
अनुशासन और संगठन
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मर्यादाओं को समझना और उनका परिपालन करना उनके लिए अनिवार्य होता है जो अपने को मानवी गरिमा से सुसज्जित अनुभव करते हैं। विचारशीलों को अपनी समस्त क्षमताओं को अनुशासन के अनुबन्धों में बांधना पड़ता है। इसी आधार पर वे अपनी क्षमताओं का सही सदुपयोग करते हुए प्रगति-पथ पर आगे बढ़ते हैं। अपने संकल्पों को सफल बनाने में समर्थ होते हैं।
उच्छृंखलता नटखट बालकों द्वारा अपनाये जाने पर क्षमा की जा सकती है। पर जिनकी आयु बड़ी हो चुकी अथवा जो समझदारी का दावा करते हैं उनके लिए यही उचित है कि अनुशासन में रहें और अपने संबंधित परिकर को अनुशासन बद्ध रखने के लिए प्रमाणित, प्रशिक्षित करें।
सैनिकों का अनुशासन कितना भला लगता है। वे पंक्ति बद्ध चलते हैं। अंग संचालन में समस्वरता रखते हैं। आदेश मिलते ही बिना एक क्षण की देर लगाये उसका परिपालन करते हैं। इससे उस समूह की एकता का भान होता है। उस श्रृंखला का प्रत्येक घटक एक सम्मिलित शक्ति का प्रतीक परिचायक होता है। मेलों में धक्का मुक्की करते चलने वाली और सड़कों पर भेड़ों की तरह बिखरी हुई चलने वाली भीड़ में और सैनिकों की टोली में कितना अन्तर होता है इसे कोई भी व्यक्ति आंखों से देखकर स्थिति का अन्तर समझ सकता है।
अनुशासन का अर्थ है—समस्वरूप क्रमबद्धता। यह जीवन के सभी पक्षों में प्रयुक्त किये जाने योग्य है। समय का अनुशासन सर्वोपरि महत्व का माना जाता है। विचारपूर्वक दिनचर्या बनाई जाय और उस पर निश्चय पूर्वक चला जाय तो यही चौबीस घंटे के दिन का समय किसी को भी प्रगति पथ पर आश्चर्यजनक दूरी तक आगे बढ़ा ले जा सकता है।
अनगढ़ लोग आलस्य प्रमाद में समय गंवाते रहते हैं। जो काम तत्परतापूर्वक किये जाने पर जितने समय में पूरा हो सकता है, प्रमादी लोग उसमें कई गुनी देरी लगाते हैं। आधे-अधूरे मन से ढील-पोल और आलस अपनाते हुए जो काम किये जाते हैं, वे कहीं अधिक देरी में होते हैं और आधे, अधूरे, फूहड़, कुरूप रहते हैं। किन्तु उसी को यदि तत्परता, तन्मयता अपनाते हुए नियत क्रम से नियत समय पर किया जाता रहे तो यह क्रम बद्धता प्रगति और सफलता के ढेर लगा देती है। संसार के प्रगतिशील मनुष्यों में से प्रत्येक ने अपने समय को अनुशासन में बांधा है। क्रमबद्ध काल क्षेप करने का अभ्यास किया है। एक पल को भी व्यर्थ बर्बाद नहीं किया है। मिनटों और घंटों को हीरे मोती की तरह माना और उन्हें बहुमूल्य समझते हुए योजनाबद्ध रूप में निर्धारित कार्यों में नियोजित किया है।
समय की भांति ही अन्यान्य शक्तियों के संबंध में भी उसी प्रकार सोचा जाना चाहिए। विचारों को उच्छृंखल न रहने दिया जाय। शेखचिल्ली जैसी निरर्थक कल्पनायें न करने के लिए मन को अभ्यस्त किया जाय। उसे वही सोचने के लिए बाधित किया जाय जो अभ्यस्त है। सामने प्रस्तुत उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आवश्यक ताना बाना बुनने में जिनका मन लगता है, चिन्तन नियोजित रहता है, वे अपनी बुद्धिमत्ता को अनेक गुना अधिक बड़ा लेते हैं। साथियों की तुलना में कहीं आगे निकल जाते हैं। किन्तु जिनकी कल्पनाएं बे सिर पैर की उड़ाने उड़ती रहती हैं, उन्हें मानसिक क्षमता का अपव्यय करते रहने पर पिछड़ापन ही साथ लगता है। ऐसे व्यक्ति बुद्धिमत्ता के क्षेत्र में काफी पिछड़ जाते हैं।
आहार विहार की नियमितता अपना विशेष महत्व रखती है। आहार की मात्रा यदि सीमित रखी जाय तो उसके लिए पेट के पाचक रस न केवल नियत समय पर रिसने लगते हैं वरन् उनकी मात्रा भी उतनी हो जाती है जिससे पाचन ठीक प्रकार हो सके। जिनके भोजन का समय नियत नहीं रहता, मात्रा भी न्यूनाधिक करते रहते हैं। उनका पाचन−तंत्र इस अनियमितता के कारण भी गड़बड़ा जाता है। भले ही पदार्थों को समझ बूझकर ही क्यों न चुना गया हो। सोने का समय भी नियमित हो जाता है। नींद संबंधी शिकायत उन्हें रहती है जो कभी किसी समय कभी किसी समय सोते जागते रहते हैं।
दफ्तरों, कारखानों, स्कूलों का एक नियमित अनुशासन होता है। उनमें सम्मिलित होने वाले यदि ठीक समय पर पहुंचते हैं, व्यवस्था पूर्वक मन लगाकर काम करते हैं तो उन संस्थानों को भी श्रेय मिलता है, और कार्यकर्त्ताओं की कुशलता भी बढ़ती जाती है। पर जहां अनुशासनहीनता का दौर रहता है, कार्यकर्त्ता समय का ध्यान न रखकर आगे पीछे पहुंचते हैं, आधे अधूरे मन से काम करते हैं, निर्धारित क्रम को बिगाड़ते रहते हैं वहां घाटा ही घाटा पड़ता है। कार्यकर्त्ता भी अयोग्य साबित होते हैं और अपयश के भागी बनते हैं।
जिन परिवारों में पारस्परिक व्यवहार में अनुशासन रहता है। खर्च बजट आमदनी तथा आवश्यकता के साथ ताल मेल बिठाते हुए बनता है। वहां कम आमदनी होने पर भी, बड़ा परिवार होने पर भी सदस्यों के एक तंत्र में बंधे रहने के कारण समूचा ढर्रा सुव्यवस्थित बना रहता है। स्नेह-सद्भाव में कमी नहीं आती और किसी सदस्य को अव्यवस्था का शिकार भी नहीं होना पड़ता। परिवारों का प्रगतिशील होना सुविधा साधनों की अधिकता पर निर्भर नहीं है। वरन् इस बात पर अवलम्बित है कि उनके बीच व्यवस्था और अनुशासन के संबंध में कितनी निष्ठापूर्वक निर्वाह होता है।
सामाजिक अनुशासन नीति, धर्म, कानून, प्रचलन आदि के नाम पर स्थापित किये जाते हैं। जहां उनमें समयानुसार उचित संशोधन होता रहता है, जहां मर्यादाओं के परिपालन में श्रद्धा-विश्वास का समुचित समावेश रहता है, वहां संगठन में कोई कमी नहीं आने पाती। जहां संचालक का आदेश शिरोधार्य होना है वहां सभी एक जुट होकर काम करते हैं, एक दिशा में चलते हैं। वह समाज छोटा और अभाव ग्रस्त होने पर भी सशक्त बनकर रहता है। उसकी क्षमता अव्यवस्थित समुदायों की अपेक्षा कहीं बढ़ी चढ़ी रहती है। समाजों के उत्थान पतन इस बात पर निर्भर रहे हैं कि वे कितनी एकता बनाये रह सके अथवा कितनी फूट फिसाद में निरत होकर अपनी शक्ति का अपव्यय करते रहे। जातियों के इतिहास बने या बिगड़े हैं। संगठित समुदाय उठते और विश्रृंखलित लोग गिरते रहे हैं।
एकता की शक्ति सर्वोपरि मानी जाती है। संघ शक्ति को अन्य सब शक्तियों की तुलना में अधिक समर्थ बताया गया है। वह संगठन भीड़ को इकट्ठा कर लेने से नहीं वरन् एक निष्ठ और अनुशासनबद्ध लोगों के परस्पर एकजुट होने पर ही बन पड़ता है। ऐसे थोड़े से लोग भी कठिन और बड़े काम सरलता पूर्वक कर दिखाते हुए देखे गये हैं। जबकि अपनी-अपनी बात चलाने वाले महत्वाकांक्षी लोग संकीर्ण स्वार्थपरता की परिधि में सोचते रहते हैं। संगठन को बिगाड़ते हैं और जिस डाली पर बैठा गया है उसी को काटने वाले मूर्खों की तरह जमीन पर गिरते हैं। इतना बड़ा घाटा उठाते हैं जिसकी क्षति पूर्ति कदाचित ही कभी हो सके।
उच्छृंखलता नटखट बालकों द्वारा अपनाये जाने पर क्षमा की जा सकती है। पर जिनकी आयु बड़ी हो चुकी अथवा जो समझदारी का दावा करते हैं उनके लिए यही उचित है कि अनुशासन में रहें और अपने संबंधित परिकर को अनुशासन बद्ध रखने के लिए प्रमाणित, प्रशिक्षित करें।
सैनिकों का अनुशासन कितना भला लगता है। वे पंक्ति बद्ध चलते हैं। अंग संचालन में समस्वरता रखते हैं। आदेश मिलते ही बिना एक क्षण की देर लगाये उसका परिपालन करते हैं। इससे उस समूह की एकता का भान होता है। उस श्रृंखला का प्रत्येक घटक एक सम्मिलित शक्ति का प्रतीक परिचायक होता है। मेलों में धक्का मुक्की करते चलने वाली और सड़कों पर भेड़ों की तरह बिखरी हुई चलने वाली भीड़ में और सैनिकों की टोली में कितना अन्तर होता है इसे कोई भी व्यक्ति आंखों से देखकर स्थिति का अन्तर समझ सकता है।
अनुशासन का अर्थ है—समस्वरूप क्रमबद्धता। यह जीवन के सभी पक्षों में प्रयुक्त किये जाने योग्य है। समय का अनुशासन सर्वोपरि महत्व का माना जाता है। विचारपूर्वक दिनचर्या बनाई जाय और उस पर निश्चय पूर्वक चला जाय तो यही चौबीस घंटे के दिन का समय किसी को भी प्रगति पथ पर आश्चर्यजनक दूरी तक आगे बढ़ा ले जा सकता है।
अनगढ़ लोग आलस्य प्रमाद में समय गंवाते रहते हैं। जो काम तत्परतापूर्वक किये जाने पर जितने समय में पूरा हो सकता है, प्रमादी लोग उसमें कई गुनी देरी लगाते हैं। आधे-अधूरे मन से ढील-पोल और आलस अपनाते हुए जो काम किये जाते हैं, वे कहीं अधिक देरी में होते हैं और आधे, अधूरे, फूहड़, कुरूप रहते हैं। किन्तु उसी को यदि तत्परता, तन्मयता अपनाते हुए नियत क्रम से नियत समय पर किया जाता रहे तो यह क्रम बद्धता प्रगति और सफलता के ढेर लगा देती है। संसार के प्रगतिशील मनुष्यों में से प्रत्येक ने अपने समय को अनुशासन में बांधा है। क्रमबद्ध काल क्षेप करने का अभ्यास किया है। एक पल को भी व्यर्थ बर्बाद नहीं किया है। मिनटों और घंटों को हीरे मोती की तरह माना और उन्हें बहुमूल्य समझते हुए योजनाबद्ध रूप में निर्धारित कार्यों में नियोजित किया है।
समय की भांति ही अन्यान्य शक्तियों के संबंध में भी उसी प्रकार सोचा जाना चाहिए। विचारों को उच्छृंखल न रहने दिया जाय। शेखचिल्ली जैसी निरर्थक कल्पनायें न करने के लिए मन को अभ्यस्त किया जाय। उसे वही सोचने के लिए बाधित किया जाय जो अभ्यस्त है। सामने प्रस्तुत उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आवश्यक ताना बाना बुनने में जिनका मन लगता है, चिन्तन नियोजित रहता है, वे अपनी बुद्धिमत्ता को अनेक गुना अधिक बड़ा लेते हैं। साथियों की तुलना में कहीं आगे निकल जाते हैं। किन्तु जिनकी कल्पनाएं बे सिर पैर की उड़ाने उड़ती रहती हैं, उन्हें मानसिक क्षमता का अपव्यय करते रहने पर पिछड़ापन ही साथ लगता है। ऐसे व्यक्ति बुद्धिमत्ता के क्षेत्र में काफी पिछड़ जाते हैं।
आहार विहार की नियमितता अपना विशेष महत्व रखती है। आहार की मात्रा यदि सीमित रखी जाय तो उसके लिए पेट के पाचक रस न केवल नियत समय पर रिसने लगते हैं वरन् उनकी मात्रा भी उतनी हो जाती है जिससे पाचन ठीक प्रकार हो सके। जिनके भोजन का समय नियत नहीं रहता, मात्रा भी न्यूनाधिक करते रहते हैं। उनका पाचन−तंत्र इस अनियमितता के कारण भी गड़बड़ा जाता है। भले ही पदार्थों को समझ बूझकर ही क्यों न चुना गया हो। सोने का समय भी नियमित हो जाता है। नींद संबंधी शिकायत उन्हें रहती है जो कभी किसी समय कभी किसी समय सोते जागते रहते हैं।
दफ्तरों, कारखानों, स्कूलों का एक नियमित अनुशासन होता है। उनमें सम्मिलित होने वाले यदि ठीक समय पर पहुंचते हैं, व्यवस्था पूर्वक मन लगाकर काम करते हैं तो उन संस्थानों को भी श्रेय मिलता है, और कार्यकर्त्ताओं की कुशलता भी बढ़ती जाती है। पर जहां अनुशासनहीनता का दौर रहता है, कार्यकर्त्ता समय का ध्यान न रखकर आगे पीछे पहुंचते हैं, आधे अधूरे मन से काम करते हैं, निर्धारित क्रम को बिगाड़ते रहते हैं वहां घाटा ही घाटा पड़ता है। कार्यकर्त्ता भी अयोग्य साबित होते हैं और अपयश के भागी बनते हैं।
जिन परिवारों में पारस्परिक व्यवहार में अनुशासन रहता है। खर्च बजट आमदनी तथा आवश्यकता के साथ ताल मेल बिठाते हुए बनता है। वहां कम आमदनी होने पर भी, बड़ा परिवार होने पर भी सदस्यों के एक तंत्र में बंधे रहने के कारण समूचा ढर्रा सुव्यवस्थित बना रहता है। स्नेह-सद्भाव में कमी नहीं आती और किसी सदस्य को अव्यवस्था का शिकार भी नहीं होना पड़ता। परिवारों का प्रगतिशील होना सुविधा साधनों की अधिकता पर निर्भर नहीं है। वरन् इस बात पर अवलम्बित है कि उनके बीच व्यवस्था और अनुशासन के संबंध में कितनी निष्ठापूर्वक निर्वाह होता है।
सामाजिक अनुशासन नीति, धर्म, कानून, प्रचलन आदि के नाम पर स्थापित किये जाते हैं। जहां उनमें समयानुसार उचित संशोधन होता रहता है, जहां मर्यादाओं के परिपालन में श्रद्धा-विश्वास का समुचित समावेश रहता है, वहां संगठन में कोई कमी नहीं आने पाती। जहां संचालक का आदेश शिरोधार्य होना है वहां सभी एक जुट होकर काम करते हैं, एक दिशा में चलते हैं। वह समाज छोटा और अभाव ग्रस्त होने पर भी सशक्त बनकर रहता है। उसकी क्षमता अव्यवस्थित समुदायों की अपेक्षा कहीं बढ़ी चढ़ी रहती है। समाजों के उत्थान पतन इस बात पर निर्भर रहे हैं कि वे कितनी एकता बनाये रह सके अथवा कितनी फूट फिसाद में निरत होकर अपनी शक्ति का अपव्यय करते रहे। जातियों के इतिहास बने या बिगड़े हैं। संगठित समुदाय उठते और विश्रृंखलित लोग गिरते रहे हैं।
एकता की शक्ति सर्वोपरि मानी जाती है। संघ शक्ति को अन्य सब शक्तियों की तुलना में अधिक समर्थ बताया गया है। वह संगठन भीड़ को इकट्ठा कर लेने से नहीं वरन् एक निष्ठ और अनुशासनबद्ध लोगों के परस्पर एकजुट होने पर ही बन पड़ता है। ऐसे थोड़े से लोग भी कठिन और बड़े काम सरलता पूर्वक कर दिखाते हुए देखे गये हैं। जबकि अपनी-अपनी बात चलाने वाले महत्वाकांक्षी लोग संकीर्ण स्वार्थपरता की परिधि में सोचते रहते हैं। संगठन को बिगाड़ते हैं और जिस डाली पर बैठा गया है उसी को काटने वाले मूर्खों की तरह जमीन पर गिरते हैं। इतना बड़ा घाटा उठाते हैं जिसकी क्षति पूर्ति कदाचित ही कभी हो सके।