धर्म - धारणा की उपेक्षा उसकी विकृतियों के कारण
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मोटी दृष्टि से देखने पर धर्म कोई ऐसी मान्यता प्रतीत होती है, जो देवी-देवताओं को रिझाने या परलोक में स्वर्ग-मुक्ति आदि की उपलब्धियों को प्राप्त करने से संबंधित है। किसी को धार्मिक, धर्मप्रेमी कहा जाता हो, तो समझा जाएगा कि वह व्यक्ति पूजा-पाठों, कथा-पुराण जैसे क्रिया-कलापों में निमग्न रहता होगा और सामान्य उत्तरदायित्वों के प्रति उपेक्षा दिखाता होगा। धर्म चर्चा का प्रसंग जहां चल रहा हो, समझना चाहिए कि वहां परलोक का या कथा पुराणों का ऊहापोह हो रहा होगा।
साधारण मनुष्य की समझ में प्रस्तुत धार्मिकता की उपयोगिता नहीं आती। वह उससे नाक भौं सिकोड़ता है। कारण कि उसे इन तथाकथित धर्मप्रेमियों के चिंतन-चरित्र एवं व्यक्तित्व में ऐसी कोई बात दृष्टिगोचर नहीं होती है कि जिसके आधार पर उनकी किसी भौतिक या आत्मिक प्रगति का पता चलता हो और न उनकी गतिविधियां यही सिद्ध करती हैं कि उस चिंतन को अपनाएं रहकर वे भविष्य में अपना या अपने संबद्ध व्यक्तियों का कोई भला कर सकेंगे।
धर्म के प्रति अवज्ञा बरते जाने का एक कारण यह भी है कि बहुत समय से धर्म शब्द संप्रदायवाद के लिए, मतमतान्तर वाद के लिए प्रयुक्त होता रहा है। प्रथा परंपराओं को संप्रदाय कहते हैं। इनमें कुछ उचित होती हैं, कुछ अनुचित, कुछ उपयोगी, कुछ अनुपयोगी। समय के बदलाव के साथ-साथ कितने ही प्रचलन अनावश्यक हो जाते हैं। सामान्य विवेक-बुद्धि के अनुसार उन्हें सुधारा और बदला जाना चाहिए। टूट-फूट की मरम्मत होती रहती है। उसी प्रकार एक समय की उपयुक्तता दूसरे समय अनुपयुक्त हो जाती है। विवेकशील उनमें सामयिक सुधार-परिवर्तन करते रहते हैं, किंतु कट्टरवादी धार्मिकता पिछले प्रचलनों को ही पूर्वजों की धरोहर और धर्म-मर्यादा मानकर अपनाए रहने के लिए हठ करती है। इसमें हठवाद में औचित्य का विरोध और अनुचित का समर्थन भी भरा रहता है। ऐसी दशा में विवेक की दृष्टि में धार्मिकता अहितकर सिद्ध होती है और उसके प्रति बुद्धिवादी समाज में उपेक्षा एवं अवज्ञा की वृद्धि पाई जाती है।
धर्म के नाम पर मात्र अपने को ही सही और अन्य सबों को गलत मानने की अहंमन्यता पनपती है। हमारे धर्म में सभी दीक्षित हो जाएं, यह अत्युत्साह कभी-कभी धर्मोन्माद के रूप में परिणत होता देखा गया है। धर्म परिवर्तन करने के लिए कत्लेआम हुए हैं और रक्त की नदियां बही हैं। प्रलोभन देकर बहला फुसलाकर दबाव देकर धर्म-परिवर्तन की घटनाएं आए दिन सुनने में आती रहती हैं। सामान्य बुद्धि सोचती है कि जब धर्म के प्रति अत्युत्साह बरतने वालों का यह हाल है तो फिर उसे अपनाने में सर्वसाधारण का क्या हित साधन हो सकता है? धर्मोपदेशकों ने, धर्मध्वजियों ने जिस प्रकार भ्रांतियां फैलाने और भोले लोगों को ठगने का धंधा अपना रखा है, उससे भी धर्म का गौरव किसी विचारशील व्यक्ति की दृष्टि से बढ़ता नहीं है और न उस ओर किसी प्रकार का आकर्षण पैदा होता है। यही कारण है कि मरने के उपरांत किसी सुखद लोक की कल्पना से कुछ वयोवृद्ध कहते हैं, इन बातों के लिए हमें फुरसत कहां? इसका अर्थ यह हुआ कि निठल्ले लोगों के लिए धर्म प्रसंग उपयुक्त हो सकता है।
संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि आज धर्म के संबंध में जनसाधारण की मान्यता ऐसी ही है कि जिसकी उपयोगिता समझ में न आने से सहज ही उस ओर अरुचि होती है, जो उसमें बहुत रस लेते हैं वे या तो धर्म व्यवसाई माने जाते हैं या फिर उन्हें भूला-भटका माना जाता है। धर्म जिसे मानव-जीवन का प्राण कहा जाता है, उसकी ऐसी दुर्गति क्यों हुई? शास्त्र का प्रतिपादन रहा है कि जो धर्म की रक्षा करता है, उसकी रक्षा होती है और जो धर्म को मारता है वह बेमौत मरता है। ऐसा महत्वपूर्ण आधार उपेक्षित इसलिए हो गया है कि उसका वास्तविक स्वरूप एक प्रकार से ओझल ही हो गया और उस स्थान को धर्म विडंबना ने हथिया लिया। मूलतः धार्मिकता, कर्त्तव्य-परायणता, जो वैयक्तिक और सामाजिक उत्तरदायित्वों को मानवीय आदर्शवादिता के आधार पर पूरा करने की प्रेरणा देती है, ऐसी कर्त्तव्य परायणता जिसके प्रकाश में मनुष्य का चिंतन और चरित्र दिन-दिन परिष्कृत होता चलता है।
धार्मिकता को दूसरे शब्दों में शालीनता कहा जा सकता है। इसे अपनाने पर व्यक्तित्व का हर पक्ष उदात्त बनता है। अपनी और पराई अवांछनीयता पर अंकुश लगाने से जिसमें शौर्य उभरता हो और जिसकी प्रेरणा से मनुष्य सत्प्रवृत्तियों को अपनाने के लिए प्राण-पण से प्रयत्न करता हो, वही धार्मिकता सर्वत्र सराही गई है। सदा-सर्वदा उसकी उपयोगिता समझी गई है। उसे व्यक्ति और समाज के लिए हर दृष्टि से हितकर माना गया है। उसी के सहारे प्रगति एवं सुख-शांति के चिरस्थाई आधार खड़े होते हैं। जब धर्म की उपेक्षा होने लगती है तो व्यक्ति पतन के गर्त में गिरता है और समाज का ढांचा चरमराने लगता है। वह असंतुलन देर तक बना रहे तो महाविनाश की घड़ी इस या उस मार्ग के सामने आ खड़ी होती है। ऐसे विषम समय जब कभी आते हैं तो सृष्टा का संतुलन शक्ति का अवतरण होता है और ऐसा प्रवाह उत्पन्न होता है, जिससे असंतुलन को संतुलन में बदला जा सके। अधर्म के नाश और धर्म की स्थापना के लिए अवतार लेते रहने की ईश्वरीय प्रतिज्ञा के पीछे यह कारण है कि अधार्मिकता बढ़ने से कहीं संसार के सामने सर्वनाश का संकट न आ खड़ा हो। धर्म के प्रति दृढ़ रहने के लिए शास्त्रों ने अत्यधिक बल दिया है। आप्तवचनों में जन-साधारण से यही अनुरोध किया जाता है कि जीवन को धर्म-निष्ठा के साथ पूरी तरह जुड़ा रखा जाए। धर्मकृत्यों और धर्मानुष्ठानों का उद्देश्य एक ही है कि उस क्रिया-कलाप को अपनाए रहने से मनुष्य की धर्मप्रवृत्ति जागरूक बनी रहे। ऐसी प्रेरणा हर व्यक्ति के लिए हर दृष्टि से उपयोगी सिद्ध हो। धर्मधारणा के प्रति आकर्षण एवं उत्साह उत्पन्न करने से पूर्व आवश्यक है कि सर्वसाधारण को उसका वास्तविक स्वरूप एवं परिणाम समझाया जाए। यदि धर्म का तथ्य ठीक प्रकार समझा जा सके तो उसे उतना ही उपयोगी समझा जा सकेगा जितना कि विज्ञान को समझा जाता है। मनुष्य की भौतिक आवश्यकताएं विज्ञान के सहारे पूरी होती हैं और भावनात्मक-आंतरिक समस्याओं का समाधान धर्म तत्व की सहायता से होता है। शरीर की तरह यदि आत्मा का भी महत्व समझा जा सके तो शरीर पोषण की तरह यदि आत्मा की आवश्यकता पूरी करने को भी महत्व दिया जा सके तो धर्म का स्वरूप जानने की ही नहीं, उसे अपनाने की फलश्रुतियां भी समझी जा सकेंगी। ऐसी दशा में आज जो धर्म के प्रति अश्रद्धा है वह उलटेगी और सर्वत्र धर्म-परायणता पर बल दिया जाने लगेगा।
साधारण मनुष्य की समझ में प्रस्तुत धार्मिकता की उपयोगिता नहीं आती। वह उससे नाक भौं सिकोड़ता है। कारण कि उसे इन तथाकथित धर्मप्रेमियों के चिंतन-चरित्र एवं व्यक्तित्व में ऐसी कोई बात दृष्टिगोचर नहीं होती है कि जिसके आधार पर उनकी किसी भौतिक या आत्मिक प्रगति का पता चलता हो और न उनकी गतिविधियां यही सिद्ध करती हैं कि उस चिंतन को अपनाएं रहकर वे भविष्य में अपना या अपने संबद्ध व्यक्तियों का कोई भला कर सकेंगे।
धर्म के प्रति अवज्ञा बरते जाने का एक कारण यह भी है कि बहुत समय से धर्म शब्द संप्रदायवाद के लिए, मतमतान्तर वाद के लिए प्रयुक्त होता रहा है। प्रथा परंपराओं को संप्रदाय कहते हैं। इनमें कुछ उचित होती हैं, कुछ अनुचित, कुछ उपयोगी, कुछ अनुपयोगी। समय के बदलाव के साथ-साथ कितने ही प्रचलन अनावश्यक हो जाते हैं। सामान्य विवेक-बुद्धि के अनुसार उन्हें सुधारा और बदला जाना चाहिए। टूट-फूट की मरम्मत होती रहती है। उसी प्रकार एक समय की उपयुक्तता दूसरे समय अनुपयुक्त हो जाती है। विवेकशील उनमें सामयिक सुधार-परिवर्तन करते रहते हैं, किंतु कट्टरवादी धार्मिकता पिछले प्रचलनों को ही पूर्वजों की धरोहर और धर्म-मर्यादा मानकर अपनाए रहने के लिए हठ करती है। इसमें हठवाद में औचित्य का विरोध और अनुचित का समर्थन भी भरा रहता है। ऐसी दशा में विवेक की दृष्टि में धार्मिकता अहितकर सिद्ध होती है और उसके प्रति बुद्धिवादी समाज में उपेक्षा एवं अवज्ञा की वृद्धि पाई जाती है।
धर्म के नाम पर मात्र अपने को ही सही और अन्य सबों को गलत मानने की अहंमन्यता पनपती है। हमारे धर्म में सभी दीक्षित हो जाएं, यह अत्युत्साह कभी-कभी धर्मोन्माद के रूप में परिणत होता देखा गया है। धर्म परिवर्तन करने के लिए कत्लेआम हुए हैं और रक्त की नदियां बही हैं। प्रलोभन देकर बहला फुसलाकर दबाव देकर धर्म-परिवर्तन की घटनाएं आए दिन सुनने में आती रहती हैं। सामान्य बुद्धि सोचती है कि जब धर्म के प्रति अत्युत्साह बरतने वालों का यह हाल है तो फिर उसे अपनाने में सर्वसाधारण का क्या हित साधन हो सकता है? धर्मोपदेशकों ने, धर्मध्वजियों ने जिस प्रकार भ्रांतियां फैलाने और भोले लोगों को ठगने का धंधा अपना रखा है, उससे भी धर्म का गौरव किसी विचारशील व्यक्ति की दृष्टि से बढ़ता नहीं है और न उस ओर किसी प्रकार का आकर्षण पैदा होता है। यही कारण है कि मरने के उपरांत किसी सुखद लोक की कल्पना से कुछ वयोवृद्ध कहते हैं, इन बातों के लिए हमें फुरसत कहां? इसका अर्थ यह हुआ कि निठल्ले लोगों के लिए धर्म प्रसंग उपयुक्त हो सकता है।
संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि आज धर्म के संबंध में जनसाधारण की मान्यता ऐसी ही है कि जिसकी उपयोगिता समझ में न आने से सहज ही उस ओर अरुचि होती है, जो उसमें बहुत रस लेते हैं वे या तो धर्म व्यवसाई माने जाते हैं या फिर उन्हें भूला-भटका माना जाता है। धर्म जिसे मानव-जीवन का प्राण कहा जाता है, उसकी ऐसी दुर्गति क्यों हुई? शास्त्र का प्रतिपादन रहा है कि जो धर्म की रक्षा करता है, उसकी रक्षा होती है और जो धर्म को मारता है वह बेमौत मरता है। ऐसा महत्वपूर्ण आधार उपेक्षित इसलिए हो गया है कि उसका वास्तविक स्वरूप एक प्रकार से ओझल ही हो गया और उस स्थान को धर्म विडंबना ने हथिया लिया। मूलतः धार्मिकता, कर्त्तव्य-परायणता, जो वैयक्तिक और सामाजिक उत्तरदायित्वों को मानवीय आदर्शवादिता के आधार पर पूरा करने की प्रेरणा देती है, ऐसी कर्त्तव्य परायणता जिसके प्रकाश में मनुष्य का चिंतन और चरित्र दिन-दिन परिष्कृत होता चलता है।
धार्मिकता को दूसरे शब्दों में शालीनता कहा जा सकता है। इसे अपनाने पर व्यक्तित्व का हर पक्ष उदात्त बनता है। अपनी और पराई अवांछनीयता पर अंकुश लगाने से जिसमें शौर्य उभरता हो और जिसकी प्रेरणा से मनुष्य सत्प्रवृत्तियों को अपनाने के लिए प्राण-पण से प्रयत्न करता हो, वही धार्मिकता सर्वत्र सराही गई है। सदा-सर्वदा उसकी उपयोगिता समझी गई है। उसे व्यक्ति और समाज के लिए हर दृष्टि से हितकर माना गया है। उसी के सहारे प्रगति एवं सुख-शांति के चिरस्थाई आधार खड़े होते हैं। जब धर्म की उपेक्षा होने लगती है तो व्यक्ति पतन के गर्त में गिरता है और समाज का ढांचा चरमराने लगता है। वह असंतुलन देर तक बना रहे तो महाविनाश की घड़ी इस या उस मार्ग के सामने आ खड़ी होती है। ऐसे विषम समय जब कभी आते हैं तो सृष्टा का संतुलन शक्ति का अवतरण होता है और ऐसा प्रवाह उत्पन्न होता है, जिससे असंतुलन को संतुलन में बदला जा सके। अधर्म के नाश और धर्म की स्थापना के लिए अवतार लेते रहने की ईश्वरीय प्रतिज्ञा के पीछे यह कारण है कि अधार्मिकता बढ़ने से कहीं संसार के सामने सर्वनाश का संकट न आ खड़ा हो। धर्म के प्रति दृढ़ रहने के लिए शास्त्रों ने अत्यधिक बल दिया है। आप्तवचनों में जन-साधारण से यही अनुरोध किया जाता है कि जीवन को धर्म-निष्ठा के साथ पूरी तरह जुड़ा रखा जाए। धर्मकृत्यों और धर्मानुष्ठानों का उद्देश्य एक ही है कि उस क्रिया-कलाप को अपनाए रहने से मनुष्य की धर्मप्रवृत्ति जागरूक बनी रहे। ऐसी प्रेरणा हर व्यक्ति के लिए हर दृष्टि से उपयोगी सिद्ध हो। धर्मधारणा के प्रति आकर्षण एवं उत्साह उत्पन्न करने से पूर्व आवश्यक है कि सर्वसाधारण को उसका वास्तविक स्वरूप एवं परिणाम समझाया जाए। यदि धर्म का तथ्य ठीक प्रकार समझा जा सके तो उसे उतना ही उपयोगी समझा जा सकेगा जितना कि विज्ञान को समझा जाता है। मनुष्य की भौतिक आवश्यकताएं विज्ञान के सहारे पूरी होती हैं और भावनात्मक-आंतरिक समस्याओं का समाधान धर्म तत्व की सहायता से होता है। शरीर की तरह यदि आत्मा का भी महत्व समझा जा सके तो शरीर पोषण की तरह यदि आत्मा की आवश्यकता पूरी करने को भी महत्व दिया जा सके तो धर्म का स्वरूप जानने की ही नहीं, उसे अपनाने की फलश्रुतियां भी समझी जा सकेंगी। ऐसी दशा में आज जो धर्म के प्रति अश्रद्धा है वह उलटेगी और सर्वत्र धर्म-परायणता पर बल दिया जाने लगेगा।



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