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Books - धर्म के दस लक्षण और पंचशील

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


मौलिक अधिकारों की मांग उभरे

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स्वतंत्रता के प्रति आस्था रखना, पंचशील का तीसरा चरण है। मनुष्य के कुछ मौलिक सार्वभौम अधिकार हैं जैसे (1) वाणी की स्वतंत्रता (2) लेखनी की स्वतंत्रता। इन्हीं विचारों की अभिव्यक्ति के सम्बन्ध में अपने अधिकार प्रकट कर सकना कहते हैं। धार्मिक स्वतंत्रता अर्थात् इच्छानुसार जिस भी धर्म में आस्था हो उसे अपना सकना। मतदान की स्वतंत्रता अर्थात् नागरिक के अधिकारों का समान रूप से उपयोग कर सकना। जाति और लिंग के आधार पर किसी को छोटा बड़ा समझने या उस स्थिति में रहने के लिए विवश करना भी एक प्रकार की परतंत्रता है। नर नारी परस्पर सहयोग पूर्वक साथ रहें—यह उनकी इच्छा पर निर्भर रहना चाहिए, कोई किसी को दास दासी की तरह बाधित रहने के लिए विवश न करे।मध्यकाल के अंधकार युग में सामन्ती व्यवस्था जिन दिनों चल रही थी, उन दिनों समर्थ लोग असमर्थों को अपनी इच्छानुसार चलाते थे। उन्हें पशुओं की तरह प्रतिबन्धित जीवन जीना पड़ता था। ‘‘जिसकी लाठी-तिसकी भैंस’’ वाला जंगली कानून चलता था। जिस प्रकार मनुष्य पशुओं को पालते उनकी शरीर सम्पदा का लाभ उठाते हैं वैसा ही व्यवहार समर्थ जन असमर्थों के साथ करते थे। उन्हें न विरोध करने का अवसर मिलता था, न अपनी कठिनाई बताने का। अनीति को मिटाने, जूझने के प्रयास में वे असफल ही रहते थे। यह सिलसिला लम्बी अवधि तक चला। दुर्बलों को असंगठितों को, असंगठित जनों के समर्थकों को विविध विधि अनाचार सहने पड़े। तब इन दुर्व्यवहारों को सामाजिक मान्यता भी मिली हुई थी। पति का अधिकार था कि पत्नी से चाहे जैसा व्यवहार करे। उसे चाहे जिस स्थिति में रहने के लिए विवश करे। परित्याग कर दे अथवा मार भी डाले। नारी कुछ कर नहीं सकती थी। विरोध की उसमें हिम्मत न थी। दूसरों को इसमें दखल देने का अधिकार न था। ऐसी दशा में विवशता को शिरोधार्य करते रहने के अतिरिक्त असमर्थों असंगठितों के पास कोई चारा भी न था। जो भोगना पड़ता था, उसे भाग्य विधान कह कर अनदेखा किया जाता था। यही भारत की उन दिनों मानसिकता थी।
दास दासी प्रथा उन्हीं दिनों धड़ल्ले से चली थी। समर्थ अपने शस्त्र बल, शरीर बल और सैन्य बल के सहारे किन्हीं को भी बलात् पकड़ लेते थे। उन्हें बन्धनों में बांध कर इच्छानुसार चलाते, बेचते, खरीदते, दान देते रहते थे।
प्रजा पर राजा का अधिकार था। प्रजाजन राजा की सम्पत्ति माने जाते थे। उनकी सम्पदा को जब चाहे तब जब्त कर सकते थे या जितना भाग लेना चाहे, उतना कर रूप में जबरदस्ती वसूल कर लेते थे।
इसे आतंक का राज कह सकते हैं। राजा सामन्त, सेनापति, अमीर जागीरदार, जमींदार, साहूकार अपने चंगुल में फंसे हुए लोगों के साथ चाहें जैसा व्यवहार करते थे। न्याय भाव जैसी कोई बात न थी। राजा का धर्म ही प्रजा का धर्म बन जाता था व्यक्तियों को स्वेच्छा पूर्वक अपने लिए धर्म चुनने या बदलने छोड़ने जैसा अधिकार न था इस दयनीय स्थिति में मनुष्य जाति के दुर्बल पक्षों को पिछले दिनों लम्बी अवधि तक रहना पड़ा है।
समय न करवट बदली। युग बदला, विवेक जगा और शक्ति सामन्तों के हाथ से निकलकर सामान्य जनों के हाथ आई। इसमें अनेक प्रकार के परिवर्तन सामने आये। इनमें सबसे बड़ी बात हुई—मानवी मौलिक अधिकारों को मान्यता मिलना। न्याय और औचित्य को प्रश्रय मिला। असमर्थों में बदला लेने की या अपने बलबूते चलती हुई मनमर्जी को रोक सकने की प्रत्यक्ष सामर्थ्य तो थी नहीं, तो भी लोक चेतना ने ऐसा वातावरण बनाया जिससे विवेक और न्याय को औचित्य की आवश्यकता समझी और समझाई जाने लगी। प्रजाजनों के संख्याबल के औचित्य को अपनाए जाने का दबाव पड़ने से हर क्षेत्र में हर देश में ऐसी, हवा बही कि न कोई मुकदमा चला न कोई संघर्ष हुआ। पर न्याय के समर्थकों की एक समर्थ सेना सर्वत्र उठ खड़ी हुई और उसने अपने ढंग से संघर्ष भी किये और परिवर्तनों का भी माहौल बनाया।
इन दिनों मनुष्य के मौलिक अधिकारों का उपयोग कर सकने के प्रचलन चल पड़े हैं। वाणी की, लेखनी की, अभिव्यक्ति की धर्म की, मानवी समता की मान्यतायें मिल गई हैं, मिल रही हैं। मतदान द्वारा सरकारें बनाने का भी प्रवाह सर्वत्र चलता देखा जा सकता है। जिनकी दाढ़ों में आधिपत्य का चस्का लगा हुआ है वे उस जनाधिकार को निरस्त करने के भी कम प्रयत्न नहीं कर रहे हैं। सफलता को असफलता की दिशा में घसीटने के लिए प्रतिक्रियावादी कम जोर नहीं लगा रहे हैं। फिर भी बहती प्रचण्ड धारा को देर तक रोके रह सकना किसी के भी बस की बात नहीं है दक्षिण अफ्रीका के नस्लवादी संघर्ष को इस परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है।
सर्व साधारण को युग चेतना के उभार और अवलोकन से परिचित कराया जा रहा है कि मनुष्य मात्र को समानता अपनाते हुए सहयोग पूर्वक रहना चाहिए। ‘‘जियो और जीने दो’’—का सिद्धान्त अपना चाहिए, अपने को किसी से बढ़कर नहीं मानना चाहिए और किन्हीं की विवशताओं का अनुचित लाभ नहीं उठाना चाहिए। परम्पराओं की दुहाई देकर पिछली भूलों पर चलते रहे अनौचित्यों को पूर्ववर्ती प्रथा प्रचलन कहकर युग चेतना के कार्य में अवरोध उत्पन्न नहीं करना चाहिए।
जहां अनौचित्य की भूली बिसरी स्मृतियों को फिर से कार्यान्वित करने के लिए प्रतिगामी प्रयास किये जा रहे हों वहां आगे बढ़कर रोकथाम करनी ही चाहिए। अनौचित्य का विरोध किया जाना चाहिए। उसे असफल बनाने के लिए असहयोग से लेकर संघर्ष तक के यथा संभव कदम उठाने चाहिए। दुर्बल पक्ष अनीति का शिकार हो रहा हो तो उसे साहस प्रदान करना चाहिए तथा समर्थन भी। समता और एकता का सार्वभौम प्रचलन भली प्रकार स्थिर हो सके और अपने पैर इतनी मजबूती से जमा सके कि उन्हें उखाड़ सकना किसी के लिए भी संभव न हो सके। इसी के निमित्त अपना नैतिक और क्रियात्मक प्रत्यक्ष सहयोग प्रदान करना चाहिए। यही है समय की पुकार युग की मांग। औचित्य की गुहारे। उसे भली प्रकार सुना व समझा जाना चाहिए।
मानवीय अधिकारों के हनन में जहां अत्याचारी वर्गों की ज्यादतियां काम करती रही हैं, वहां एक कारण यह भी रहा है कि उत्पीड़ितों ने बहु संख्यक होते हुए भी अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता प्रकट नहीं की उस मान को, उस गौरव को भी उनने भुला दिया। यदि उन्होंने अपने को, अपनी शक्ति को मौलिक अधिकार भावना को अपने अन्दर जगाया होता तो इतने भी से अनाचारियों के सीने ठनके होते और भावी विद्रोह की संभावना को समझते हुए सुधार परिवर्तन की नीति अपनाई होती। भले ही वह धीमी रही होती, पर दबाव तो उससे निश्चित रूप से हलका हुआ होता।
संसार के विभिन्न भागों पर राजतन्त्र का साम्राज्यवाद का, पूंजीवाद का बोलबाला रहा है। इसका अनौचित्य उत्पीड़क और पीड़ित दोनों ही समझते रहे हैं। पर लम्बे समय तक यथास्थिति बनी रही। कारण एक ही था कि शोषित वर्ग ने या तो आवाज उठाई ही नहीं, या उठी तो वह धीमी एवं असंगठित थी। जैसे ही साहस उभरा और अनीति के प्रति विद्रोह पर उतारू हुआ, वहां परिस्थितियां तुरन्त बदलीं। भले ही आरम्भ में शोषकों ने दमन का आश्रय लिया हो। पर वह दबाव बहुत समय तक जारी नहीं रह सका। दुर्बल होते हुए भी नीति पक्ष जीता और अपने अधिकार वापस लेकर रहा। जागरूकों को सफलता मिल चुकी है। आवश्यकता इस बात की है कि मानवीय मौलिक अधिकारों की यथार्थता एवं आवश्यकता से जन-जन को अवगत कराया जाय। इसी प्रकार शोषित जागेंगे और शोषक दबेंगे।
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