
संयम बरतें सुखी रहें
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गाय कितना ही दूध क्यों न देती हो, यदि उसे फूटे पात्र में दुहा जायगा तो वह नीचे गिरता जायगा। दुहने वाले के कपड़े चिकने हो जायेंगे और जिस जगह वह फैलेगा वहां मक्खियां भिनकने लगेंगी। मनुष्य ने कितनी ही किसी प्रकार की भी शक्ति अर्जित क्यों न की हो, पर यदि उसे संभाल रखने का प्रबन्ध नहीं किया जा सकता तो वह ऐसे ही अस्त-व्यस्त होकर बिखर जायगी और उससे लाभ मिलना तो दूर उलटे हानि उठाने का दुर्भाग्य सामने आवेगा।
असंयमों में इन्द्रिय असंयम को प्राथमिकता दी जाती है। इसका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य से सीधा संबन्ध है। जिह्वा इन्द्रिय असंयमी होने पर चटोरी हो जाती है। चित्र विचित्र स्वादों के लिए लालायित रहती है। प्राकृतिक स्वाद तो हर खाद्य पदार्थ में अपना-अपना है ही। पर ऊपर से नमक-मिर्च, खटाई, मिठाई चिकनाई आदि मिला कर उसे इतना उत्तेजक बना लिया जाता है कि पेट की गुंजायश का ध्यान न रख कर आवश्यकता से अधिक मात्रा में खा लिया जाता है। एक तो मिलावट वाले मसाले, दूसरे उनका तला भुना जाना जायका तो बढ़ाता है पर उतना ही वह दुष्पाच्य होता जाता है। मात्रा अधिक, साथ ही दुष्पाच्य दोनों अवांछनीयताएं मिलने से पेट में कब्ज रहने लगता है। अपच सड़ता है। सड़न विषाक्तता उत्पन्न करती है। वह हानिकारक तथ्य जहां भी अपने लिए जगह पाता है वहीं जम जाता है और अनेकों बीमारियां पैदा करता है। यह क्रम चलते रहने पर पाचन तंत्र गड़बड़ा जाता है। दुर्बलता बढ़ती है। रुग्णता छाई रहती है और समय से बहुत पहले अकाल मृत्यु से मरना पड़ता है।
जिव्हा का एक कार्य बोलना भी है। यदि वाणी में कर्कशता, कठोरता, मिथ्या भाषण, निन्दा चुगली व्यंग्य-उपहास, आदि दोषों का समावेश रहने लगे तो कलह मनोमालिन्य बढ़ता है। मित्रता शत्रुता में बदल जाती है। होना यह चाहिए कि सीमित बोला जाय। तथ्य पूर्ण कहा जाय। अपनी ओर से नम्रता और दूसरों के प्रति सम्मान का भाव जताया जाय। वाणी का असंयम ऐसे दुष्परिणाम उत्पन्न करता है; जिससे अपने पराये हो जाते हैं और बदले में वैसे ही कटु वचन सुनने पड़ते हैं।
कानों से, नाक से, आंख से अपने-अपने स्वादों की मांग होती है। यदि उनकी सरसता पर मुग्ध रहा जाय तो समय की बर्बादी भी होती है, व्यसनी प्रकृति हो जाती है और जो शक्ति इनके द्वारा ज्ञानार्जन जैसे उपयोगी कामों में लगनी चाहिए, वह हेय प्रयोजनों में खपने लगती है।
इन्द्रियों में स्वाद के बाद दूसरी प्रबलता कामेन्द्रियों की मानी जाती है। इसका अतिवाद बरतने पर जीवनी शक्ति का असाधारण रूप से क्षरण होता है। शरीर पोला और मन खोखला हो जाता है। बुद्धि की तीक्ष्णता घट जाती है। स्मरण शक्ति में कमी आ जाती है और मंद-बुद्धि मूर्खों जैसा विचार प्रवाह मस्तिष्क में छाया रहता है। यह काया को क्षीण करने वाला दुर्व्यसन है। संतानोत्पादन में वृद्धि होती है और उसके कारण परिवार की सारी व्यवस्था चरमरा जाती है। पत्नी का स्वास्थ्य पति से भी अधिक गिर जाता है। अनगढ़ परिस्थितियों में पले बच्चे शरीर और मन दोनों ही प्रकार से दुर्बल होते हैं उनमें आवारागर्दी जैसे अनेकों दुर्व्यसन आरम्भ से ही पलने और बढ़ने लगते हैं। इनके द्वारा उत्पन्न समस्यायें उन्हें भुगतनी पड़ती हैं जिनने कामुकता की सीमा का उल्लंघन करके अपने लिए कांटे बोये।
चार प्रमुख संयमों में से इन्द्रिय संयम के अतिरिक्त तीन हैं—(1) अर्थ संयम (2) समय संयम (3) विचार संयम। अर्थ संयम का तात्पर्य है कि औसत नागरिक स्तर का निर्वाह, अपनाना। ‘सादा जीवन उच्च विचार’ का सिद्धान्त व्यवहार में उतारना। विलासिता, प्रदर्शन, व्यसन आदि में कितना ही खर्च किया जा सकता है। कपड़ों की फैशन, जेवरों की सजधज, शौक मौज, आवारागर्दी में वह पैसा चुटकियों में उड़ जाता है जिसे सदुपयोग में लगा कर अपनी, परिवार की योग्यताएं बढ़ाई जा सकती हैं। दूसरों की सहायता हो सकती हैं। फिजूल खर्ची के दुर्व्यसन में फंसे हुए व्यक्ति आर्थिक तंगी भुगतते और कर्जदार रहते हैं। बचत के नाम पर ऐसा कुछ छोड़ नहीं पाते जो बुढ़ापे में काम आये। आश्रितों की गाड़ी पार लगाये। मितव्ययिता ऐसा सद्गुण है जिसके सहारे व्यक्ति अनेक दोष दुर्गुणों से बचा रहता है और आड़े समय में किसी के सामने हाथ नहीं पसारता।
समय संयम का तात्पर्य है एक भी क्षण व्यर्थ के कामों में खर्च न होने देना। व्यस्त दिनचर्या बनाकर योग्यता बढ़ाने वाले, उपार्जन की आवश्यकता पूरी करने वाले, जन कल्याण के कामों में निरत रहना। संसार के प्रगतिशील मनुष्यों में से प्रत्येक ने समय का श्रेष्ठतम सदुपयोग किया है। ठाली समय गंवाने पर कुचेष्टाएं ही बन पड़ती हैं। ‘‘खाली दिमाग शैतान की दुकान’’ वाली उक्ति में बहुत कुछ तथ्य है। निठल्ले समय में शैतानी ही सूझती रहती है। बुद्धिमानी इसी में है कि जीवन सम्पदा को समय के हीरे-मोतियों से गुंथी हुई कड़ी समझा जाय और उसके छोटे से छोटे भाग को भी सत्प्रयोजनों में लगाया जाय।
शरीर की समर्थता रक्त की शुद्धता और बहुलता पर निर्भर है। मस्तिष्क की सम्पदा विचार है। विचार हर घड़ी उठते रहते हैं, पर यदि उन पर नियंत्रण न रखा जाय तो उनका स्तर हेय ही बना रहेगा। यह स्वाभाविक गति है। पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति हर पदार्थ को ऊपर से नीचे खींचती है। पतन सरल है, उत्थान कठिन। असंयम सरल है संयम कठिन। नदी का बहाव नीचे की ओर बहता है और अन्ततः अत्यधिक गहरे एवं खारे समुद्र में जा मिलता है। यह क्रम चिन्तन का भी है। उसे लिप्सा लोलुपता, लालसा अपनी ओर खींचती है। क्योंकि तात्कालिक सरसता उन्हीं में दीखती है। इसलिए सहज रुझान उसी दिशा में चल पड़ता है। किन्तु यदि ऊंची दिशा में चलना हो तो उसके लिए पर्वतारोहण जैसी व्यवस्था बनानी तथा हिम्मत जुटानी पड़ती है।
अनुकरण मनुष्य का स्वभाव है। बहुलता पतनोन्मुख लोगों की ही है। चारों ओर उन्हीं के उदाहरण फैले हुए दीख पड़ते हैं। साथ ही यह भी प्रतीत होता है कि जिनने पतन को अपनाया वे हाथों हाथ लाभ उठाने की शेखी भी बघारते और चतुरता भी बखानते हैं। इन उदाहरणों का प्रभाव सामान्यजनों पर यही पड़ता है कि जब इतने लोग स्वार्थ सिद्धि में लगे हुए हैं, हाथों हाथ लाभ उठा रहे हैं तो हमें भी क्यों न उसी मार्ग पर चलना चाहिए। यही है वह तर्क जो मनुष्य को सहज सुहाते और अपनी राह पर घसीटते हैं। इसलिए अधिकांश लोग असंयम अपनाते और पतन के मार्ग पर चलते हैं। पीछे भले ही उन्हें उसके दुष्परिणाम भुगतने पड़ें। तात्कालिक लाभ की बात सोचकर चिड़ियां और मछलियां जाल में फंस कर अपनी जान गंवाती हैं। पतंगे दीपक पर जल मरते हैं। सांप और हिरन वीणा की मधुर तान सुनकर पकड़े जाते हैं। असंयम अपनाने पर तत्काल दीखने वाला आकर्षण भी ऐसा ही है जो मनुष्य को अपने जाल में फंसा लेता है और साथ ही उस कुमार्गगामिता का प्रतिफल भी अगले ही दिनों दिखाना आरम्भ करता है।
कर्म का मूल विचार है। जो जैसा सोचता है वह वैसा बन जाता है। ललक लिप्साएं पहले मस्तिष्क में प्रवेश करती हैं। सरस कल्पनाएं बन कर घटाओं की तरह मानसिक आकाश में उमड़ती हैं। कुछ ही समय में वे घनीभूत होकर बरसने लगती हैं। कर्म के रूप में उनका परिणाम प्रकट होता है। मनःक्षेत्र असंयम से घिर जाने पर गुण-कर्म-स्वभाव सब उसी ढांचे में ढलने लगते हैं। व्यक्तित्व का स्वरूप ही ऐसा बन जाता है जिसमें हेय विचारों को हेय कार्यों में परिणत होते हुये देखा जा सके। अधिकांश लोग मानसिक असंयम अपनाते और कुकर्मों के गर्त में गिरते हैं।
जिन्हें उत्कर्ष के मार्ग पर चलना है, उन्हें सर्व प्रथम अपने विचारों का परिमार्जन करना होता है। चिन्तन में, दृष्टिकोण में जो क्षुद्रता बस गई है उसका आदि से अन्त तक परिमार्जन करना होता है। कुविचारों को आदर्शवादिता की बुहारी से बुहारना पड़ता है। तभी वे कर्म बन पड़ते हैं। जो ऊंचा उठाते और सर्वतोमुखी अभ्युदय के लक्ष्य तक पहुंचाते हैं।
असंयमों में इन्द्रिय असंयम को प्राथमिकता दी जाती है। इसका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य से सीधा संबन्ध है। जिह्वा इन्द्रिय असंयमी होने पर चटोरी हो जाती है। चित्र विचित्र स्वादों के लिए लालायित रहती है। प्राकृतिक स्वाद तो हर खाद्य पदार्थ में अपना-अपना है ही। पर ऊपर से नमक-मिर्च, खटाई, मिठाई चिकनाई आदि मिला कर उसे इतना उत्तेजक बना लिया जाता है कि पेट की गुंजायश का ध्यान न रख कर आवश्यकता से अधिक मात्रा में खा लिया जाता है। एक तो मिलावट वाले मसाले, दूसरे उनका तला भुना जाना जायका तो बढ़ाता है पर उतना ही वह दुष्पाच्य होता जाता है। मात्रा अधिक, साथ ही दुष्पाच्य दोनों अवांछनीयताएं मिलने से पेट में कब्ज रहने लगता है। अपच सड़ता है। सड़न विषाक्तता उत्पन्न करती है। वह हानिकारक तथ्य जहां भी अपने लिए जगह पाता है वहीं जम जाता है और अनेकों बीमारियां पैदा करता है। यह क्रम चलते रहने पर पाचन तंत्र गड़बड़ा जाता है। दुर्बलता बढ़ती है। रुग्णता छाई रहती है और समय से बहुत पहले अकाल मृत्यु से मरना पड़ता है।
जिव्हा का एक कार्य बोलना भी है। यदि वाणी में कर्कशता, कठोरता, मिथ्या भाषण, निन्दा चुगली व्यंग्य-उपहास, आदि दोषों का समावेश रहने लगे तो कलह मनोमालिन्य बढ़ता है। मित्रता शत्रुता में बदल जाती है। होना यह चाहिए कि सीमित बोला जाय। तथ्य पूर्ण कहा जाय। अपनी ओर से नम्रता और दूसरों के प्रति सम्मान का भाव जताया जाय। वाणी का असंयम ऐसे दुष्परिणाम उत्पन्न करता है; जिससे अपने पराये हो जाते हैं और बदले में वैसे ही कटु वचन सुनने पड़ते हैं।
कानों से, नाक से, आंख से अपने-अपने स्वादों की मांग होती है। यदि उनकी सरसता पर मुग्ध रहा जाय तो समय की बर्बादी भी होती है, व्यसनी प्रकृति हो जाती है और जो शक्ति इनके द्वारा ज्ञानार्जन जैसे उपयोगी कामों में लगनी चाहिए, वह हेय प्रयोजनों में खपने लगती है।
इन्द्रियों में स्वाद के बाद दूसरी प्रबलता कामेन्द्रियों की मानी जाती है। इसका अतिवाद बरतने पर जीवनी शक्ति का असाधारण रूप से क्षरण होता है। शरीर पोला और मन खोखला हो जाता है। बुद्धि की तीक्ष्णता घट जाती है। स्मरण शक्ति में कमी आ जाती है और मंद-बुद्धि मूर्खों जैसा विचार प्रवाह मस्तिष्क में छाया रहता है। यह काया को क्षीण करने वाला दुर्व्यसन है। संतानोत्पादन में वृद्धि होती है और उसके कारण परिवार की सारी व्यवस्था चरमरा जाती है। पत्नी का स्वास्थ्य पति से भी अधिक गिर जाता है। अनगढ़ परिस्थितियों में पले बच्चे शरीर और मन दोनों ही प्रकार से दुर्बल होते हैं उनमें आवारागर्दी जैसे अनेकों दुर्व्यसन आरम्भ से ही पलने और बढ़ने लगते हैं। इनके द्वारा उत्पन्न समस्यायें उन्हें भुगतनी पड़ती हैं जिनने कामुकता की सीमा का उल्लंघन करके अपने लिए कांटे बोये।
चार प्रमुख संयमों में से इन्द्रिय संयम के अतिरिक्त तीन हैं—(1) अर्थ संयम (2) समय संयम (3) विचार संयम। अर्थ संयम का तात्पर्य है कि औसत नागरिक स्तर का निर्वाह, अपनाना। ‘सादा जीवन उच्च विचार’ का सिद्धान्त व्यवहार में उतारना। विलासिता, प्रदर्शन, व्यसन आदि में कितना ही खर्च किया जा सकता है। कपड़ों की फैशन, जेवरों की सजधज, शौक मौज, आवारागर्दी में वह पैसा चुटकियों में उड़ जाता है जिसे सदुपयोग में लगा कर अपनी, परिवार की योग्यताएं बढ़ाई जा सकती हैं। दूसरों की सहायता हो सकती हैं। फिजूल खर्ची के दुर्व्यसन में फंसे हुए व्यक्ति आर्थिक तंगी भुगतते और कर्जदार रहते हैं। बचत के नाम पर ऐसा कुछ छोड़ नहीं पाते जो बुढ़ापे में काम आये। आश्रितों की गाड़ी पार लगाये। मितव्ययिता ऐसा सद्गुण है जिसके सहारे व्यक्ति अनेक दोष दुर्गुणों से बचा रहता है और आड़े समय में किसी के सामने हाथ नहीं पसारता।
समय संयम का तात्पर्य है एक भी क्षण व्यर्थ के कामों में खर्च न होने देना। व्यस्त दिनचर्या बनाकर योग्यता बढ़ाने वाले, उपार्जन की आवश्यकता पूरी करने वाले, जन कल्याण के कामों में निरत रहना। संसार के प्रगतिशील मनुष्यों में से प्रत्येक ने समय का श्रेष्ठतम सदुपयोग किया है। ठाली समय गंवाने पर कुचेष्टाएं ही बन पड़ती हैं। ‘‘खाली दिमाग शैतान की दुकान’’ वाली उक्ति में बहुत कुछ तथ्य है। निठल्ले समय में शैतानी ही सूझती रहती है। बुद्धिमानी इसी में है कि जीवन सम्पदा को समय के हीरे-मोतियों से गुंथी हुई कड़ी समझा जाय और उसके छोटे से छोटे भाग को भी सत्प्रयोजनों में लगाया जाय।
शरीर की समर्थता रक्त की शुद्धता और बहुलता पर निर्भर है। मस्तिष्क की सम्पदा विचार है। विचार हर घड़ी उठते रहते हैं, पर यदि उन पर नियंत्रण न रखा जाय तो उनका स्तर हेय ही बना रहेगा। यह स्वाभाविक गति है। पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति हर पदार्थ को ऊपर से नीचे खींचती है। पतन सरल है, उत्थान कठिन। असंयम सरल है संयम कठिन। नदी का बहाव नीचे की ओर बहता है और अन्ततः अत्यधिक गहरे एवं खारे समुद्र में जा मिलता है। यह क्रम चिन्तन का भी है। उसे लिप्सा लोलुपता, लालसा अपनी ओर खींचती है। क्योंकि तात्कालिक सरसता उन्हीं में दीखती है। इसलिए सहज रुझान उसी दिशा में चल पड़ता है। किन्तु यदि ऊंची दिशा में चलना हो तो उसके लिए पर्वतारोहण जैसी व्यवस्था बनानी तथा हिम्मत जुटानी पड़ती है।
अनुकरण मनुष्य का स्वभाव है। बहुलता पतनोन्मुख लोगों की ही है। चारों ओर उन्हीं के उदाहरण फैले हुए दीख पड़ते हैं। साथ ही यह भी प्रतीत होता है कि जिनने पतन को अपनाया वे हाथों हाथ लाभ उठाने की शेखी भी बघारते और चतुरता भी बखानते हैं। इन उदाहरणों का प्रभाव सामान्यजनों पर यही पड़ता है कि जब इतने लोग स्वार्थ सिद्धि में लगे हुए हैं, हाथों हाथ लाभ उठा रहे हैं तो हमें भी क्यों न उसी मार्ग पर चलना चाहिए। यही है वह तर्क जो मनुष्य को सहज सुहाते और अपनी राह पर घसीटते हैं। इसलिए अधिकांश लोग असंयम अपनाते और पतन के मार्ग पर चलते हैं। पीछे भले ही उन्हें उसके दुष्परिणाम भुगतने पड़ें। तात्कालिक लाभ की बात सोचकर चिड़ियां और मछलियां जाल में फंस कर अपनी जान गंवाती हैं। पतंगे दीपक पर जल मरते हैं। सांप और हिरन वीणा की मधुर तान सुनकर पकड़े जाते हैं। असंयम अपनाने पर तत्काल दीखने वाला आकर्षण भी ऐसा ही है जो मनुष्य को अपने जाल में फंसा लेता है और साथ ही उस कुमार्गगामिता का प्रतिफल भी अगले ही दिनों दिखाना आरम्भ करता है।
कर्म का मूल विचार है। जो जैसा सोचता है वह वैसा बन जाता है। ललक लिप्साएं पहले मस्तिष्क में प्रवेश करती हैं। सरस कल्पनाएं बन कर घटाओं की तरह मानसिक आकाश में उमड़ती हैं। कुछ ही समय में वे घनीभूत होकर बरसने लगती हैं। कर्म के रूप में उनका परिणाम प्रकट होता है। मनःक्षेत्र असंयम से घिर जाने पर गुण-कर्म-स्वभाव सब उसी ढांचे में ढलने लगते हैं। व्यक्तित्व का स्वरूप ही ऐसा बन जाता है जिसमें हेय विचारों को हेय कार्यों में परिणत होते हुये देखा जा सके। अधिकांश लोग मानसिक असंयम अपनाते और कुकर्मों के गर्त में गिरते हैं।
जिन्हें उत्कर्ष के मार्ग पर चलना है, उन्हें सर्व प्रथम अपने विचारों का परिमार्जन करना होता है। चिन्तन में, दृष्टिकोण में जो क्षुद्रता बस गई है उसका आदि से अन्त तक परिमार्जन करना होता है। कुविचारों को आदर्शवादिता की बुहारी से बुहारना पड़ता है। तभी वे कर्म बन पड़ते हैं। जो ऊंचा उठाते और सर्वतोमुखी अभ्युदय के लक्ष्य तक पहुंचाते हैं।