
स्नेह-सौजन्य की मोदभरी प्रक्रिया
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आत्म केन्द्रित व्यक्ति को अपने ही लाभ एवं वर्चस्व का ध्यान रहता है। दूसरों के प्रति भी अपने कुछ कर्तव्य है, इसे तो वह एक प्रकार से भूल ही जाता है। स्वार्थपरता की मात्रा स्वभाव में जब बढ़ने लगती है तो उसका परिपोषण करने के लिए दूसरों के प्रति उपेक्षा अवज्ञा का व्यवहार ही बन पड़ता है। ऐसे व्यक्ति अवांछनीय तत्वों में गिने जाते हैं।
स्वार्थ के साथ-साथ अहंकार भी बढ़ता है। अहंमन्यता का परिपोषण तभी बन पड़ता है, जब दूसरों को छोटा समझा जाय। तुच्छता की दृष्टि से देखा जाय। उचित मात्रा का स्वार्थ तो आदान-प्रदान के रूप में चरितार्थ हो सकता है, पर जब आपा-धापी ही सब कुछ बन गयी है, तो दूसरों के अधिकारों का ध्यान कौन रखे? दूसरों की आकांक्षा का अनुमान कौन लगाये? आत्म केन्द्रित व्यक्ति मात्र अपना ही ध्यान रखते हैं। दूसरों के प्रति अपनी भी कुछ जिम्मेदारी है, इसका आभास भी नहीं हो पाता। स्वार्थ की बढ़ी हुई मात्रा अहंकार में परिणित होती है और उस स्थिति में दूसरों के प्रति दुर्व्यवहार करने तक में कोई बुराई नहीं दीख पड़ती। ऐसे लोग भले ही अपराध करने की सीमा तक आगे न बढ़ें, पर वे शिष्टाचार तो भूल ही जाते हैं। स्नेह, सद्भाव का प्रदर्शन तो बन ही नहीं पड़ता। नीरसता और निष्ठुरता की मात्रा बढ़ती चली जाती है।
मानवी स्वभाव संरचना एवं गौरव गरिमा के अनुरूप व्यवहार तभी बन पड़ता है, जब उसमें आत्मीयता का समावेश समुचित मात्रा में हो। अपनेपन का दायरा केवल अपने शरीर पोषण और मन के तोषण तक सीमित रहे। सज्जनता की यह पहचान नहीं है। आत्म केन्द्रित व्यक्ति यह सब नहीं कर पाता। उसकी निजी लिप्सा लालसा ही इतनी बढ़ी-चढ़ी होती है कि समूची विचारणा और क्रिया पद्धति उसी में नियोजित होकर रह जाती है।
किसी की छोटी-सी कोठरी में कैद रहना पड़े, तो निश्चय ही उसे असन्तोष भी रहेगा और मन मसोसने जैसी पीड़ा भी सहन करनी पड़ेगी। स्वार्थ की सीमित परिधि में अपना व्यक्तित्व सीमाबद्ध रखने पर भी इसी स्थिति का सामना करना पड़ता है। आनन्द और उत्साह तब उभरता है जब विस्तृत क्षेत्र से अपनी क्रिया परिधि बनाई जाय। बच्चे खुली जगह में दौड़ लगाने के लिए उत्सुक रहते हैं। पशु-पक्षी भी एक जगह बैठे नहीं रहते उन्हें खुला सुरक्षित आकाश चाहिए। इसी प्रकार मनुष्य को भी दूसरों के साथ हिलमिलकर रहने की सुविधा चाहिए। मात्र शरीरों के साथ रहने से काम नहीं चलता वरन् औरों के सुख-दुःख की भागीदारी भी आवश्यक प्रतीत होती है। जिसके मन में दूसरों के प्रति उपेक्षा भाव छाया रहता है, उन्हें एक प्रकार से घुटन की स्थिति में रहना पड़ता है। मन की कली तब खिलती है, जब सम्पर्क क्षेत्र बढ़े और उसमें स्नेह-सौजन्य का आदान-प्रदान चलता रहे। दूसरों की प्रसन्नता के आधार पर अपनी प्रसन्नता बढ़ा लेना सरल है। दूसरों की सफलता एवं प्रगति को अपनी मान लेने पर सहज उल्लास मिलता है। उसकी कोई कीमत नहीं चुकानी पड़ती। किन्तु यदि स्व-उपार्जित सम्पदा, सफलता प्रगति को ही सन्तोष का केन्द्र मानना हो तो उसके लिए लम्बे समय तक भारी प्रयत्न करना पड़ेगा और जब तक अभीष्ट उपलब्धि हस्तगत न हो, तब तक धैर्य रखना पड़ेगा और प्रतीक्षा करनी होगी। किन्तु यदि दूसरों के साथ अपनापन जोड़ लिया गया है तो उसके सहारे दूसरों को प्रसन्न होते देखकर अपनी प्रसन्नता बढ़ाई जा सकती है। इसी को आत्मभाव का विस्तार कहते हैं। इसका सुखद परिणाम हाथों-हाथ मिलता है।
अपने कष्ट में दुःखी होना स्वाभाविक है, उसमें व्यथा और बेचैनी भी जड़ी होती है, पर यदि दूसरों के दुःख में दुःखी होने की प्रवृत्ति जग पड़े तो इसे दया एवं करुणा का उदय उद्भव कहा जायगा। इसके आधार पर सेवा-सहायता करने का अवसर मिलता है। इसमें पुण्य भी है और सन्तोष भी। प्रशंसा मिलती है और सज्जनता उभरती है। इन लाभों के अतिरिक्त अन्तराल से मानवता का स्रोत भी फूट पड़ता है। आदि कवि वाल्मीकि ने क्रोंच पक्षी को आहत देखा उससे उनकी करुणा की धार फूटी और वही आगे चलकर काव्य सरिता के रूप में प्रवाहित होने लगी। यदि उनने आहत प्राणी की व्यथा को अपनी व्यथा न माना होता तो उस लाभ से वंचित रहना पड़ता, जो उन्हें आदि कवि के रूप में गौरव प्रदान करने में समर्थ हुआ।
आत्म-भाव का विस्तार करने की प्रतिक्रिया यह होती है कि व्यवहार में सहज सौजन्य का समावेश होने लगता है। स्नेह की सरिता भी इसी आधार पर प्रवाहित होती है। प्यार उसी के साथ बन पड़ता है, जिसके साथ किसी रूप में आत्मीयता जुड़ जाती है। आत्मीयता का क्षेत्र विस्तृत करने का अर्थ है—प्रियजनों की संख्या बढ़ाना। यह संख्या जितनी बड़ी होती है, उसी अनुपात से सद्भाव का विस्तार होता है और आत्मोत्कर्ष का आधार मिलता है। इसकी प्रतिक्रिया भी होती है। निस्वार्थ भाव से, सहज भाव से किया गया स्नेहसिक्त सद्व्यवहार अपनी प्रतिक्रिया लेकर बढ़े-चढ़े रूप में वापिस लौटता है। अनुदान का प्रतिदान मिलता है। जिन्हें अपना माना गया है, वे सर्वथा कृतघ्न नहीं रह सकते। बदले में उनकी उदारता एवं सद्भावना भी ब्याज समेत वापिस लौटती है। यह लाभ ऐसा है जिसे मात्र सदाशयता के बदले इतना बढ़-चढ़कर पाया जा सकता है कि उसे बहुमूल्य आंका जा सके। स्नेह के बदले स्नेह खरीदा जा सकता है और सौजन्य के बदले सौजन्य। इसे कीमत चुकाकर प्राप्त करने का प्रयास किया गया होता तो बार-बार उपहार देने के मूल्य चुकाने की आवश्यकता पड़ती रहती। तब कहीं उतना सुखद वातावरण बन पाता। पर आत्मीयता की भाव-चेतना का विस्तार ही उतने लाभों का समुच्चय बटोर लाता है जिसे प्राप्त करके अपनी अन्तरात्मा पुलकित हो सके।
अपनी नम्रता दूसरे को प्रफुल्लित होने के लिए उत्साहित करती है। विनम्र व्यक्ति अपनी सीमा को समझता है और अहंकार से बचता है। दूसरों को सम्मान देकर बदले में सम्मानित हुआ जा सकता है। इस संसार की संरचना इस प्रकार की है कि अपना ही व्यक्तित्व दूसरों के चेहरे पर दर्पण की तरह प्रतिबिम्ब दीख पड़े। जब हम निष्ठुर कर्कश होते हैं तो दूसरे भी उसी प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त करने लगते हैं। गुम्बद में अपनी ही आवाज गूंजती है और प्रतिध्वनि के रूप में सुनाई पड़ती है। अपना आत्मभाव संकुचित हो तो दूसरे भी संकीर्ण स्वार्थपरता का व्यवहार करने लगते हैं। पर यदि उदार आत्मीयता अपनाई गयी है तो उसका प्रतिफल भी न्यूनाधिक मात्रा में उसी के अनुरूप मिलने लगेगा।
सम्पर्क क्षेत्र एक प्रकार का खेत है, जिसमें अपने व्यवहार के बोये जाने पर उसकी बढ़-चढ़कर प्रतिक्रिया वापिस लौटती है। एक व्यक्ति अपना सौजन्य हजारों पर बिखेर सकता है। पर जब हजारों का सौजन्य लौटकर वापिस आता है तो वह प्रतिदान बोये गये अनुदान की अपेक्षा हजार गुना अधिक होता है।
धर्म-धारणा में स्नेह-सौजन्य को भी एक महत्वपूर्ण घटक माना गया है। अपने चिन्तन स्वभाव एवं व्यक्तित्व में यदि सज्जनता की मात्रा बढ़ी-चढ़ी हो, उसी के अनुरूप व्यवहार बन पड़ रहा हो तो निश्चित रूप से यह देखा और पाया जायगा कि सब ओर से सौजन्य अपने ऊपर बरसता है।
स्वार्थ के साथ-साथ अहंकार भी बढ़ता है। अहंमन्यता का परिपोषण तभी बन पड़ता है, जब दूसरों को छोटा समझा जाय। तुच्छता की दृष्टि से देखा जाय। उचित मात्रा का स्वार्थ तो आदान-प्रदान के रूप में चरितार्थ हो सकता है, पर जब आपा-धापी ही सब कुछ बन गयी है, तो दूसरों के अधिकारों का ध्यान कौन रखे? दूसरों की आकांक्षा का अनुमान कौन लगाये? आत्म केन्द्रित व्यक्ति मात्र अपना ही ध्यान रखते हैं। दूसरों के प्रति अपनी भी कुछ जिम्मेदारी है, इसका आभास भी नहीं हो पाता। स्वार्थ की बढ़ी हुई मात्रा अहंकार में परिणित होती है और उस स्थिति में दूसरों के प्रति दुर्व्यवहार करने तक में कोई बुराई नहीं दीख पड़ती। ऐसे लोग भले ही अपराध करने की सीमा तक आगे न बढ़ें, पर वे शिष्टाचार तो भूल ही जाते हैं। स्नेह, सद्भाव का प्रदर्शन तो बन ही नहीं पड़ता। नीरसता और निष्ठुरता की मात्रा बढ़ती चली जाती है।
मानवी स्वभाव संरचना एवं गौरव गरिमा के अनुरूप व्यवहार तभी बन पड़ता है, जब उसमें आत्मीयता का समावेश समुचित मात्रा में हो। अपनेपन का दायरा केवल अपने शरीर पोषण और मन के तोषण तक सीमित रहे। सज्जनता की यह पहचान नहीं है। आत्म केन्द्रित व्यक्ति यह सब नहीं कर पाता। उसकी निजी लिप्सा लालसा ही इतनी बढ़ी-चढ़ी होती है कि समूची विचारणा और क्रिया पद्धति उसी में नियोजित होकर रह जाती है।
किसी की छोटी-सी कोठरी में कैद रहना पड़े, तो निश्चय ही उसे असन्तोष भी रहेगा और मन मसोसने जैसी पीड़ा भी सहन करनी पड़ेगी। स्वार्थ की सीमित परिधि में अपना व्यक्तित्व सीमाबद्ध रखने पर भी इसी स्थिति का सामना करना पड़ता है। आनन्द और उत्साह तब उभरता है जब विस्तृत क्षेत्र से अपनी क्रिया परिधि बनाई जाय। बच्चे खुली जगह में दौड़ लगाने के लिए उत्सुक रहते हैं। पशु-पक्षी भी एक जगह बैठे नहीं रहते उन्हें खुला सुरक्षित आकाश चाहिए। इसी प्रकार मनुष्य को भी दूसरों के साथ हिलमिलकर रहने की सुविधा चाहिए। मात्र शरीरों के साथ रहने से काम नहीं चलता वरन् औरों के सुख-दुःख की भागीदारी भी आवश्यक प्रतीत होती है। जिसके मन में दूसरों के प्रति उपेक्षा भाव छाया रहता है, उन्हें एक प्रकार से घुटन की स्थिति में रहना पड़ता है। मन की कली तब खिलती है, जब सम्पर्क क्षेत्र बढ़े और उसमें स्नेह-सौजन्य का आदान-प्रदान चलता रहे। दूसरों की प्रसन्नता के आधार पर अपनी प्रसन्नता बढ़ा लेना सरल है। दूसरों की सफलता एवं प्रगति को अपनी मान लेने पर सहज उल्लास मिलता है। उसकी कोई कीमत नहीं चुकानी पड़ती। किन्तु यदि स्व-उपार्जित सम्पदा, सफलता प्रगति को ही सन्तोष का केन्द्र मानना हो तो उसके लिए लम्बे समय तक भारी प्रयत्न करना पड़ेगा और जब तक अभीष्ट उपलब्धि हस्तगत न हो, तब तक धैर्य रखना पड़ेगा और प्रतीक्षा करनी होगी। किन्तु यदि दूसरों के साथ अपनापन जोड़ लिया गया है तो उसके सहारे दूसरों को प्रसन्न होते देखकर अपनी प्रसन्नता बढ़ाई जा सकती है। इसी को आत्मभाव का विस्तार कहते हैं। इसका सुखद परिणाम हाथों-हाथ मिलता है।
अपने कष्ट में दुःखी होना स्वाभाविक है, उसमें व्यथा और बेचैनी भी जड़ी होती है, पर यदि दूसरों के दुःख में दुःखी होने की प्रवृत्ति जग पड़े तो इसे दया एवं करुणा का उदय उद्भव कहा जायगा। इसके आधार पर सेवा-सहायता करने का अवसर मिलता है। इसमें पुण्य भी है और सन्तोष भी। प्रशंसा मिलती है और सज्जनता उभरती है। इन लाभों के अतिरिक्त अन्तराल से मानवता का स्रोत भी फूट पड़ता है। आदि कवि वाल्मीकि ने क्रोंच पक्षी को आहत देखा उससे उनकी करुणा की धार फूटी और वही आगे चलकर काव्य सरिता के रूप में प्रवाहित होने लगी। यदि उनने आहत प्राणी की व्यथा को अपनी व्यथा न माना होता तो उस लाभ से वंचित रहना पड़ता, जो उन्हें आदि कवि के रूप में गौरव प्रदान करने में समर्थ हुआ।
आत्म-भाव का विस्तार करने की प्रतिक्रिया यह होती है कि व्यवहार में सहज सौजन्य का समावेश होने लगता है। स्नेह की सरिता भी इसी आधार पर प्रवाहित होती है। प्यार उसी के साथ बन पड़ता है, जिसके साथ किसी रूप में आत्मीयता जुड़ जाती है। आत्मीयता का क्षेत्र विस्तृत करने का अर्थ है—प्रियजनों की संख्या बढ़ाना। यह संख्या जितनी बड़ी होती है, उसी अनुपात से सद्भाव का विस्तार होता है और आत्मोत्कर्ष का आधार मिलता है। इसकी प्रतिक्रिया भी होती है। निस्वार्थ भाव से, सहज भाव से किया गया स्नेहसिक्त सद्व्यवहार अपनी प्रतिक्रिया लेकर बढ़े-चढ़े रूप में वापिस लौटता है। अनुदान का प्रतिदान मिलता है। जिन्हें अपना माना गया है, वे सर्वथा कृतघ्न नहीं रह सकते। बदले में उनकी उदारता एवं सद्भावना भी ब्याज समेत वापिस लौटती है। यह लाभ ऐसा है जिसे मात्र सदाशयता के बदले इतना बढ़-चढ़कर पाया जा सकता है कि उसे बहुमूल्य आंका जा सके। स्नेह के बदले स्नेह खरीदा जा सकता है और सौजन्य के बदले सौजन्य। इसे कीमत चुकाकर प्राप्त करने का प्रयास किया गया होता तो बार-बार उपहार देने के मूल्य चुकाने की आवश्यकता पड़ती रहती। तब कहीं उतना सुखद वातावरण बन पाता। पर आत्मीयता की भाव-चेतना का विस्तार ही उतने लाभों का समुच्चय बटोर लाता है जिसे प्राप्त करके अपनी अन्तरात्मा पुलकित हो सके।
अपनी नम्रता दूसरे को प्रफुल्लित होने के लिए उत्साहित करती है। विनम्र व्यक्ति अपनी सीमा को समझता है और अहंकार से बचता है। दूसरों को सम्मान देकर बदले में सम्मानित हुआ जा सकता है। इस संसार की संरचना इस प्रकार की है कि अपना ही व्यक्तित्व दूसरों के चेहरे पर दर्पण की तरह प्रतिबिम्ब दीख पड़े। जब हम निष्ठुर कर्कश होते हैं तो दूसरे भी उसी प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त करने लगते हैं। गुम्बद में अपनी ही आवाज गूंजती है और प्रतिध्वनि के रूप में सुनाई पड़ती है। अपना आत्मभाव संकुचित हो तो दूसरे भी संकीर्ण स्वार्थपरता का व्यवहार करने लगते हैं। पर यदि उदार आत्मीयता अपनाई गयी है तो उसका प्रतिफल भी न्यूनाधिक मात्रा में उसी के अनुरूप मिलने लगेगा।
सम्पर्क क्षेत्र एक प्रकार का खेत है, जिसमें अपने व्यवहार के बोये जाने पर उसकी बढ़-चढ़कर प्रतिक्रिया वापिस लौटती है। एक व्यक्ति अपना सौजन्य हजारों पर बिखेर सकता है। पर जब हजारों का सौजन्य लौटकर वापिस आता है तो वह प्रतिदान बोये गये अनुदान की अपेक्षा हजार गुना अधिक होता है।
धर्म-धारणा में स्नेह-सौजन्य को भी एक महत्वपूर्ण घटक माना गया है। अपने चिन्तन स्वभाव एवं व्यक्तित्व में यदि सज्जनता की मात्रा बढ़ी-चढ़ी हो, उसी के अनुरूप व्यवहार बन पड़ रहा हो तो निश्चित रूप से यह देखा और पाया जायगा कि सब ओर से सौजन्य अपने ऊपर बरसता है।