
मानवी गरिमा के प्रति आस्था
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मानवता में आस्था पंचशील का दूसरा चरण है। मनुष्य शारीरिक संरचना और मानसिक तीक्ष्णता के कारण ही प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ नहीं बना है, वरन् उसकी सबसे बड़ी विशेषता नीति निष्ठा है। उसे अपनी गरिमा का बोध रहता है। इसी क्षेत्र में समग्रता उपलब्ध कर लेने पर ही यह कहा जा सकता है कि उसने भावनात्मक विशेषता भी प्राप्त कर ली। जिसके बिना सब कुछ सूना अधूरा ही रहता है।
कल्पना मन का और विचारणा बुद्धि का काम है। मन और बुद्धि मिलने से किसी लाभदायक मार्ग पर चलने का स्वार्थ साधने का अनुबंध बनता है। इससे ऊंचा स्तर है भावना का। जिसकी भाव संवेदनाएं जितनी कोमल हैं, समझना चाहिए कि उसने मानवी गरिमा के उतने ही ऊंचे सोपान पर चढ़ने में सफलता प्राप्त कर ली।
जो जितने ऊंचे पद पर होता है उसकी प्रतिष्ठा उसी अनुपात से बढ़ी-चढ़ी मानी जाती है; पर यह सब अनायास ही उपलब्ध नहीं हो जाता। इसके लिए उसे आवश्यक उत्तरदायित्व निबाहने होते हैं। जो उन्हें जिस तत्परता के साथ निभा पाता है, उसको सच्चे अर्थों में गौरवशाली माना जाता है। उसी की गरिमा सराही जाती है।
अन्य प्राणी पेट-प्रजनन और आत्म रक्षा के त्रिविधि शरीर से संबंधित क्रिया कलापों में लगे रहते हैं। उनकी सूझ-बूझ उसी सीमा तक विकसित हुई होती है। उन्हें अपने लिए आवश्यक सुविधा साधन जुटाने की ही इच्छा और चिन्ता रहती है। दूसरे सजातियों के साथ वे इसलिए सम्पर्क सान्निध्य बनाते हैं कि सर्वथा एकाकी रहने में उन्हें खतरा भी रहता है और सरसता भी उपलब्ध नहीं होती। इस अभाव को दूर करने के लिए ही उनमें यत्किंचित सहयोग पाया जाता है। विपत्ति के समय तो वे अपनी-अपनी ज्ञान ही बचाते हैं। सहयोगी-साथियों की कठिनाइयों में हाथ बंटाने के लिए उनका सहयोग नगण्य जितना ही रहता है। इसे भाव-संवेदनाओं का अभाव ही कह सकते हैं। इसी कारण वे किसी प्रकार अपना अस्तित्व भर कायम रख सके हैं। सृष्टि के आरंभ से लेकर अब तक का लम्बा समय बीत गया, पर प्रगति की दिशा में कुछ उत्साह भरे कदम उनके अभी तक नहीं उठ सके।
मनुष्य की स्थिति उन सबसे भिन्न है। उसे भाव-संवेदनाओं का एक नया आयाम मिला हुआ है, जो विकृत हो जाने पर परास्त करने, ईर्ष्या पर उतर आने, अपराधी कृत्यों में अपना दर्प जताने में भी प्रवृत्त होते देखा गया है, पर यह दिग्भ्रान्त स्थिति है। स्वाभाविक गरिमा तभी विकसित होती है, जब भाव-संवेदनायें आदर्शों के साथ जुड़ी रहें। अपनी भावनात्मक स्थिति को ऊंचा बनाये रखे। इसके लिए उसे प्रत्यक्ष घाटा उठाना पड़े, तो भी उसे उठाता है। सामान्यतया इसी प्रवृत्ति को सहायता या सेवा के रूप में देख जा सकता है। सहकार-सहयोग भी उसे कहा जा सकता है; पर यह उसका प्रत्यक्ष स्वरूप है। प्रत्यक्ष के पीछे अप्रत्यक्ष काम करता है। शरीर के भीतर प्राण रहता है। प्राण न रहें तो शरीर लाश बन जाता है। इसी प्रकार भाव न रहे, तो क्रिया मात्र हलचल बनकर रह जाती है। सामाजिक व्यक्ति तो वे लोग भी कहे जाते हैं, जो बहुतों से सम्पर्क रखते हैं। सामूहिक उत्सवों में अग्रिम पंक्ति पर चेहरा चमकाते दीखते हैं, पर उनमें से कितने ही भाव लोकेषणा से प्रेरित होते हैं। वह अवसर उनके हाथ से चला जाय, तो फिर मुंह मोड़कर भी नहीं देखते कि सामूहिक आयोजनों में भाग लें या नहीं, उनमें सहयोग दें या नहीं। ऐसे लोगों को भाव-सम्वेदना युक्त नहीं माना जा सकता और न उससे किसी बड़े कार्य की महत्वपूर्ण योजना निभ सकेगी, ऐसी आशा की जा सकती है।
मनुष्य की विकसित महानता का चिन्ह यह है कि उसके अन्तराल में आदर्शवादी भाव-सम्वेदना उठती है या नहीं। करुणा, दया, आत्मीयता, ममता जैसा लगाव अन्यान्य लोगों के साथ है तो यह देखा जाना चाहिए कि वे दूसरों की गई गुजरी स्थिति में आगे बढ़कर हाथ बंटाते हैं या नहीं? अपने आपको संयमशील बनाकर समय, श्रम, धन, प्रभाव की बचत करते हैं या नहीं? उस बचत को लोकमंगल के लिए लगाते हैं या नहीं? यह बन पड़ना उन्हीं से संभव है, जो भावनाशील हैं। जिसे दूसरों का दर्द, अभाव अपने ऊपर बीतता हुआ प्रतीत हो, इस अन्तरंग भावना से जो द्रवीभूत हो, उसे अपनी सुख-सुविधा में कटौती करके वह बचत करनी होगी, जिससे पिछड़ों को उठाना और उठे हुओं को आगे बढ़ाना संभव हो सके। यह मानवी गरिमा का प्रतीक है। जिसकी मानवता में आस्था होगी, वह अपना जीवन निर्वाह इस तरह करेगा, जिससे दूसरे को प्रेरणाएं मिल सकें, अन्यान्य उस आचरण को देखकर प्रभावित हो सकें और अनुकरण के लिए उत्साहित होकर स्वयं भी उसी मार्ग पर चल पड़ने की प्रेरणा प्राप्त कर सकें।
मानवी गरिमा का प्रारंभ शिष्टाचार से होता है। अपने बारे में नम्रता प्रदर्शन और दूसरों को सम्मान देने, सहयोग करने के लिए तत्पर रहने में महानता का प्रमाण मिलता है। अपना दृष्टिकोण ऊंचा रखना एवं जीवनक्रम को सज्जनोचित-अनुशासित बनाना भी ऐसी प्रक्रिया है, जिससे व्यक्ति की मानवता का विकास होता है। इसके अतिरिक्त दूसरा आधार यह है कि मिल बांटकर खाया जाय। जो ईश्वर ने दिया है—अपने पुरुषार्थ से उपार्जित किया है, उसका लाभ अकेले ही न उठाया जाय, वरन् जिन्हें सत्पात्र समझा जाय, उनकी कठिनाइयां हल करने में उन्हें सहयोग मार्गदर्शन देकर ऊंचा उठाया जाय। यह दोनों ही बातें मानवी गरिमा की प्रतीक मानी जाती हैं। जो इन्हें जिस मात्रा में कार्यान्वित कर पाता है, वह उसी अनुपात से गौरवशाली बनता है।
चिन्तन का दृष्टिकोण ऊंचा रहना चाहिए। जो भी विचार उठें, उनमें क्षुद्रता नहीं महानता का समावेश होना चाहिए, जिसे देखकर किसी के भी मन में वैसा बनने का उत्साह उत्पन्न हो। बड़ों की, वरिष्ठों की नकल करने की इच्छा सभी को होती है।
मर्यादाओं का परिपालन और वर्जनाओं का अनुल्लंघन, यह दो तथ्य ऐसे हैं, जिनका जीवनचर्या में समुचित समावेश किये रहने पर मानवता के प्रति आस्थावान बने रहा जा सकता है। सोने का खरापन कसौटी पर कसने और आग में तपाने से जाना जाता है। मानवी गरिमा को किसने किस सीमा तक अपनाया, इसका परिचय भी इसी आधार पर मिलता है कि किसने कर्त्तव्यों का परिपालन कितनी निष्ठा के साथ किया।
जिम्मेदारियों को भावनाशील ही अनुभव करते हैं उनके प्रति निष्ठावान रहते हुए अपने ऊपर संयम का नियंत्रण स्थापित करते हैं। जिन्हें अपनेपन का, आत्म गौरव का बोध नहीं, उन्हें पशुओं और पिशाचों जैसा आचरण करते पाया जाता है। जो मर्यादाओं की जिम्मेदारी नहीं समझते, हर क्षेत्र में स्वेच्छाचार बरतते हैं, उन्हें पशु कहा जाता है और जिन्हें वर्जनाओं को तोड़ने में अहंकार की पूर्ति अनुभव होती है, उन्हें पिशाच कहा जाता है। इन्हें किसी पृथक योनि में भी देखा जा सकता है और मनुष्यों के बीच नरतन रूपी चोले में भी।
देवता वे हैं, जो अपने अधिकारों, साधनों को दूसरों के लिए उत्सर्ग करते हुए प्रसन्नता अनुभव करते हैं, उन्हें दूसरों का दुःख अपना प्रतीत होता है, जो दूसरों का सुख बढ़ाने में प्रसन्न होते हैं और उसके लिए उदारतापूर्वक प्रयत्न भी करते हैं। गरिमाशील मनुष्य ही वस्तुतः देवता है। उन्हीं के व्यक्तित्व और कर्तृत्व से संसार में सुख-शांति बढ़ती है और मानवता धन्य होती है।
कल्पना मन का और विचारणा बुद्धि का काम है। मन और बुद्धि मिलने से किसी लाभदायक मार्ग पर चलने का स्वार्थ साधने का अनुबंध बनता है। इससे ऊंचा स्तर है भावना का। जिसकी भाव संवेदनाएं जितनी कोमल हैं, समझना चाहिए कि उसने मानवी गरिमा के उतने ही ऊंचे सोपान पर चढ़ने में सफलता प्राप्त कर ली।
जो जितने ऊंचे पद पर होता है उसकी प्रतिष्ठा उसी अनुपात से बढ़ी-चढ़ी मानी जाती है; पर यह सब अनायास ही उपलब्ध नहीं हो जाता। इसके लिए उसे आवश्यक उत्तरदायित्व निबाहने होते हैं। जो उन्हें जिस तत्परता के साथ निभा पाता है, उसको सच्चे अर्थों में गौरवशाली माना जाता है। उसी की गरिमा सराही जाती है।
अन्य प्राणी पेट-प्रजनन और आत्म रक्षा के त्रिविधि शरीर से संबंधित क्रिया कलापों में लगे रहते हैं। उनकी सूझ-बूझ उसी सीमा तक विकसित हुई होती है। उन्हें अपने लिए आवश्यक सुविधा साधन जुटाने की ही इच्छा और चिन्ता रहती है। दूसरे सजातियों के साथ वे इसलिए सम्पर्क सान्निध्य बनाते हैं कि सर्वथा एकाकी रहने में उन्हें खतरा भी रहता है और सरसता भी उपलब्ध नहीं होती। इस अभाव को दूर करने के लिए ही उनमें यत्किंचित सहयोग पाया जाता है। विपत्ति के समय तो वे अपनी-अपनी ज्ञान ही बचाते हैं। सहयोगी-साथियों की कठिनाइयों में हाथ बंटाने के लिए उनका सहयोग नगण्य जितना ही रहता है। इसे भाव-संवेदनाओं का अभाव ही कह सकते हैं। इसी कारण वे किसी प्रकार अपना अस्तित्व भर कायम रख सके हैं। सृष्टि के आरंभ से लेकर अब तक का लम्बा समय बीत गया, पर प्रगति की दिशा में कुछ उत्साह भरे कदम उनके अभी तक नहीं उठ सके।
मनुष्य की स्थिति उन सबसे भिन्न है। उसे भाव-संवेदनाओं का एक नया आयाम मिला हुआ है, जो विकृत हो जाने पर परास्त करने, ईर्ष्या पर उतर आने, अपराधी कृत्यों में अपना दर्प जताने में भी प्रवृत्त होते देखा गया है, पर यह दिग्भ्रान्त स्थिति है। स्वाभाविक गरिमा तभी विकसित होती है, जब भाव-संवेदनायें आदर्शों के साथ जुड़ी रहें। अपनी भावनात्मक स्थिति को ऊंचा बनाये रखे। इसके लिए उसे प्रत्यक्ष घाटा उठाना पड़े, तो भी उसे उठाता है। सामान्यतया इसी प्रवृत्ति को सहायता या सेवा के रूप में देख जा सकता है। सहकार-सहयोग भी उसे कहा जा सकता है; पर यह उसका प्रत्यक्ष स्वरूप है। प्रत्यक्ष के पीछे अप्रत्यक्ष काम करता है। शरीर के भीतर प्राण रहता है। प्राण न रहें तो शरीर लाश बन जाता है। इसी प्रकार भाव न रहे, तो क्रिया मात्र हलचल बनकर रह जाती है। सामाजिक व्यक्ति तो वे लोग भी कहे जाते हैं, जो बहुतों से सम्पर्क रखते हैं। सामूहिक उत्सवों में अग्रिम पंक्ति पर चेहरा चमकाते दीखते हैं, पर उनमें से कितने ही भाव लोकेषणा से प्रेरित होते हैं। वह अवसर उनके हाथ से चला जाय, तो फिर मुंह मोड़कर भी नहीं देखते कि सामूहिक आयोजनों में भाग लें या नहीं, उनमें सहयोग दें या नहीं। ऐसे लोगों को भाव-सम्वेदना युक्त नहीं माना जा सकता और न उससे किसी बड़े कार्य की महत्वपूर्ण योजना निभ सकेगी, ऐसी आशा की जा सकती है।
मनुष्य की विकसित महानता का चिन्ह यह है कि उसके अन्तराल में आदर्शवादी भाव-सम्वेदना उठती है या नहीं। करुणा, दया, आत्मीयता, ममता जैसा लगाव अन्यान्य लोगों के साथ है तो यह देखा जाना चाहिए कि वे दूसरों की गई गुजरी स्थिति में आगे बढ़कर हाथ बंटाते हैं या नहीं? अपने आपको संयमशील बनाकर समय, श्रम, धन, प्रभाव की बचत करते हैं या नहीं? उस बचत को लोकमंगल के लिए लगाते हैं या नहीं? यह बन पड़ना उन्हीं से संभव है, जो भावनाशील हैं। जिसे दूसरों का दर्द, अभाव अपने ऊपर बीतता हुआ प्रतीत हो, इस अन्तरंग भावना से जो द्रवीभूत हो, उसे अपनी सुख-सुविधा में कटौती करके वह बचत करनी होगी, जिससे पिछड़ों को उठाना और उठे हुओं को आगे बढ़ाना संभव हो सके। यह मानवी गरिमा का प्रतीक है। जिसकी मानवता में आस्था होगी, वह अपना जीवन निर्वाह इस तरह करेगा, जिससे दूसरे को प्रेरणाएं मिल सकें, अन्यान्य उस आचरण को देखकर प्रभावित हो सकें और अनुकरण के लिए उत्साहित होकर स्वयं भी उसी मार्ग पर चल पड़ने की प्रेरणा प्राप्त कर सकें।
मानवी गरिमा का प्रारंभ शिष्टाचार से होता है। अपने बारे में नम्रता प्रदर्शन और दूसरों को सम्मान देने, सहयोग करने के लिए तत्पर रहने में महानता का प्रमाण मिलता है। अपना दृष्टिकोण ऊंचा रखना एवं जीवनक्रम को सज्जनोचित-अनुशासित बनाना भी ऐसी प्रक्रिया है, जिससे व्यक्ति की मानवता का विकास होता है। इसके अतिरिक्त दूसरा आधार यह है कि मिल बांटकर खाया जाय। जो ईश्वर ने दिया है—अपने पुरुषार्थ से उपार्जित किया है, उसका लाभ अकेले ही न उठाया जाय, वरन् जिन्हें सत्पात्र समझा जाय, उनकी कठिनाइयां हल करने में उन्हें सहयोग मार्गदर्शन देकर ऊंचा उठाया जाय। यह दोनों ही बातें मानवी गरिमा की प्रतीक मानी जाती हैं। जो इन्हें जिस मात्रा में कार्यान्वित कर पाता है, वह उसी अनुपात से गौरवशाली बनता है।
चिन्तन का दृष्टिकोण ऊंचा रहना चाहिए। जो भी विचार उठें, उनमें क्षुद्रता नहीं महानता का समावेश होना चाहिए, जिसे देखकर किसी के भी मन में वैसा बनने का उत्साह उत्पन्न हो। बड़ों की, वरिष्ठों की नकल करने की इच्छा सभी को होती है।
मर्यादाओं का परिपालन और वर्जनाओं का अनुल्लंघन, यह दो तथ्य ऐसे हैं, जिनका जीवनचर्या में समुचित समावेश किये रहने पर मानवता के प्रति आस्थावान बने रहा जा सकता है। सोने का खरापन कसौटी पर कसने और आग में तपाने से जाना जाता है। मानवी गरिमा को किसने किस सीमा तक अपनाया, इसका परिचय भी इसी आधार पर मिलता है कि किसने कर्त्तव्यों का परिपालन कितनी निष्ठा के साथ किया।
जिम्मेदारियों को भावनाशील ही अनुभव करते हैं उनके प्रति निष्ठावान रहते हुए अपने ऊपर संयम का नियंत्रण स्थापित करते हैं। जिन्हें अपनेपन का, आत्म गौरव का बोध नहीं, उन्हें पशुओं और पिशाचों जैसा आचरण करते पाया जाता है। जो मर्यादाओं की जिम्मेदारी नहीं समझते, हर क्षेत्र में स्वेच्छाचार बरतते हैं, उन्हें पशु कहा जाता है और जिन्हें वर्जनाओं को तोड़ने में अहंकार की पूर्ति अनुभव होती है, उन्हें पिशाच कहा जाता है। इन्हें किसी पृथक योनि में भी देखा जा सकता है और मनुष्यों के बीच नरतन रूपी चोले में भी।
देवता वे हैं, जो अपने अधिकारों, साधनों को दूसरों के लिए उत्सर्ग करते हुए प्रसन्नता अनुभव करते हैं, उन्हें दूसरों का दुःख अपना प्रतीत होता है, जो दूसरों का सुख बढ़ाने में प्रसन्न होते हैं और उसके लिए उदारतापूर्वक प्रयत्न भी करते हैं। गरिमाशील मनुष्य ही वस्तुतः देवता है। उन्हीं के व्यक्तित्व और कर्तृत्व से संसार में सुख-शांति बढ़ती है और मानवता धन्य होती है।