
सहकारिता के अधिकाधिक विस्तार की आवश्यकता
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सृष्टि के अनेकानेक प्राणियों में मनुष्य सबसे अधिक समुन्नत स्थिति में है। उसने समस्त प्राणियों पर अपना अधिकार जमा रखा है। धरातल समस्त सम्पदाएं उसके कब्जे में है। समुद्र और आकाश पर उसका आधिपत्य है। प्रकृति के रहस्यों को उसने खोज निकाला है। इसका कारण उसका मानसिक विकास है। यों शारीरिक दृष्टि से वह कितने ही जीवों से पिछड़ा हुआ है। हाथी, सिंह आदि की बलिष्ठता मनुष्य से अधिक है। पक्षियों की तरह वह आकाश में उड़ नहीं सकता। जलचरों की तरह वह पानी में भी नहीं रह सकता। बन्दरों की तरह पेड़ों पर भी उसका निवास नहीं। फिर भी वह समस्त जीवों में सर्वोपरि है। उसका कारण उसकी बुद्धिमत्ता को समझा जाता है। किन्तु यदि गहराई में उतरा जाय तो प्रतीत होगा कि यह बुद्धिमत्ता भी उसका भौतिक गुण नहीं है। यह सहकारिता की देन है। एकाकी स्थिति में तो वह गई गुजरी स्थिति में ही रह पाता है। आदिम जन जातियां इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।
आदि काल का मनुष्य वनमानुषों जैसा गुजारा करता था। विकास वादी उसे ‘‘बन्दर की औलाद’’ बताते भी हैं। ऐसा न भी हो तो भी देखा जाता है कि वनवासी कबीले अभी भी सभ्यता और साधनों की दृष्टि में प्रगतिशीलों की तुलना में गया बीता जीवन ही जीते हैं। उनकी स्थिति पशु और मनुष्य के मध्यवर्ती जैसी है। इसका कारण यह है कि उन्हें पिछड़े वर्ग का अंग बन कर ही रहना पड़ा। भेड़ियों की मांद में पले हुए कितने ही मनुष्य बालक समय-समय पर पकड़े गए हैं। उनकी स्थिति अपने पालकों जैसी ही पाई गई। यदि मनुष्य प्रकृतितः बुद्धिमान होता तो सर्वत्र मनुष्य एक जैसे ही बुद्धिमान होते। पर ऐसा देखा नहीं जाता। जिन्हें वातावरण के सान्निध्य में रहना पड़ता है, वे वैसे ही ढांचे में ढल जाते हैं। इससे प्रकट है कि मनुष्य की मौलिक विशेषता सहकारिता है। इसे वह जिस सीमा तक विकसित कर लेता है, उतना ही बुद्धिमान बन जाता है। इसके उपरान्त ही वह प्रगति के अनेक साधन जुटा पाता है। भाषा लिपि, कृषि, पशुपालन, अग्नि प्रयोग, पहिया, औजार आदि प्रारम्भिक आविष्कार उसने मात्र बुद्धि के सहारे नहीं कर लिए। इनमें पारस्परिक सहयोग ने महती भूमिका निवाही। एक के ज्ञान अनुभव का लाभ दूसरे को मिला। इस प्रकार ज्ञान सम्पदा-बढ़ती चली गई। अनुभवों और आविष्कारों का लाभ साथियों को पीढ़ियों को मिलता रहा और वह बौद्धिक सम्पदा आविष्कारों सहित आगे बढ़ती चली आई। यदि सहकारिता का मौलिक गुण उसमें न रहा होता तो अन्य प्राणियों की तरह अभी भी मनुष्य मात्र शरीर सम्पदा के आधार पर गुजारा कर रहा होता और अन्य जीवों की तरह पिछड़ी हुई स्थिति में ही रह रहा होता। बुद्धिमत्ता उपलब्ध करने में मनुष्य की मौलिक विशेषता के रूप में सहकारिता ही प्रत्यक्ष सौभाग्य की तरह उसे हस्तगत हुई है।
जीवन निर्वाह में अनेक वस्तुओं की आवश्यकता होती है। उन्हें कोई एकाकी रहकर उपार्जित-विनिर्मित नहीं कर सकता। सहकारिता के आधार पर ही लोग मिल जुलकर काम करते हैं। पारस्परिक आदान-प्रदान का क्रम अपनाकर सुविधा साधनों का सुयोग बनाते हैं। इस सहकारिता का एक प्रत्यक्ष प्रमाण परिवार संचालन है। मनुष्य की तरह अन्य कोई प्राणी परिवार नहीं बसाता। उसका सुव्यवस्थित तंत्र नहीं चलाता। यदि परिवार बनाने चलाने की सूझ-बूझ न उपजी होती तो मनुष्य का सारा समय शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति में ही खप जाता। वह बौद्धिक भौतिक एवं वैज्ञानिक प्रगति के सम्बन्ध में न कुछ सोच पाता और न कुछ कर सकने में ही समर्थ होता। परिवार का ही विशद रूप समाज है। समाज को सुव्यवस्थित बनाने में राजतंत्र और धर्मतन्त्र के ढांचे खड़े हुए और सुरक्षित सुव्यवस्थित रूप से रह सकना प्रगति पथ पर आगे बढ़ सकना तब ही संभव हुआ है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि बुद्धिमत्ता से भी अधिक मानवी प्रगति में उसकी सहकारी प्रवृत्ति ने वह सुयोग प्रदान किए हैं, जिसके सहारे बढ़ते-बढ़ते वह आज की समुन्नत परिस्थितियों तक पहुंच सकने में समर्थ हुआ है।
सहकारिता को जीवन की सफलता एवं सुव्यवस्था में महती भूमिका निबाहते हुए देखा जा सकता है। जहां इस विभूति का जितना अधिक उपयोग हुआ है वहां उसी अनुपात में प्रगति का वातावरण बना है। यदि आगे और भी अच्छी स्थिति प्राप्त करने का मन हो तो इस दैवी वरदान जैसी सहकारी प्रवृत्ति को अधिकाधिक विकसित करना चाहिए।
संगठन की संयुक्त शक्ति का चमत्कार हर क्षेत्र में देखा जा सकता है। पतली सींके मिलकर बुहारी बनती है और घर आंगन को बुहारने का काम करती है। तिनकों से मिलकर मजबूत रस्सा बनता है। धागों से मिलकर कपड़ा बनता है और तन ढांकने के काम आता है। कारखाने संयुक्त श्रम के आधार पर चलते हैं। सेना संगठन का ही एक रूप है। निर्माणों के बड़े-बड़े प्रयास सामूहिक श्रम द्वारा ही सम्भव होते हैं। शासन तंत्र में विभिन्न स्तर के घटक ही मिल-जुल कर अपना दायित्व निबाहते हैं। यदि वह ढांचा खड़ा न किया गया होता तो चारों ओर अराजकता का बोल-बाला रहता। जिसकी लाठी तिसकी भैंस वाला जंगल का कानून चल रहा होता तो कोई भी निश्चित एवं सुरक्षित न रह पाता। अच्छा ही हुआ कि मनुष्य सहकारिता का महत्व अधिकाधिक गम्भीरता पूर्वक समझता आया। उसे उत्साह के साथ कार्यान्वित करता रहा और आज की प्रगतिशीलता से लाभान्वित हो सका, दूसरों को भी कर सका।
तथ्यों पर विचार करते हुए वर्तमान उपलब्धियों को सुरक्षित रखने और भविष्य में और भी अच्छी स्थिति प्राप्त करने के लिए मिल जुलकर रहने, मिल-बांटकर खाने, हंसते-हंसाते जीने की रीति-नीति को और भी अधिक तत्परता पूर्वक अपनाना चाहिए। सहयोग का आधार अधिकाधिक बढ़ाना चाहिए।
संकीर्ण स्वार्थपरता का पाप अपराधों में सबसे प्रमुख है उसी के कारण अनेक प्रकार के अनाचार अपराध बन पड़ते हैं। अनेकों विग्रह उसी कारण उत्पन्न होते हैं। बिखराव का क्रम जहां भी चल पड़ता है वहां अवगति ही होती जाती है। इसके विपरीत जहां समन्वय की एकता का आदर्श पलता है, वहां पुण्य परमार्थ की झड़ी लग जाती है। स्नेह सद्भाव, पुण्य परमार्थ, सेवा सहायता आदि सत्प्रवृत्तियों के पीछे सहकारिता की मनोवृत्ति ही काम करती हैं। उदारचेता महामानव मूलतः सहकारिता को ही प्रधानता देते हैं संगठित रहते हैं। व्यवहार-व्यवसाय का ढांचा इस प्रकार खड़ा करते हैं जिसमें सभी एक दूसरे की सहायता करें। संयुक्त को विकसित करते हुए अधिक महत्वपूर्ण कार्य कर सकें।
समस्याओं, उलझनों विग्रहों, विपत्तियों का मूल उद्गम तलाश जाय तो प्रतीत होगा कि इस प्रकार के संकट किसी की या किन्हीं की संकीर्ण स्वार्थपरता के कारण ही उत्पन्न हुए हैं। सामूहिक हित-साधन की अपेक्षा जहां भी मनुष्य संकीर्णता अपनाना आरम्भ करता है, निजी स्वार्थों को प्रधानता देना आरम्भ करता है, वहीं विग्रह का आधार खड़ा हो जाता है यदि अपने वैभव का समर्थता का लाभ अन्यायों को देते रहने की उदारता का क्रम चलता रहे तो सुख और दुख भी मिल बांटकर इस स्थिति में रखे जा सकते हैं कि किसी को भी अनावश्यक भार न वहन करना पड़े।
व्यक्तिगत जीवन से लेकर समाज व्यवस्था और विश्वशांति के समस्त आधार इस तथ्य पर निर्भर हैं कि मिल जुलकर रहने, संयुक्त रूप से काम करने और एक दूसरे को अपनी क्षमताओं से लाभान्वित करने की रीति-नीति किस सीमा तक अपनाई गई? हमें प्रगति के मूल उद्गम सहयोग का महत्व समझना चाहिए और हर प्रयोजन में सहकारिता की अधिकाधिक अभिवृद्धि करनी चाहिए।
आदि काल का मनुष्य वनमानुषों जैसा गुजारा करता था। विकास वादी उसे ‘‘बन्दर की औलाद’’ बताते भी हैं। ऐसा न भी हो तो भी देखा जाता है कि वनवासी कबीले अभी भी सभ्यता और साधनों की दृष्टि में प्रगतिशीलों की तुलना में गया बीता जीवन ही जीते हैं। उनकी स्थिति पशु और मनुष्य के मध्यवर्ती जैसी है। इसका कारण यह है कि उन्हें पिछड़े वर्ग का अंग बन कर ही रहना पड़ा। भेड़ियों की मांद में पले हुए कितने ही मनुष्य बालक समय-समय पर पकड़े गए हैं। उनकी स्थिति अपने पालकों जैसी ही पाई गई। यदि मनुष्य प्रकृतितः बुद्धिमान होता तो सर्वत्र मनुष्य एक जैसे ही बुद्धिमान होते। पर ऐसा देखा नहीं जाता। जिन्हें वातावरण के सान्निध्य में रहना पड़ता है, वे वैसे ही ढांचे में ढल जाते हैं। इससे प्रकट है कि मनुष्य की मौलिक विशेषता सहकारिता है। इसे वह जिस सीमा तक विकसित कर लेता है, उतना ही बुद्धिमान बन जाता है। इसके उपरान्त ही वह प्रगति के अनेक साधन जुटा पाता है। भाषा लिपि, कृषि, पशुपालन, अग्नि प्रयोग, पहिया, औजार आदि प्रारम्भिक आविष्कार उसने मात्र बुद्धि के सहारे नहीं कर लिए। इनमें पारस्परिक सहयोग ने महती भूमिका निवाही। एक के ज्ञान अनुभव का लाभ दूसरे को मिला। इस प्रकार ज्ञान सम्पदा-बढ़ती चली गई। अनुभवों और आविष्कारों का लाभ साथियों को पीढ़ियों को मिलता रहा और वह बौद्धिक सम्पदा आविष्कारों सहित आगे बढ़ती चली आई। यदि सहकारिता का मौलिक गुण उसमें न रहा होता तो अन्य प्राणियों की तरह अभी भी मनुष्य मात्र शरीर सम्पदा के आधार पर गुजारा कर रहा होता और अन्य जीवों की तरह पिछड़ी हुई स्थिति में ही रह रहा होता। बुद्धिमत्ता उपलब्ध करने में मनुष्य की मौलिक विशेषता के रूप में सहकारिता ही प्रत्यक्ष सौभाग्य की तरह उसे हस्तगत हुई है।
जीवन निर्वाह में अनेक वस्तुओं की आवश्यकता होती है। उन्हें कोई एकाकी रहकर उपार्जित-विनिर्मित नहीं कर सकता। सहकारिता के आधार पर ही लोग मिल जुलकर काम करते हैं। पारस्परिक आदान-प्रदान का क्रम अपनाकर सुविधा साधनों का सुयोग बनाते हैं। इस सहकारिता का एक प्रत्यक्ष प्रमाण परिवार संचालन है। मनुष्य की तरह अन्य कोई प्राणी परिवार नहीं बसाता। उसका सुव्यवस्थित तंत्र नहीं चलाता। यदि परिवार बनाने चलाने की सूझ-बूझ न उपजी होती तो मनुष्य का सारा समय शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति में ही खप जाता। वह बौद्धिक भौतिक एवं वैज्ञानिक प्रगति के सम्बन्ध में न कुछ सोच पाता और न कुछ कर सकने में ही समर्थ होता। परिवार का ही विशद रूप समाज है। समाज को सुव्यवस्थित बनाने में राजतंत्र और धर्मतन्त्र के ढांचे खड़े हुए और सुरक्षित सुव्यवस्थित रूप से रह सकना प्रगति पथ पर आगे बढ़ सकना तब ही संभव हुआ है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि बुद्धिमत्ता से भी अधिक मानवी प्रगति में उसकी सहकारी प्रवृत्ति ने वह सुयोग प्रदान किए हैं, जिसके सहारे बढ़ते-बढ़ते वह आज की समुन्नत परिस्थितियों तक पहुंच सकने में समर्थ हुआ है।
सहकारिता को जीवन की सफलता एवं सुव्यवस्था में महती भूमिका निबाहते हुए देखा जा सकता है। जहां इस विभूति का जितना अधिक उपयोग हुआ है वहां उसी अनुपात में प्रगति का वातावरण बना है। यदि आगे और भी अच्छी स्थिति प्राप्त करने का मन हो तो इस दैवी वरदान जैसी सहकारी प्रवृत्ति को अधिकाधिक विकसित करना चाहिए।
संगठन की संयुक्त शक्ति का चमत्कार हर क्षेत्र में देखा जा सकता है। पतली सींके मिलकर बुहारी बनती है और घर आंगन को बुहारने का काम करती है। तिनकों से मिलकर मजबूत रस्सा बनता है। धागों से मिलकर कपड़ा बनता है और तन ढांकने के काम आता है। कारखाने संयुक्त श्रम के आधार पर चलते हैं। सेना संगठन का ही एक रूप है। निर्माणों के बड़े-बड़े प्रयास सामूहिक श्रम द्वारा ही सम्भव होते हैं। शासन तंत्र में विभिन्न स्तर के घटक ही मिल-जुल कर अपना दायित्व निबाहते हैं। यदि वह ढांचा खड़ा न किया गया होता तो चारों ओर अराजकता का बोल-बाला रहता। जिसकी लाठी तिसकी भैंस वाला जंगल का कानून चल रहा होता तो कोई भी निश्चित एवं सुरक्षित न रह पाता। अच्छा ही हुआ कि मनुष्य सहकारिता का महत्व अधिकाधिक गम्भीरता पूर्वक समझता आया। उसे उत्साह के साथ कार्यान्वित करता रहा और आज की प्रगतिशीलता से लाभान्वित हो सका, दूसरों को भी कर सका।
तथ्यों पर विचार करते हुए वर्तमान उपलब्धियों को सुरक्षित रखने और भविष्य में और भी अच्छी स्थिति प्राप्त करने के लिए मिल जुलकर रहने, मिल-बांटकर खाने, हंसते-हंसाते जीने की रीति-नीति को और भी अधिक तत्परता पूर्वक अपनाना चाहिए। सहयोग का आधार अधिकाधिक बढ़ाना चाहिए।
संकीर्ण स्वार्थपरता का पाप अपराधों में सबसे प्रमुख है उसी के कारण अनेक प्रकार के अनाचार अपराध बन पड़ते हैं। अनेकों विग्रह उसी कारण उत्पन्न होते हैं। बिखराव का क्रम जहां भी चल पड़ता है वहां अवगति ही होती जाती है। इसके विपरीत जहां समन्वय की एकता का आदर्श पलता है, वहां पुण्य परमार्थ की झड़ी लग जाती है। स्नेह सद्भाव, पुण्य परमार्थ, सेवा सहायता आदि सत्प्रवृत्तियों के पीछे सहकारिता की मनोवृत्ति ही काम करती हैं। उदारचेता महामानव मूलतः सहकारिता को ही प्रधानता देते हैं संगठित रहते हैं। व्यवहार-व्यवसाय का ढांचा इस प्रकार खड़ा करते हैं जिसमें सभी एक दूसरे की सहायता करें। संयुक्त को विकसित करते हुए अधिक महत्वपूर्ण कार्य कर सकें।
समस्याओं, उलझनों विग्रहों, विपत्तियों का मूल उद्गम तलाश जाय तो प्रतीत होगा कि इस प्रकार के संकट किसी की या किन्हीं की संकीर्ण स्वार्थपरता के कारण ही उत्पन्न हुए हैं। सामूहिक हित-साधन की अपेक्षा जहां भी मनुष्य संकीर्णता अपनाना आरम्भ करता है, निजी स्वार्थों को प्रधानता देना आरम्भ करता है, वहीं विग्रह का आधार खड़ा हो जाता है यदि अपने वैभव का समर्थता का लाभ अन्यायों को देते रहने की उदारता का क्रम चलता रहे तो सुख और दुख भी मिल बांटकर इस स्थिति में रखे जा सकते हैं कि किसी को भी अनावश्यक भार न वहन करना पड़े।
व्यक्तिगत जीवन से लेकर समाज व्यवस्था और विश्वशांति के समस्त आधार इस तथ्य पर निर्भर हैं कि मिल जुलकर रहने, संयुक्त रूप से काम करने और एक दूसरे को अपनी क्षमताओं से लाभान्वित करने की रीति-नीति किस सीमा तक अपनाई गई? हमें प्रगति के मूल उद्गम सहयोग का महत्व समझना चाहिए और हर प्रयोजन में सहकारिता की अधिकाधिक अभिवृद्धि करनी चाहिए।