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Books - धर्म पथ

Media: TEXT
Language: HINDI
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धर्मो रक्षति रक्षितः

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नवीन सभ्यता की यह आवाज है कि हमें अपनी उन्नति करने के लिए आर्थिक और बौद्धिक उन्नति करनी चाहिए, संगठन करना चाहिए। धर्म मार्ग की कड़ी आलोचना करते हुए कहा जाता है कि यह तो अफीम की गोली है, जिसे खाकर मनुष्य अपनी बुद्धि खो बैठता है। यह तो पंडे पुजारियों का पेशा है, जो लोगों को बहकाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं।

उपरोक्त विचार किसी एक मनुष्य के नहीं हैं, वरन् एक तीव्र विचारधारा है, जो दिन-दिन प्रबल होती जा रही है। युग का प्रवाह या नास्तिकों का प्रलाप कहकर इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। हमें विचार करना है कि इन बातों में कितना तथ्य है?

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से जब हम बारीकी के साथ इस संबंध में विचार करने बैठते हैं तो प्रतीत होता है कि इस युग की धार्मिक बगावत वस्तुतः धर्म तत्त्व के विरुद्ध नहीं, वरन उसके साथ मिल-जुल गए पाखंड के विरुद्ध है। हिंदू जाति धर्म परायण रही है और उसमें उदारता की मात्रा का समावेश अत्यधिक रहा है, इसलिए हिंदू धर्म के अंदर अनेक पंथ, उपपंथ बढ़ते रहे हैं और सब प्रकार हितकर-अहितकर रीति-रिवाजें पनपती रहीं हैं। देवदासी प्रथा (लड़कियों को नाचने के लिए मंदिरों में दान करना) सखी संप्रदाय (भक्ति के नाम पर पुरुषों का स्त्री रूप बनाना) जीव बलि प्रथा (पशु-पक्षी तथा मनुष्यों तक की बलि देना) तांत्रिकों के विकृत भैरवी चक्र (मद्य, मांस, मैथुन, धन संग्रह आदि में ही लिप्त रहना) जैसे कार्य जब धर्म का आवरण ओढ़कर फलें-फूलें तो स्वाभाविक है कि उनकी गंदगी उस तालाब को ही गंद कर दे, जिनमें से उनका उद्भव होता है। शताब्दियों का यह घपला अब धर्म के शुद्ध स्वरूप में मिलकर कुछ ऐसी विकृत दशा में सर्व-साधारण के सामने आता है कि स्थूल-दृष्टि डालते ही उससे घृणा होने लगती है। मंदिर मठों में होने वाले दुराचार, साधुओं का वेश धारण किए हुए असंख्य हरामखोर बदमाश, धर्म पुण्य के नाम पर स्वार्थ-साधन के लिए अज्ञानी जनता से हड़पी जाने वाली धन राशि, ज्योतिष, भविष्य कथन आदि के नाम पर होने वाला भ्रम प्रचार, सांप्रदायिक कलह, दंभियों के संगठित षडयंत्र, जब नग्न रूप में जनता के सामने आते हैं तो उनके अप्रबुद्ध मस्तिष्कों में धर्म का यही चित्र अंकित हो जाता है और यह बिल्कुल स्वाभाविक है कि हर विचारशील एवं सहृदय व्यक्ति उनसे घोर घृणा करे। धर्म के विरुद्ध उठी हुई इस युग की प्रचंड बगावत के आदि कारण वे पाखंड हैं, जिन्होंने धर्म के पवित्र गंगाजल को गंदली कीचड़ का रूप दे दिया है। पेट में बगावत खड़ी होती है, दस्त लगते हैं तो दूषित भाग के साथ श्रेष्ठ तत्व भी बाहर फेंक दिए जाते हैं, सूखे के साथ गीला भी जल जाता है, गेहूं के साथ घुन भी पिस जाता है। दुनिया के तीन चौथाई से अधिक मनुष्यों के मस्तिष्क पर अधिकार जमाए हुए धर्म विरोधी भावनाओं का यथार्थ कारण यही है।

धर्म के शुद्ध स्वरूप में बगावत के लिए रत्ती भर भी स्था नहीं है। विरोध उसमें हो नहीं सकता। मनुष्य जाति की सामाजिक व्यवस्था को ठीक बनाए रहने वाली श्रृंखला केवल धर्म ही हो सकता है। धार्मिक भावनाएं मनुष्य के हृदय में स्वार्थ का त्याग और परोपकार वृत्ति का बीजारोपण करती हैं। संसार के समस्त कलह और दुख-द्वंद्वों का कारण स्वार्थ की अनुचित साधना है। धर्म से विमुख होकर मनुष्य स्वार्थ सिद्धि को ही अपना इष्ट बना रहे हैं। संसार में वस्तुएं एक निश्चित मात्रा में हैं, वे उतनी रहती हैं, जितनी से प्राणियों का उचित पालन-पोषण हो सके। यदि सभी अपने-अपने भाग का उपभोग करें तो विश्व में शांति स्थापित रहेगी, समाज की सारी व्यवस्था बड़ी सुविधापूर्वक चलती रहेगी, किंतु मनुष्य स्वभाव में अक्सर पशुता का उदय होता है, वह अपने लिए बहुत चाहता है और दूसरों को कुछ नहीं देना चाहता है। दूसरों को कष्टकारक स्थिति में धकेलकर अपने लिए अधिक सुख-सुविधाएं एकत्रित करता है, फलस्वरूप दूसरे लोग अभाव से दुखी रहते हैं और जब उनमें प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है, तो प्रतिशोध लेने के लिए तत्पर हो जाते हैं, तदनुसार कलह का सूत्रपात होता है। हम समाज के अधिकांश भाग को दुखी पाते हैं और उसमें कलह के बड़े नृशंस दृश्य देखते हैं। सारा संसार इन हाहाकारों से पीड़ित हो रहा है। सच्चे धर्म से विमुख होने का यही तो निश्चित परिणाम है। धर्म की विशद विवेचना का तत्त्वज्ञान यह है कि ‘‘मनुष्य अपनी सुविधाओं का दूसरों के सुख के लिए खुशी-खुशी परित्याग करे।’’ यह भावनाएं जितनी-जितनी अधिक दृढ़ होती जाती हैं, उतना ही मनुष्य उदार होता जाता है, अपने सुख की अपेक्षा दूसरों की सुविधा का उसे विशेष ध्यान रहता है। आनंद एक कल्पित चीज है, उसका आरोपण जिस वस्तु में कर लिया जाए, उसी में वह प्राप्त होने लगता है। स्वार्थ साधन में आनंद आता है, पर जब उसका आरोपण परमार्थ में कर लिया, तो परमार्थ में भी स्वार्थ के समान ही आनंद आने लगता है। वह आनंद नामक पदार्थ जिसकी प्राप्ति के लिए स्वार्थ-साधन किया गया था, जब धार्मिक भावनाओं के कारण परमार्थ में भी प्राप्त होने लगता है, तो वह समस्या भी हल होने लगती है, जिसके कारण संसार नरक बना हुआ है। इतिहास में ऐसे उदाहरण हैं कि कुछ शासकों की स्वार्थ भावनाएं राज्य के लिए अपने सगे भाईयों तक की हत्याएं कराती हैं। इसके विपरीत जब राम और भरत दोनों ही त्याग की भावनाओं से परिपूर्ण होते हैं, तो वह राज्य तुच्छ वस्तु बन जाता है, दोनों के जीवन में आनंद का अविरल स्रोत फूट निकलता है। एक भाई राज्य को दूसरे भाई को खुशी-खुशी देना चाहता है, दूसरा उसे उसी के लिए अर्पण करता है। कैसा स्वर्गीय दृश्य है? जिन पति-पत्नियों में, मित्र-मित्र में इस प्रकार की भावनाओं के कुछ अंश दिख रहे पड़ते हैं, वहां कितनी पवित्र प्रेम की धारा बह निकलती है। शांति और सुव्यवस्था का मेरुदंड यही विचारधारा है, जिसे धार्मिक भावना के नाम से पुकारा जाता है।

नवीन सभ्यता धार्मिक आडंबरों की बगावत करते हुए उसके सत्य तत्व का भी बहिष्कार कर देती है, उसका मुंह त्याग की अपेक्षा स्वार्थ की ओर मुड़ जाता है। तदनुसार कलह की दारुण विभीषिकाएं सामने आ खड़ी होती हैं। जहां स्वार्थ की प्रधानता है, वहां आर्थिक उन्नति, बौद्धिक विकास और संगठन कुछ भी काम नहीं दे सकते। जरा आज की अंतर्राष्ट्रीय स्थिति पर दृष्टिपात कीजिए। राष्ट्र संघ जैसा महान संगठन बेचारा एक झोंके में उड़ गया। धन-धान्य से संपन्न राजाओं जैसा जीवन बिताने वाले व्यक्ति आज भूखे मर रहे हैं और गुफाओं में छिपकर अपनी प्राण रक्षा कर रहे हैं, विज्ञान के आश्चर्यजनक आविष्कार करने वाली बुद्धि आज मृत्यु किरणों और जहरीली गैसों का आविष्कार कर रही हैं। स्वार्थ की जितनी अधिकता होती जाएगी, संसार में उतने ही नारकीय दृश्य उपस्थित होते जाएंगे। जिस दिन धर्म की भावनाओं का बिल्कुल लोप हो जाएगा, स्वार्थ का पूर्णता साम्राज्य हो जाएगा, उस दिन सर्पिणी की तरह माताएं अपने बच्चों का मांस पकाकर खाने लगेंगी, बहिनें पशुओं की तरह लज्जा और रिश्ता छोड़कर इंद्रिय परायण हो जाएंगी, मनुष्य शूकरों की तरह एक दूसरे की बोटी नोंच-नोंच डालेंगे।

हे नवीन सभ्यता के अभिमानियो! अपने तर्कों पर पुनः विचार करो, वस्तुस्थिति को पुनः सोचो, अपने कार्यक्रम का पुनः संशोधन करो। यह मार्ग कल्याण का नहीं है, जिस पर तुम प्रवृत्त हो रहे हो, आर्थिक उन्नति, बौद्धिक विकास, संघटन तीनों ही बड़ी सुंदर वस्तुएं हैं, परंतु इनके मूल में धर्म होना चाहिए अन्यथा यह उन्नति विकास की तीक्ष्ण तलवारें ही सिद्ध होंगी। धार्मिक रीति-रिवाज वास्तविक धर्म नहीं हैं। यह तो इसके बाह्य चिन्ह हैं, जो समय-समय पर बदलते रहे हैं और बदलते रहेंगे। इनमें जो विकृतियां आ गई हों, जो अंग सड़ गए हों, उनमें परिवर्तन कर लो, क्योंकि परिवर्तन ही जीवन है, परंतु थोड़े से विकार के कारण सत्य तत्व की ही अवहेलना मत करो। खटमलों के डर से चारपाई का ही परित्याग कर देना बुद्धिमानी नहीं है।
कई बार यह भी सुनने में आता है कि सामाजिक व्यवस्था अच्छे राजप्रबंध से रोकी जा सकती है। उन्हें जानना चाहिए कि व्यवस्था केवल दंड से कायम नहीं रह सकती। हर आदमी के पीछे एक-एक दरोगा लगा दिया जाए तो भी उससे पूरी तरह कानून का पालन नहीं कराया जा सकता। वह कुछ न कुछ तरकीब निकाल ही लेगा, फिर वे दरोगा भी तो उसी समाज में से होंगे। इसलिए धर्म का परिपालन ही एक ऐसी वस्तु हो सकती है, जिसके द्वारा समाज की शांति और व्यवस्था कायम रहे एवं सब लोग प्रेम-भाव और सुख−शांति के साथ रहें, बुद्धिमान विचारकों! दुखों में सुख का आविर्भाव करने वाले इस महान तत्व को नष्ट मत करो, इससे बगावत मत करो! शास्त्र कहता है—‘‘धर्म एक हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः ।’’ धर्म की रक्षा करने से तुम्हारी रक्षा होगी और धर्म के नष्ट होने से तुम भी नष्ट हो जाओगे।
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धर्म पथ
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