
कर्त्तव्य पालन का पुण्य परमार्थ
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
सभी अपने अधिकारों की मांग करते हैं। पर यह भूल जाते हैं कि इसके साथ ही कर्त्तव्य-पालन भी जुड़ा हुआ है। कर्त्तव्यों की उपेक्षा की जाय और अधिकार को उस माप की तुलना में कहीं अधिक मात्रा में मांगा जाय तो खींचा तानी आरंभ हो जाती है। मनोमालिन्य बढ़ता है और संघर्ष आरंभ हो जाता है। यही वह विष वृक्ष का बीजारोपण है, जिसका प्रतिफल कटु, कर्कश और दुष्परिणामों से भरा पूरा होता है।
गाय को घास खिलाते हैं बदले में वह दूध देती है। श्रमिक को वेतन देते हैं, बदले में वह परिश्रम करता है। खेत को खाद, पानी और बीज देते हैं बदले में उससे धन-धान्य की फसल मिलती है। शरीर को पोषण का निर्वाह देते हैं। बदले में वह जीवित रहता और सौंपे हुए कामों को सम्पन्न करता है। यदि उपरोक्त कर्त्तव्य-पालनों को बन्द कर दिया जाय तो निश्चय ही बदले में मिलने वाले सत्परिणामों का मिलना भी बन्द हो जायगा भले ही पीछे उसकी शिकायत ही क्यों न करते रहें। दोषारोपण भले ही लगाते रहें।
अन्य जीव जन्तु अपने लिए, सुविधाएं तो चाहते हैं और उतने भर के लिए दौड़ धूप भी करते हैं। पर उन्हें यह ज्ञान नहीं होता कि इसके बदले क्या कर्त्तव्य पालन करना चाहिए। फल यह होता है कि उनकी सभी उपलब्धियां अनिश्चित रहती हैं। आकाश वृष्टि से जो कुछ हाथ लग जाय, उसी पर सन्तोष करना पड़ता है। वे अनिश्चित परिस्थितियों में ही अपना समय गुजारते हैं।
मनुष्य अपने आपको कर्त्तव्यों से बंधा हुआ अनुभव करता है। उन्हें पालने के लिए यथा संभव प्रयत्नशील भी रहता है। यही कारण है कि उसे आदान-प्रदान का समुचित लाभ मिलता रहता है। परिवार के सदस्यों से, मित्रों से, संबंधियों से अनेक प्रकार के प्रसन्नतादायक सहयोग मिलते रहते हैं। उनके आधार पर सुविधा भी मिलती है, प्रसन्नता भी। किन्तु यह भी स्मरण रखा जाना चाहिए कि, यह उसके कर्त्तव्य पालन का प्रतिफल है। यों दीन-दुखियों की निस्वार्थ सेवा, सहायता भी की जाती है। बदले में वे असहाय कुछ प्रत्यक्ष प्रतिदान नहीं दे पाते तो भी दाता को अनुभव होता है कि अपने सत्पात्रों की सेवा करके पुण्य कमाया और संतोष का लाभ उठाया। यह भी एक प्रकार का प्रतिदान ही है। किसी के द्वारा ठगे जाने पर प्रसन्नता के स्थान पर रोष उत्पन्न होता है। क्योंकि ठग न तो सत्पात्र था और न भाव भरी कृतज्ञता व्यक्त करने की स्थिति में ही था। प्रतिदान की अपेक्षा तभी की जा सकती है जब अनुदान में कोताही न की जाय। अनुदान कर्त्तव्य है और प्रतिदान उसका प्रतिफल। इस तथ्य को सुनिश्चित रूप से समझ ही लिया जाना चाहिए।
अन्य प्राणियों की तरह मनुष्य भी स्वतंत्र है। उसे भी स्वेच्छाचार बरतने की छूट है, किन्तु मानवी गरिमा ने उसे स्वच्छन्द नहीं रहने दिया है। महिमा, महत्ता और गरिमा के अनुरूप उसे कितने ही दायित्वों से भी लादा है। इनके परिपालन से ही उस गौरव का रसास्वादन कर सकना संभव होता है। जो ईश्वर ने अपने युवराज के रूप में उसे सौंपा है।
बन्दूक का लाइसेन्स हर किसी को नहीं मिलता। जिन्हें मिलता है उन्हें यह जिम्मेदारी भी सौंपी जाती है कि उसका दुरुपयोग न होने पाये। लूट, डकैती, हत्या आदि में उसे प्रयुक्त न होने दिया जाय। साथ ही उस लाइसेन्स लेने वाले से यह भी आशा की जाती है कि यदि गांव मुहल्ले पर डकैतों का दल आक्रमण करे तो उनका मुकाबला करने के लिए उस अस्त्र को साहस पूर्वक काम में लाया जाय। इस दुहरी जिम्मेदारी के साथ ही बन्दूक के अधिग्रहण का अधिकार मिलता है। यदि उनका परिपालन न किया जाय वरन जो प्रतिबंध थे उन्हें तोड़ा जाय, तो सरकार उस लाइसेन्स को रद्द कर देगी और बंदूक को जब्त कर लेगी। यही बात मनुष्य जीवन के संबंध में भी है। यह सुर दुर्लभ शरीर ऐसे ही नहीं दे दिया गया है। इतनी विशेषताओं से भरा पूरा यह कलेवर प्रदान करते हुए नियन्ता ने कुछ आशाएं भी रखी हैं, कुछ जिम्मेदारियां भी सौंपी हैं। उनका निर्वाह ठीक तरह बनता रहे तभी समझना चाहिए कि इस सुयोग की सार्थकता हुई। अन्यथा जिम्मेदारियां तोड़ने के अपराध में उन प्रताड़नाओं का क्रम सहना पड़ता है जो जिम्मेदारियों की उपेक्षा करने पर अपराधी की गणना में गिने जाने पर सहन करनी पड़ती है।
पशु-पक्षियों पर कोई नैतिक या सामाजिक बन्धन नहीं है। वे किसी के भी खेत में घुसकर पेट भर सकते हैं। अपनी जाति में किसी से भी यौन संबंध स्थापित कर सकते हैं। किन्तु मनुष्य ऐसा नहीं कर सकता। करेगा तो चोरी के, व्यभिचार के अपराध में भर्त्सना और प्रताड़ना सहन करेगा। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। उसे अधिकांश सुविधाएं अनेकानेक व्यक्तियों के सहयोग से ही उपलब्ध होती हैं। बदले में उसका भी कर्त्तव्य हो जाता है कि समुदाय को सुखी समुन्नत, सुव्यवस्थित बनाने के लिए समुचित श्रम, सहयोग प्रस्तुत करे और लोकमंगल के निमित्त अपने बढ़-चढ़कर अनुदान प्रस्तुत करे। उसी कर्त्तव्य भावना के निर्वाह को देश भक्ति, समाज सेवा, पुण्य–परमार्थ, उदार-अनुदान आदि नामों से प्रशंसनीय माना जाता है। इसी आधार पर यश, सम्मान और सहयोग भी मिलता है। यह अनुदान का प्रतिदान है।
किसान को फसल पर ढेरों अनाज मिलता है। इस सबको वह लम्बे समय तक सुरक्षित नहीं रख सकता। जगह घिरेगी। कीड़े लगने का भय रहेगा। बदले में जो अन्य आवश्यक वस्तुएं खरीदी जा सकती हैं वह रास्ता रुक जायगा। इसलिए किसान उसमें से खाने लायक मात्रा रखकर शेष को बेच देता है। इससे दूसरे जरूरतमन्दों का काम चलता है और किसान को जो कीमत मिली, उसके बदले वह अन्य वस्तुएं खरीद सकता है। व्यवसाय कर सकता है, बैंक में जमा कर ब्याज ले सकता है। इसी प्रकार मनुष्य जन्म जिन्हें पूर्व कृत पुण्य से या दैव अनुग्रहों से उपलब्ध हुआ है, उनका कर्त्तव्य है कि, उपलब्ध श्रम, कौशल एवं मनोयोग को सत्प्रवृत्ति संवर्धन में, गिरों को उठाने में, उठों को बढ़ाने में नियोजित करें। इस प्रकार वह अनुदान पुण्य परमार्थ की पूंजी के रूप में जन्मा होता है और बदले में अन्य प्रकार की सुविधाएं प्राप्त करने का सुयोग मिलता है। यही तरीका बुद्धिमत्तापूर्ण है। जो किसान अपना अनाज अपने लिए ही सुरक्षित रखेगा वह कई प्रकार की हानियां ही सहन करेगा। उसकी संकीर्णता उसे अन्यान्य प्रकार के लाभ उठाने से वंचित ही रखे रहेगी।
बहुमूल्य वस्तुएं प्राप्त करने के उपरान्त उन्हें चोर उचक्कों से बचाने के लिए तिजोरी आदि में सुरक्षित रखने की व्यवस्था बनानी पड़ती है। मनुष्य को स्वास्थ्य, आयुष्य, विचार विवेक, कौशल, प्रतिभा पुरुषार्थ आदि ऐसी विशेषताएं मिली हैं जो अन्य प्राणियों के भाग्य में नहीं है। इन उपलब्धियों की बर्बादी न होने पाये यह मौलिक कर्त्तव्य बनता है। यदि इनका दुरुपयोग होने लगे तो अनेक दुर्व्यसन पीछे पड़ेंगे अनेक दुर्गुण उपजेंगे और पापकर्म बन पड़ेंगे। इसलिए हर घड़ी यह सतर्कता बरतनी चाहिए कि अपनी क्षमताओं में से किसी का भी रंच मात्र दुरुपयोग न होने पाये। दुरुपयोग न होने देने का सीधा अर्थ है उनका सदुपयोग किया जाना। सदुपयोग का एक ही उपाय है पुण्य परमार्थ। अपनी निज की विशेषताओं की अभिवृद्धि करना पुण्य कहलाता है और उन्हें दूसरों की सेवा-सहायता में लगाना परमार्थ। इन दोनों के कमाने में कुछ भी घाटा नहीं है। उनका प्रतिफल किन्हीं दूसरे रूपों में मिलकर रहता है।
कदाचित कहीं से तत्काल अनुदान का प्रतिदान न भी मिले तो भी चिंता जैसी कोई बात नहीं है। मनुष्य बदला चुकाने में असमर्थ रहे अथवा आना-कानी करे तो इसमें गृहीता को ही घाटा पड़ेगा। दाता की पूंजी तो सर्वथा सुरक्षित है। उसका आत्म-संतोष और यश सम्मान तो निश्चित रूप से बढ़ेगा। यह प्रत्यक्ष न होकर परोक्ष है तो भी उनके लाभ प्रकारान्तर से मिलते हैं। यह सामान्य को असामान्य बनाते हैं। इन लाभों को देखते हुए कर्मयोगी कभी घाटे में नहीं पड़ता। उसे अपने सद्भाव प्रदर्शन के लिए पश्चाताप नहीं करना पड़ता।
गाय को घास खिलाते हैं बदले में वह दूध देती है। श्रमिक को वेतन देते हैं, बदले में वह परिश्रम करता है। खेत को खाद, पानी और बीज देते हैं बदले में उससे धन-धान्य की फसल मिलती है। शरीर को पोषण का निर्वाह देते हैं। बदले में वह जीवित रहता और सौंपे हुए कामों को सम्पन्न करता है। यदि उपरोक्त कर्त्तव्य-पालनों को बन्द कर दिया जाय तो निश्चय ही बदले में मिलने वाले सत्परिणामों का मिलना भी बन्द हो जायगा भले ही पीछे उसकी शिकायत ही क्यों न करते रहें। दोषारोपण भले ही लगाते रहें।
अन्य जीव जन्तु अपने लिए, सुविधाएं तो चाहते हैं और उतने भर के लिए दौड़ धूप भी करते हैं। पर उन्हें यह ज्ञान नहीं होता कि इसके बदले क्या कर्त्तव्य पालन करना चाहिए। फल यह होता है कि उनकी सभी उपलब्धियां अनिश्चित रहती हैं। आकाश वृष्टि से जो कुछ हाथ लग जाय, उसी पर सन्तोष करना पड़ता है। वे अनिश्चित परिस्थितियों में ही अपना समय गुजारते हैं।
मनुष्य अपने आपको कर्त्तव्यों से बंधा हुआ अनुभव करता है। उन्हें पालने के लिए यथा संभव प्रयत्नशील भी रहता है। यही कारण है कि उसे आदान-प्रदान का समुचित लाभ मिलता रहता है। परिवार के सदस्यों से, मित्रों से, संबंधियों से अनेक प्रकार के प्रसन्नतादायक सहयोग मिलते रहते हैं। उनके आधार पर सुविधा भी मिलती है, प्रसन्नता भी। किन्तु यह भी स्मरण रखा जाना चाहिए कि, यह उसके कर्त्तव्य पालन का प्रतिफल है। यों दीन-दुखियों की निस्वार्थ सेवा, सहायता भी की जाती है। बदले में वे असहाय कुछ प्रत्यक्ष प्रतिदान नहीं दे पाते तो भी दाता को अनुभव होता है कि अपने सत्पात्रों की सेवा करके पुण्य कमाया और संतोष का लाभ उठाया। यह भी एक प्रकार का प्रतिदान ही है। किसी के द्वारा ठगे जाने पर प्रसन्नता के स्थान पर रोष उत्पन्न होता है। क्योंकि ठग न तो सत्पात्र था और न भाव भरी कृतज्ञता व्यक्त करने की स्थिति में ही था। प्रतिदान की अपेक्षा तभी की जा सकती है जब अनुदान में कोताही न की जाय। अनुदान कर्त्तव्य है और प्रतिदान उसका प्रतिफल। इस तथ्य को सुनिश्चित रूप से समझ ही लिया जाना चाहिए।
अन्य प्राणियों की तरह मनुष्य भी स्वतंत्र है। उसे भी स्वेच्छाचार बरतने की छूट है, किन्तु मानवी गरिमा ने उसे स्वच्छन्द नहीं रहने दिया है। महिमा, महत्ता और गरिमा के अनुरूप उसे कितने ही दायित्वों से भी लादा है। इनके परिपालन से ही उस गौरव का रसास्वादन कर सकना संभव होता है। जो ईश्वर ने अपने युवराज के रूप में उसे सौंपा है।
बन्दूक का लाइसेन्स हर किसी को नहीं मिलता। जिन्हें मिलता है उन्हें यह जिम्मेदारी भी सौंपी जाती है कि उसका दुरुपयोग न होने पाये। लूट, डकैती, हत्या आदि में उसे प्रयुक्त न होने दिया जाय। साथ ही उस लाइसेन्स लेने वाले से यह भी आशा की जाती है कि यदि गांव मुहल्ले पर डकैतों का दल आक्रमण करे तो उनका मुकाबला करने के लिए उस अस्त्र को साहस पूर्वक काम में लाया जाय। इस दुहरी जिम्मेदारी के साथ ही बन्दूक के अधिग्रहण का अधिकार मिलता है। यदि उनका परिपालन न किया जाय वरन जो प्रतिबंध थे उन्हें तोड़ा जाय, तो सरकार उस लाइसेन्स को रद्द कर देगी और बंदूक को जब्त कर लेगी। यही बात मनुष्य जीवन के संबंध में भी है। यह सुर दुर्लभ शरीर ऐसे ही नहीं दे दिया गया है। इतनी विशेषताओं से भरा पूरा यह कलेवर प्रदान करते हुए नियन्ता ने कुछ आशाएं भी रखी हैं, कुछ जिम्मेदारियां भी सौंपी हैं। उनका निर्वाह ठीक तरह बनता रहे तभी समझना चाहिए कि इस सुयोग की सार्थकता हुई। अन्यथा जिम्मेदारियां तोड़ने के अपराध में उन प्रताड़नाओं का क्रम सहना पड़ता है जो जिम्मेदारियों की उपेक्षा करने पर अपराधी की गणना में गिने जाने पर सहन करनी पड़ती है।
पशु-पक्षियों पर कोई नैतिक या सामाजिक बन्धन नहीं है। वे किसी के भी खेत में घुसकर पेट भर सकते हैं। अपनी जाति में किसी से भी यौन संबंध स्थापित कर सकते हैं। किन्तु मनुष्य ऐसा नहीं कर सकता। करेगा तो चोरी के, व्यभिचार के अपराध में भर्त्सना और प्रताड़ना सहन करेगा। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। उसे अधिकांश सुविधाएं अनेकानेक व्यक्तियों के सहयोग से ही उपलब्ध होती हैं। बदले में उसका भी कर्त्तव्य हो जाता है कि समुदाय को सुखी समुन्नत, सुव्यवस्थित बनाने के लिए समुचित श्रम, सहयोग प्रस्तुत करे और लोकमंगल के निमित्त अपने बढ़-चढ़कर अनुदान प्रस्तुत करे। उसी कर्त्तव्य भावना के निर्वाह को देश भक्ति, समाज सेवा, पुण्य–परमार्थ, उदार-अनुदान आदि नामों से प्रशंसनीय माना जाता है। इसी आधार पर यश, सम्मान और सहयोग भी मिलता है। यह अनुदान का प्रतिदान है।
किसान को फसल पर ढेरों अनाज मिलता है। इस सबको वह लम्बे समय तक सुरक्षित नहीं रख सकता। जगह घिरेगी। कीड़े लगने का भय रहेगा। बदले में जो अन्य आवश्यक वस्तुएं खरीदी जा सकती हैं वह रास्ता रुक जायगा। इसलिए किसान उसमें से खाने लायक मात्रा रखकर शेष को बेच देता है। इससे दूसरे जरूरतमन्दों का काम चलता है और किसान को जो कीमत मिली, उसके बदले वह अन्य वस्तुएं खरीद सकता है। व्यवसाय कर सकता है, बैंक में जमा कर ब्याज ले सकता है। इसी प्रकार मनुष्य जन्म जिन्हें पूर्व कृत पुण्य से या दैव अनुग्रहों से उपलब्ध हुआ है, उनका कर्त्तव्य है कि, उपलब्ध श्रम, कौशल एवं मनोयोग को सत्प्रवृत्ति संवर्धन में, गिरों को उठाने में, उठों को बढ़ाने में नियोजित करें। इस प्रकार वह अनुदान पुण्य परमार्थ की पूंजी के रूप में जन्मा होता है और बदले में अन्य प्रकार की सुविधाएं प्राप्त करने का सुयोग मिलता है। यही तरीका बुद्धिमत्तापूर्ण है। जो किसान अपना अनाज अपने लिए ही सुरक्षित रखेगा वह कई प्रकार की हानियां ही सहन करेगा। उसकी संकीर्णता उसे अन्यान्य प्रकार के लाभ उठाने से वंचित ही रखे रहेगी।
बहुमूल्य वस्तुएं प्राप्त करने के उपरान्त उन्हें चोर उचक्कों से बचाने के लिए तिजोरी आदि में सुरक्षित रखने की व्यवस्था बनानी पड़ती है। मनुष्य को स्वास्थ्य, आयुष्य, विचार विवेक, कौशल, प्रतिभा पुरुषार्थ आदि ऐसी विशेषताएं मिली हैं जो अन्य प्राणियों के भाग्य में नहीं है। इन उपलब्धियों की बर्बादी न होने पाये यह मौलिक कर्त्तव्य बनता है। यदि इनका दुरुपयोग होने लगे तो अनेक दुर्व्यसन पीछे पड़ेंगे अनेक दुर्गुण उपजेंगे और पापकर्म बन पड़ेंगे। इसलिए हर घड़ी यह सतर्कता बरतनी चाहिए कि अपनी क्षमताओं में से किसी का भी रंच मात्र दुरुपयोग न होने पाये। दुरुपयोग न होने देने का सीधा अर्थ है उनका सदुपयोग किया जाना। सदुपयोग का एक ही उपाय है पुण्य परमार्थ। अपनी निज की विशेषताओं की अभिवृद्धि करना पुण्य कहलाता है और उन्हें दूसरों की सेवा-सहायता में लगाना परमार्थ। इन दोनों के कमाने में कुछ भी घाटा नहीं है। उनका प्रतिफल किन्हीं दूसरे रूपों में मिलकर रहता है।
कदाचित कहीं से तत्काल अनुदान का प्रतिदान न भी मिले तो भी चिंता जैसी कोई बात नहीं है। मनुष्य बदला चुकाने में असमर्थ रहे अथवा आना-कानी करे तो इसमें गृहीता को ही घाटा पड़ेगा। दाता की पूंजी तो सर्वथा सुरक्षित है। उसका आत्म-संतोष और यश सम्मान तो निश्चित रूप से बढ़ेगा। यह प्रत्यक्ष न होकर परोक्ष है तो भी उनके लाभ प्रकारान्तर से मिलते हैं। यह सामान्य को असामान्य बनाते हैं। इन लाभों को देखते हुए कर्मयोगी कभी घाटे में नहीं पड़ता। उसे अपने सद्भाव प्रदर्शन के लिए पश्चाताप नहीं करना पड़ता।