रगति में निश्चित रूप से कमी आने लगेगी और उसका परिणाम प्रायः उन सभी को घाटे के रूप में दृष्टिगोचर होने लगेगा जो उस तन्त्र के अंग बनकर काम कर रहे थे। परिवार इसी आधार पर बिखरते हैं। कारोबार पूंजी और परिस्थिति अनुरूप होने पर भी घाटा देने लगते हैं। निरन्तर घाटा जहां होगा वह यह कार्य अन्ततः समाप्त होकर ही रहेगा।
संयुक्त परिवार या संयुक्त व्यवसाय के अतिरिक्त और भी अनेक क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें किसी न किसी सीमा तक मिल-जुलकर काम करना पड़ता है। सामाजिक ढांचा ही ऐसा है, जिसमें किसी न किसी प्रकार पारस्परिक सहयोग की आवश्यकता पड़ती है। पर इन सभी सहयोगियों के बीच उत्साह तभी रहता है जब उचित न्याय नीति का निर्वाह ठीक तरह होता रहे। जहां स्वार्थपरता की अति अपनाई जाने लगेगी वहां सहयोग में कमी होती जायगी। इसका प्रतिफल विलगाव के, बिखराव के रूप में ही उपस्थित होगा। किया हुआ अन्याय जितना लाभ आरम्भ में देता है, कुछ ही दिन उपरान्त उसका प्रभाव अधिक घाटा होने के रूप में दीखने लगता है।
सामान्यतया भी अनेक प्रयोजनों के लिए एक दूसरे के साथ सम्पर्क बनता रहता है। उन छोटे अवसरों पर भी जितना थोड़ा-बहुत सम्पर्क बने, उसमें न्यायनिष्ठा का इतना समावेश तो रहना चाहिए जिसे ईमानदारी कहा जा सके। अन्याय छल, विश्वासघात, चोरी, बेईमानी, उत्पीड़न, शोषण आदि बड़े रूप में ही होता हो, यह अनिवार्य नहीं। गलत सलाह देकर, गलत समर्थन देकर अनीति को प्रोत्साहन देकर अपने अभिमत द्वारा भी अन्याय किया जा सकता है। चुनाव में सत्पात्रों को मत देने की अपेक्षा अपने आदमी को, अनुपयुक्त को, जाति-पांतियां किसी प्रलोभन के वशीभूत होकर विजयी बनाने में संलग्न होना भी एक अन्याय है। इससे देश, समाज के प्रति जो जिम्मेदारी है उसमें अवरोध उत्पन्न होता है।
हर व्यक्ति को स्वतंत्र बुद्धि से अपने निर्णय से काम करते रहने देना चाहिए। उस पर प्रलोभन या दबाव प्रत्यक्ष रूप से भले हो, पर इसका स्वरूप ऐसा होना चाहिए जिससे कि मात्र अपना ही स्वार्थ न सधे, अपितु दूसरे को भी यह अनुभव करने का अवसर मिले कि उसे ठगाया बहकाया नहीं गया है। किसी प्रपंच में फंसाकर उसके साथ अन्याय नहीं किया गया है। यह हम सबका सामान्य व्यवहार होना चाहिए। नीति और प्रीति इसी प्रकार पलती है। पारस्परिक सहयोग इसी आधार पर चिरस्थायी बनता और लाभदायक रहता है।
जहां बात बढ़ गई हो, तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरण प्रस्तुत करने पर भी गुत्थी न सुलझ रही हो वहां न्यायालय में जाकर कानूनी ढंग से फैसला करने में लम्बा समय और धन खर्च करने की अपेक्षा यही उचित है कि किन्हीं दोनों ओर के विश्वास प्राप्त व्यक्ति को मध्यस्थ या पंच बनाकर किसी प्रकार फैसला करा लिया जाय ताकि आगे के लिए दोनों पक्षों के मन उद्विग्न न रहकर अपने-अपने कामों में निश्चिन्तता पूर्वक संलग्न हो सकें। इस प्रयोजन के लिए पिछले समय में समझदार अनुभवी वयोवृद्ध लोगों की पंचायतें बन जाती थीं। वे सामने आये झंझटों का निराकरण करती ही थीं। इसके अतिरिक्त उनकी निज की चेष्टा यह भी होती थी कि जहां मनोमालिन्य चल रहा है, सहयोग का वातावरण नहीं बन रहा है वहां अपनी ओर से समस्या को समझें, निराकरण करें और ऐसा माहौल तैयार करें, जिसमें असन्तोष सन्तोष के रूप में बदले और प्रतिपक्ष में रुका हुआ व्यवधान रास्ते से हटकर उद्विग्नता को सहयोग व्यवस्था में बदले। देखा गया है कि भाई-भाई के बीच, पति-पत्नी के बीच ऐसे विग्रह अधिक पनपते हैं। घनिष्ठता जहां भी होती है वहां स्वभावतः अधिक सद्व्यवहार की आशा रखी जाती है। पर ऐसे सम्बन्धों में गलतफहमी या अनीति चल पड़े तो उसका परिणाम बहुत बुरा होता है। पंचजनों को आगे बढ़कर ऐसे अवरोधों को स्वयं दूर करना चाहिए। यही न्यायनिष्ठा का तकाजा है।
सहयोग आवश्यक है, किन्तु उसे द्विपक्षीय होना चाहिए, न्यायोचित रहना चाहिए। एक की भलमनसाहत या दुर्बलता की स्थिति का अनुचित लाभ उसे नहीं उठाना चाहिए, जो चतुर या समर्थ है। दबाव देकर या फुसलाकर इस प्रकार उठाया गया लाभ तत्काल तो लाभदायक प्रतीत होता है किन्तु अन्त में धीरे-धीरे सम्बन्ध बिगड़ते जाते हैं और स्थिति अलगाव की आ जाती हैं। चाहे वह अन्यमनस्कता के रूप में हो अथवा अपना आधा कारोबार अलग कर लेने के रूप में। यह स्थिति उत्पन्न होना दुर्भाग्य की बात है। इससे जहां तक बन पड़े, बचना चाहिए।
छोटी इकाइयों के रूप में अलग-अलग निर्वाह करना घाटे का सौदा है। संयुक्त परिवार के लाभ अब समझदार वर्ग में भली प्रकार समझे जाने लगे हैं। छोटा परिवार रखकर काम चलाने की प्रथा नये स्वेच्छाचार और संकीर्णतावाद ने पनपाई थी। पर अनुभव ने बताया है कि सुविधा और प्रगति की दृष्टि से एकाकीपन असुविधाजनक भी है और घाटे का सौदा भी। समाज विज्ञान के कर्णधार अब छोटा परिवार बसाकर असुविधा में जीने की अपेक्षा संयुक्त परिवार प्रणाली को समर्थन देने लगे हैं। उसी का सुधरा हुआ रूप ‘‘कम्यून’’ कहलाता है।
परिवार संचालन हो अथवा उद्योग व्यवसाय-घर के सभी लोग मिल-जुलकर करते हैं तो काम भी अधिक होता है और व्यवस्था भी अधिक रहती है पर यह सहकारिता का लाभ मिलता तभी है जब पारस्परिक व्यवहार में न्यायनिष्ठा का समुचित समावेश रहे। सभी को उनका हक उचित रीति से मिलता रहे। इसके लिए मांग करने और लड़ने झगड़ने का अवसर न आने पावे इसका ध्यान आरंभ से ही रखा जाना चाहिए। अनीति का प्रवेश समुदाय के बीच किसी भी प्रकार नहीं होना चाहिए। अन्याय करने की, सहने की स्थिति आने ही नहीं देनी चाहिए।
यह विवशता है कि काम मिल-जुलकर ही करना पड़ता है। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। अकेली सींक बुहारी का काम नहीं कर सकती। एक तिनके से घोंसला नहीं बन सकता। कोई व्यक्ति अकेले अपने बलबूते कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं कर सकता यहां तक कि सुविधा पूर्वक दैनिक क्रिया-कलाप भी नहीं चला सकता। इसलिए सभी यह प्रयत्न करते हैं कि उद्योग व्यवसाय में अनेक लोग मिलकर काम करें और उस संयुक्त शक्ति के बल पर अधिक लाभ उठावें।
पर यह संभव तभी है जबकि सभी सहकर्मी यह अनुभव करे कि उन्हें सहयोग के बदले न्याय भी मिल रहा है। जहां अन्याय चलेगा वहां असंतोष से बढ़कर विरोध का वातावरण बनेगा। विग्रह खड़ा होने, पृथक होने से पूर्व मनोमालिन्य बढ़ेगा, असंतोष उभरेगा और काम के प्रति समुचित दिलचस्पी लेने के संदर्भ में निरुत्तर कमी होती चली जायेगी। फलतः कारोबार की साख और प्रगति में निश्चित रूप से कमी आने लगेगी और उसका परिणाम प्रायः उन सभी को घाटे के रूप में दृष्टिगोचर होने लगेगा जो उस तन्त्र के अंग बनकर काम कर रहे थे। परिवार इसी आधार पर बिखरते हैं। कारोबार पूंजी और परिस्थिति अनुरूप होने पर भी घाटा देने लगते हैं। निरन्तर घाटा जहां होगा वह यह कार्य अन्ततः समाप्त होकर ही रहेगा।
संयुक्त परिवार या संयुक्त व्यवसाय के अतिरिक्त और भी अनेक क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें किसी न किसी सीमा तक मिल-जुलकर काम करना पड़ता है। सामाजिक ढांचा ही ऐसा है, जिसमें किसी न किसी प्रकार पारस्परिक सहयोग की आवश्यकता पड़ती है। पर इन सभी सहयोगियों के बीच उत्साह तभी रहता है जब उचित न्याय नीति का निर्वाह ठीक तरह होता रहे। जहां स्वार्थपरता की अति अपनाई जाने लगेगी वहां सहयोग में कमी होती जायगी। इसका प्रतिफल विलगाव के, बिखराव के रूप में ही उपस्थित होगा। किया हुआ अन्याय जितना लाभ आरम्भ में देता है, कुछ ही दिन उपरान्त उसका प्रभाव अधिक घाटा होने के रूप में दीखने लगता है।
सामान्यतया भी अनेक प्रयोजनों के लिए एक दूसरे के साथ सम्पर्क बनता रहता है। उन छोटे अवसरों पर भी जितना थोड़ा-बहुत सम्पर्क बने, उसमें न्यायनिष्ठा का इतना समावेश तो रहना चाहिए जिसे ईमानदारी कहा जा सके। अन्याय छल, विश्वासघात, चोरी, बेईमानी, उत्पीड़न, शोषण आदि बड़े रूप में ही होता हो, यह अनिवार्य नहीं। गलत सलाह देकर, गलत समर्थन देकर अनीति को प्रोत्साहन देकर अपने अभिमत द्वारा भी अन्याय किया जा सकता है। चुनाव में सत्पात्रों को मत देने की अपेक्षा अपने आदमी को, अनुपयुक्त को, जाति-पांतियां किसी प्रलोभन के वशीभूत होकर विजयी बनाने में संलग्न होना भी एक अन्याय है। इससे देश, समाज के प्रति जो जिम्मेदारी है उसमें अवरोध उत्पन्न होता है।
हर व्यक्ति को स्वतंत्र बुद्धि से अपने निर्णय से काम करते रहने देना चाहिए। उस पर प्रलोभन या दबाव प्रत्यक्ष रूप से भले हो, पर इसका स्वरूप ऐसा होना चाहिए जिससे कि मात्र अपना ही स्वार्थ न सधे, अपितु दूसरे को भी यह अनुभव करने का अवसर मिले कि उसे ठगाया बहकाया नहीं गया है। किसी प्रपंच में फंसाकर उसके साथ अन्याय नहीं किया गया है। यह हम सबका सामान्य व्यवहार होना चाहिए। नीति और प्रीति इसी प्रकार पलती है। पारस्परिक सहयोग इसी आधार पर चिरस्थायी बनता और लाभदायक रहता है।
जहां बात बढ़ गई हो, तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरण प्रस्तुत करने पर भी गुत्थी न सुलझ रही हो वहां न्यायालय में जाकर कानूनी ढंग से फैसला करने में लम्बा समय और धन खर्च करने की अपेक्षा यही उचित है कि किन्हीं दोनों ओर के विश्वास प्राप्त व्यक्ति को मध्यस्थ या पंच बनाकर किसी प्रकार फैसला करा लिया जाय ताकि आगे के लिए दोनों पक्षों के मन उद्विग्न न रहकर अपने-अपने कामों में निश्चिन्तता पूर्वक संलग्न हो सकें। इस प्रयोजन के लिए पिछले समय में समझदार अनुभवी वयोवृद्ध लोगों की पंचायतें बन जाती थीं। वे सामने आये झंझटों का निराकरण करती ही थीं। इसके अतिरिक्त उनकी निज की चेष्टा यह भी होती थी कि जहां मनोमालिन्य चल रहा है, सहयोग का वातावरण नहीं बन रहा है वहां अपनी ओर से समस्या को समझें, निराकरण करें और ऐसा माहौल तैयार करें, जिसमें असन्तोष सन्तोष के रूप में बदले और प्रतिपक्ष में रुका हुआ व्यवधान रास्ते से हटकर उद्विग्नता को सहयोग व्यवस्था में बदले। देखा गया है कि भाई-भाई के बीच, पति-पत्नी के बीच ऐसे विग्रह अधिक पनपते हैं। घनिष्ठता जहां भी होती है वहां स्वभावतः अधिक सद्व्यवहार की आशा रखी जाती है। पर ऐसे सम्बन्धों में गलतफहमी या अनीति चल पड़े तो उसका परिणाम बहुत बुरा होता है। पंचजनों को आगे बढ़कर ऐसे अवरोधों को स्वयं दूर करना चाहिए। यही न्यायनिष्ठा का तकाजा है।